तमिलनाडु में त्रिची में कोट्टापलयम में वंचित ईसाइयों ने अपने साथ हो रहे भेदभाव की बात की है। उन्होंने आरोप लगाया कि उनके साथ चर्च की गतिविधियों में भेदभाव होता है। उन्हें चर्च की गतिविधियों में सम्मिलित नहीं किया जाता है। टाइम्स ऑफ इंडिया के अनुसार जे दास प्रकाश, ए पॉलदास और राज नोबिली ने आरोप लगाया कि गाँव में चर्च के पादरी कुम्बकोनम कैथोलिक डिओसेस के हैं। उस गाँव में 540 परिवार वंचित ईसाइयों के रहते हैं और लगभग 100 परिवार 100 परिवार कैथोलिक के प्रभावशाली उच्च जाति के हैं।
वंचित ईसाइयों के आरोप हैं कि चर्च में एक काउंसिल कार्य कर रही है, और इसमें उनके समुदाय के लोगों को सदस्यों के रूप में नियुक्त नहीं किया जाता है और यहाँ तक आरोप लगाया कि वंचितों द्वारा चर्च के किसी भी वित्तीय योगदान में या सब्सक्रिप्शन में योगदान यह कहते हुए नहीं लिया जाता है कि इससे उनकी परम्पराएं दूषित हो जाएंगी। हालांकि गाँव के प्रभावशाली कैथोलिक समुदाय के सरपंच ए कन्नन का कहना है कि कैथोलिक के सभी जाति के लिए मिलजुलकर रहते हैं और कोई भेदभाव नहीं होता है।
हालांकि यह दावा अवश्य किया जाता है कि ईसाइयों में कथित जाति के आधार पर भेदभाव नहीं होता है, मगर यह पूरी तरह से झूठ है क्योंकि यदि ऐसा होता तो वंचित ईसाई जैसा शब्द ही अस्तित्व में नहीं आता। तमिलनाडु से लेकर केरल तक वंचित ईसाई लगातार अपने साथ ईसाई मत में अपने साथ होने वाले जातिगत भेदभाव को लेकर बात करते रहे हैं और आन्दोलन भी करते रहे हैं। और यह भी बात की जाती है कि उन्हें आरक्षण प्रदान किया जाए, परन्तु यह भी सत्य है कि हिन्दू धर्म में जातिगत भेदभाव को लेकर पिछड़ा कहने वाले लोग अपने मत में उन लोगों के साथ निरंतर भेदभाव करते हैं, जो वंचित से ईसाई बने होते हैं। जैसे मुस्लिमों में पसमांदा मुस्लिम लगातार अपने साथ हो रहे भेदभावों को लेकर अपनी आवाज बुलंद कर रहे हैं वैसे ही वंचित ईसाई भी यह मांग उठा रहे हैं कि उनके साथ ईसाई मत में हो रहा वह भेदभाव परक अत्याचार बंद हो, जिससे कथित रूप से बचने के लिए वह हिन्दू धर्म छोड़कर ईसाई बने थे।
वर्ष 2016 में भारत के एक कैथोलिक चर्च ने पहली बार अधिकारिक तौर पर यह बात मानी थी कि वंचित ईसाइयों को छुआछूत एवं भेदभाव का सामना करना पड़ता है। तब यह बात मानी गयी थी कि चर्च आदि में जो उच्च स्तर का नेतृत्व है, उसमें वंचित ईसाइयों की भागीदारी नगण्य है। यहाँ तक कि केरल में तो वंचितों के अपने गिरजे हैं और जिन्हें पूलाया गिरजा या पाराया गिरजा कहा जाता है। यह उपजाति नाम है। “पाराया का अंग्रेजी नाम है “PARIAH” अर्थात अछूत!
https://wol.jw.org की एक रिपोर्ट के अनुसार अगस्त 1996 में इन्डियन एक्सप्रेस की एक समाचार रिपोर्ट में लिखा था था कि “तमिल नाडु में, उनके निवास उच्च जातियों से अलग हैं। केरल में, वे ज़्यादातर भूमिहीन मज़दूर हैं, और सिरियन ईसाइयों तथा उच्च जातियों के दूसरे भूमिधरों के लिए काम करते हैं। वंचितों और सिरियन ईसाइयों के बीच अंतर्भोज या अंतर्विवाह का प्रश्न ही नहीं उठता। अनेक मामलों में, वंचित अपने गिरजों में उपासना करते हैं, जिन्हें ‘पूलाया गिरजा’ या ‘पाराया गिरजा’ कहा जाता है।” ये उपजाति नाम हैं। “पाराया” का अंग्रेज़ी रूप है PARIAH (अछूत)।
ईसाइयों के बीच वंचित ईसाइयों के साथ होने वाले भेदभाव की तमाम शिकायतें लगातार आती रहती हैं। यह भेदभाव उनसे हिन्दू नहीं बल्कि उनके संगी ईसाई लोग ही करते हैं। हाल ही में भास्कर ने भी कई ऐसे व्यक्तियों के हवाले से ईसाइयों में कथित वंचित ईसाईयों के साथ हो रहे भेदभाव की कहानियां प्रकाशित की थीं। जो भी समानता की बात करते हुए ईसाई मत में जाते हैं, उनकी संतानों के साथ वह भेदभाव उस मत में होता है, जिसे कथित समानता का मत कहा जाता है। मतांतरित हुए ईसाइयों में शायद ही आपस में शादी होती है। चर्च में बहुत ही व्यापक स्तर पर मतांतरित हुए वंचित ईसाइयों के साथ भेदभाव होते रहते हैं। कुछ ही वर्ष पहले तमिलनाडु में कुछ चर्च केवल इसलिए बंद हो गए थे क्योंकि वंचित ईसाइयों ने प्रशासन में अपना हिस्सा मांग लिया था।
चर्च के प्रशासन में वंचित ईसाइयों को न ही हिस्सा बनाया जाता है और न ही किसी भी प्रकार की भागीदारी दी जाती है। वर्ष 2010 में बीबीसी में प्रकाशित उस तस्वीर को कौन भूल सकता है, जिसमें वंचित ईसाइयों के अलग कब्रिस्तान की तस्वीर प्रकाशित की गयी थी।
https://www.bbc.com/news/world-south-asia-11229170
इस दीवार को चर्च भी नहीं तुड़वा पाया था और यह कहते हुए अपनी असहायता प्रदर्शित की थी कि चूंकि यह एक निजी संपत्ति है, तो इस विषय में कुछ नहीं किया जा सकता है। हिन्दू धर्म के एक बड़े वर्ग को यह कहकर ईसाई मत में लाए जाने का कार्य ईसाई मिशनरी द्वारा जोरों शोरो से किया जाता है कि हिन्दू धर्म में भेदभाव होता है, परन्तु ईसाई मत में जाकर उनके साथ क्या होता है, इस पर बात नहीं होती। यहाँ तक कि भारत की धार्मिक स्वतंत्रता को लेकर अमेरिका द्वारा जो एक पक्षीय रिपोर्ट बनाई जाती है, उसमें भी यह बात नहीं होती है कि भारत में पसमांदा मुसलमानों के साथ छुआछूत जैसा व्यवहार कौन करता है? क्या पसमांदा मुस्लिमों में परस्पर निकाह होते हैं? क्या उनके साथ उनके समुदाय में ही समानता का व्यवहार किया जाता है? या फिर कथित वंचित ईसाइयों के साथ कैथोलिक ऊंची जातियों द्वारा उस समानता का व्यवहार किया जाता है, जिसे लेकर हिन्दू धर्म पर निशाना साधा जाता है? अमेरिका का विदेश विभाग जब हर वर्ष विभिन्न देशों में ‘पांथिक स्वतंत्रता की स्थिति’ पर रिपोर्ट जारी करता है तो क्या वह उन ईसाइयों की बात सुनता है, जिन्हें चर्च की गतिविधियों में भाग नहीं लेने दिया जाता है, या फिर जिनकी बेटियों की शादियाँ भी ईसाई संगियों में नहीं होती है? क्या ईसाइयों के मध्य हो रहे इस भेदभाव पर इस रिपोर्ट पर बात नहीं होनी चाहिए? ईसाई मैट्रीमोनी की वेबसाईट पर नजर डालते हैं तो पाते हैं कि कई आधार पर ईसाई मत में जीवन साथी खोजे जाते हैं, जैसे भाषा, प्रांत, प्रभुत्व आदि।
https://www.christianmatrimony.com/denomination-matrimony
जैसे प्रांत के आधार पर
समानता के आधार पर ईसाई बनाए लोगों के साथ भेदभाव न ही आज की बात है और न ही शायद यह अंतिम होगी। ऐसे में प्रश्न यह उठता है कि क्या भारत में ईसाई मिशनरी का उद्देश्य केवल लक्ष्यविहीन मतांतरण रह गया है, जिससे ईसाइयों की संख्या बढ़ती जाए? क्या ईसाइयों में जो इस प्रकार के वर्गीकरण या भेदभाव हैं, उन पर सामाजिक आन्दोलन नहीं होना चाहिए? क्या कथित प्रगतिशीलों को इस विषय में समानता के आन्दोलन नहीं चलाए जाने चाहिए कि आरक्षण के स्थान पर ईसाइयों के कथित प्रभुत्वशाली वर्गों द्वारा कथित दलित ईसाइयों के प्रति छुआछूत समाप्त हो?
वंचित ईसाइयों और कथित उच्च वर्ग वाले ईसाइयों के बीच भी रोटी-बेटी का व्यवहार आरम्भ हो? उन्हें चर्च में अधिकार मिलें, उन्हें चर्च के अधिकारियों के मध्य स्थान मिले, यह बहस चले और भाषा, प्रांत आदि के आधार पर कम से कम शादियों में तो भेदभाव न हो, क्या यह बात प्रगतिशीलों द्वारा नहीं उठाई जानी चाहिए और साथ ही चर्च द्वारा इस भेदभाव को समाप्त किए जाने को लेकर क्या कदम उठाए जा रहे हैं, उस पर भी बात होनी चाहिए।
चूंकि ईसाईमत में जातिगत भेदभाव की कोई अवधारणा नहीं है, इसलिए आरक्षण की बात न करते हुए जातिगत भेदभाव मुक्त ईसाई मत की बात उन तमाम प्रगतिशीलों को करनी चाहिए, जो हिन्दू धर्म को जातिगत भेदभाव से भरा हुआ मान कर ईसाई मत को श्रेष्ठ बताते रहते हैं।
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