23 व 24 मई को बालाघाट के नक्सल प्रभावित, जनजातीय बाहुल्य परसवाड़ा में, आचार्य धीरेन्द्रकृष्ण शास्त्री द्वारा ‘वनवासी रामकथा’ का आयोजन प्रस्तावित था. स्वाभाविक था कि इसमें स्थानीय जनजातीय समाज की बड़ी भागीदारी होती, हुई भी, लेकिन स्थानीय टूलकिट गिरोह सक्रिय हो गया.
“जनजातीय मान्यताएँ कैसे प्रभावित हो जाएँगी ?… ग्रामसभा से किस चीज की अनुमति लेनी पड़ेगी ?…. प्रायोजित पीआईएल मत लगाइये….” मध्यप्रदेश उच्चन्यायालय के इस वक्तव्य ने एक संविधान और जनजातीय क्षेत्रों को लेकर चल रहे, दशकों पुराने प्रायोजित दुष्प्रचार का पर्दाफ़ाश किया है. सारे देश के जनजातीय इलाकों में ऐसा झूठ फैलाया जाता रहा है, मानो हमारे संविधान ने जनजातीय अंचलों को भारत की विधि और प्रशासन के दायरे से स्वतंत्र घोषित कर दिया है. इस बार प्रयोग स्थल बना मध्यप्रदेश का बालाघाट जिला.
कुछ जनजातीय गाँवों में लोगों बरगला-धमकाकर स्वायत्त क्षेत्र घोषित करने के प्रयोग भी शुरू कर दिए. जेएनयू में बैठे कुछ शहरी नक्सली “महिषासुर बलिदान दिवस” और “होलिका शहादत दिवस” जैसे जुमले गढ़ने लगे. लेख लिखे जाने लगे कि ये जनजातीय लोग हिंदू नहीं हैं ये तो “असुरों के वंशज” हैं. ये राम, शिव, गणेश, दुर्गा आदि का पूजन कैसे कर सकते हैं?
23 व 24 मई को बालाघाट के नक्सल प्रभावित, जनजातीय बाहुल्य परसवाड़ा में, आचार्य धीरेन्द्रकृष्ण शास्त्री द्वारा ‘वनवासी रामकथा’ का आयोजन प्रस्तावित था. स्वाभाविक था कि इसमें स्थानीय जनजातीय समाज की बड़ी भागीदारी होती, हुई भी, लेकिन स्थानीय टूलकिट गिरोह सक्रिय हो गया. लोगों को रामकथा के खिलाफ लामबंद करने की असफल कोशिशें शुरू हुईं. रामकथा तो रुकी नहीं, और ये लोग पेसा क़ानून का हवाला देते हुए न्यायालय जा पहुँचे. जनजातीय हितों की रक्षा के लिए 1996 में पेसा नामक केन्द्रीय क़ानून बनाया गया, जिसे राज्य सरकारों को अपने राज्यों में लागू करने का अधिकार था. मध्यप्रदेश ने हाल ही में मध्यप्रदेश पेसा अधिनियम 2022 लागू किया है.
साजिशों की टूलकिट –
टूलकिट केवल शहरी क्षेत्रों, नगरों –महानगरों के लिए नहीं बनाई जा रहीं, भारत के जनजातीय अंचल भी इनके निशाने पर हैं. हर जगह की तरह यहाँ भी साजिश के कुछ आज़माए हुए तरीके हैं. पहला चरण, समाज के एक वर्ग की अलग पहचान खड़ी करना, उस पहचान को केंद्र में रखते हुए असंतोष को उभारना, फिर उस असंतोष को संघर्ष में बदलना और संघर्ष की आग पर अपने मतलब की रोटियाँ सेंकना. साजिश के मोहरे व्हाट्सअप, यूट्यूब , फेसबुक से लेकर, धरनों, मोर्चों और अदालत में लगाईं जाने वाली याचिकाओं तक बिछाए जाते हैं.
सो रामकथा रोकने याचिका लगाई गई जिसमें कहा गया कि जनजातीय क्षेत्रों में “हिन्दुइज्म को फैलाने “ के लिए किए जा रहे 23 और 24 मई के आयोजन को रोका जाए, जो जनजातीय मान्यताओं (ट्राइबल माइथोलॉजी) को प्रभावित करता है…. यह क्षेत्र संविधान के अनुसार घोषित जनजातीय क्षेत्र है. आर्टिकल 95 में कुछ बंधन दिए गए हैं. यहाँ पेसा अधिनियम लगा है. आंचलिक और सांस्कृतिक आयोजन ग्रामसभा की अनुमति से ही हो सकते हैं, इत्यादि.
आदिवासी इलाकों में कथावाचक धीरेंद्र शास्त्री जी की कथा के खिलाफ बहस कर रहे वकील को जबलपुर हाई कोर्ट ने फटकार लगाई. याचिका को किया निरस्त। pic.twitter.com/DUvStElNDL
— Shubham shukla (@ShubhamShuklaMP) May 23, 2023
निराकरण करते हुए माननीय न्यायालय ने स्वयं पेसा के प्रावधान को पढ़कर सुनाया और याचिकाकर्ता से प्रश्न पूछा …“ग्रामसभा, लोगों की परंपराओं, रूढ़ियों , उनकी सांस्कृतिक पहचान, समुदाय के संसाधनों और विवाद निपटाने के रूढीजन्य ढंग का संरक्षण और परिरक्षण करने के लिए सक्षम होगी. ..ग्राम पंचायत स्तर पर प्रत्येक पंचायत से यह अपेक्षा की जाएगी कि वह ग्रामसभा से, खंड ड में निर्दिष्ट योजनाओं, कार्यक्रमों और परियोजनाओं के लिए उन पंचायत द्वारा निधियों के उपयोग का प्रमाणन प्राप्त करे. …. कहाँ है (अर्थात जो आप कह रहे हैं?) .. यदि कल मैं वहाँ जाना चाहता हूँ , एक रैली या सभा करना चाहता हूँ, तो?. कहाँ लिखा है कि ग्रामसभा से अनुमति लेनी की आवश्यकता होगी?.. 1996 के पेसा अधिनियम में कहीं ऐसी अनुमति लेने का प्रवधान नहीं है..” इसी पक्ष से एक अन्य वकील महोदय ने तर्क दिया कि ये स्थान “बड़ादेव” का क्षेत्र है, यहाँ रामकथा नहीं हो सकती. इस पर उच्च न्यायालय ने पूछा कि बड़ादेव की क्या मान्यताएँ हैं, कहाँ लिखी हैं? इस पर वकील महोदय चुप्पी साध गए. वास्तव में विषय के विद्वान् बतलाते हैं कि शब्द ‘बड़ादेव’ , ‘महादेव शिव’ का ही एक शब्दांतर है. “महा” अर्थात “बड़ा”. भाव वही है.
इस तरह पनपा इकोसिस्टम –
वास्तव में जनजातीय समाज को भारत की सनातन परंपरा से तोड़कर अलग करने का षड्यंत्र डेढ़ शताब्दी से अधिक पुराना है. शुरुवात कन्वर्जन उद्योग ने की, बाद में इसमें नए खिलाड़ी जुड़ते गए. वामपंथ को अपनी विध्वंसात्मक गतिविधियों के लिए ये पटकथा भा गई. नक्सल भर्ती अभियान के लिए भी ये अच्छा स्क्रीनप्ले बन गया. वोटों की गंध सूंघते कुछ दल भी इस दलदल का आनंद उठाने लगे. इस तरह एक इकोसिस्टम तैयार हुआ, जिसकी जड़ें छोटे-छोटे गाँव -खेड़ों से लेकर, अर्बन नक्सलियों, विश्वविद्यालयों, मीडिया से लेकर अकूत पैसे और रसूख वाले बहुराष्ट्रीय कन्वर्जन तंत्र तक फ़ैल गईं.
भारत के समाज में संवादहीनता की कुछ दरारें हैं, जिनका लाभ उठाकर ये इकोसिस्टम झूठ गढ़ता है, और फिर उसे अलग -अलग तरीकों से, अलग-अलग मंचों से दोहराए चला जाता है. न्यायालय ने क़ानून रक्षा का अपना काम किया है.जनजातीय क्षेत्रों से संवाद स्थापित और गहरा करने का काम समाज के रूप में हमारा है. बहुत भोले, बहुत सादे लोग हैं. हमारे अपने लोग हैं. हाथ बढ़ाने की देर है.
स्थानीय छुटभैयों ने भी छोटी-छोटी जागीरें बनाने के लिए इस इकोसिस्टम की चाकरी कर ली. आधार बनाया “तुम हिंदू नहीं हो…” के यूरोप जन्य प्रोपेगंडा को. बाद में इस प्रोपेगंडा को ईंधन देने के लिए, स्थानीय असंतोष को भुनाते हुए संविधान, संविधान प्रदत्त पाँचवी अनुसूची, पेसा अधिनियम की शरारतपूर्ण व्याख्या की जाने लगी. इस गिरोह ने कुछ जनजातीय गाँवों में लोगों बरगला-धमकाकर स्वायत्त क्षेत्र घोषित करने के प्रयोग भी शुरू कर दिए. जेएनयू में बैठे कुछ शहरी नक्सली “महिषासुर बलिदान दिवस” और “होलिका शहादत दिवस” जैसे जुमले गढ़ने लगे. लेख लिखे जाने लगे कि ये जनजातीय लोग हिंदू नहीं हैं ये तो “असुरों के वंशज” हैं. ये राम, शिव, गणेश, दुर्गा आदि का पूजन कैसे कर सकते हैं? इसी क्रम में ये तर्क प्रस्तुत किया गया कि परसवाड़ा में श्रीराम कथा से “जनजातीय मान्यताएं” आहत होंगी.
दोहराए चले जाओ झूठ को –
पेसा में जनजातीय क्षेत्र की पारंपरिक ग्राम सभाओं को पंचायती व्यवस्था के अंतर्गत स्वशासन सुनिश्चित करने के लिए कुछ अधिकार दिए गए हैं, जैसे तालाब् प्रबन्धन, मेले और बाजार का प्रबंध, स्कूल, स्वास्थ्य केंद्र ठीक चलें, आंगनबाड़ी में बच्चों को पोषण आहार मिले, आश्रम शालाएं और छात्रावास बेहतर तरीके से चलें शराब की नईं दुकानें बिना ग्रामसभा की अनुमति के नहीं खुलेंगी,मनरेगा योजना के धन से कौन सा काम किया जायेगा, इसे पंचायत सचिव नहीं बल्कि ग्रामसभा तय करेगी आदि. जनजातीय वर्ग के लोग वनोपज संग्रहण करने के साथ उसे बेच भी सकेगे. वनोपज की दर ग्राम सभा तय करेंगी. जनजाति क्षेत्रों में केवल लायसेंसधारी साहूकार ही निर्धारित ब्याज दर पर पैसा उधार दे सकेंगे. इसकी जानकारी भी ग्राम सभा को देना होगी. साहूकार द्वारा अधिक ब्याज नहीं लिया जा सकेगा… इस सकारात्मक व्यवस्था को अराजकता का हथियार बनाने के प्रयासों पर न्यायालय ने तगड़ी चोट की है.
भारत के समाज में संवादहीनता की कुछ दरारें हैं, जिनका लाभ उठाकर ये इकोसिस्टम झूठ गढ़ता है, और फिर उसे अलग -अलग तरीकों से, अलग-अलग मंचों से दोहराए चला जाता है. न्यायालय ने क़ानून रक्षा का अपना काम किया है.जनजातीय क्षेत्रों से संवाद स्थापित और गहरा करने का काम समाज के रूप में हमारा है. बहुत भोले, बहुत सादे लोग हैं. हमारे अपने लोग हैं. हाथ बढ़ाने की देर है.
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