योगी आदित्यनाथ की माफिया के विरुद्ध ‘जीरो टॉलरेंस’ नीति पर भी मतदाता की मोहर है। इसमें सरकार को समाज के हर वर्ग, जाति और मत-पंथ का समर्थन मिला।
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने इस बार स्थानीय निकाय चुनाव में एक नारा दिया- ‘न कर्फ्यू, न दंगा, यूपी में सब चंगा’। नतीजा, 17 नगर निगमों के मेयर पद के चुनाव में भाजपा ने सभी विपक्षी दलों का सूपड़ा साफ कर दिया। सपा, बसपा और कांग्रेस ने पूरा जोर लगाकर जितने वोट हासिल किए, उससे अधिक अकेले भाजपा को मिले।
यह योगी आदित्यनाथ की माफिया के विरुद्ध ‘जीरो टॉलरेंस’ नीति पर भी मतदाता की मोहर है। इसमें सरकार को समाज के हर वर्ग, जाति और मत-पंथ का समर्थन मिला। चुनाव आयोग के अनुसार, राज्य की सभी 17 नगर निगमों में भाजपा ने 17 मेयर, 813 पार्षद, 89 नगर पालिका परिषद अध्यक्ष और 1,360 सभासद, 191 नगर पंचायत अध्यक्ष व 1,403 वार्ड सदस्य पदों पर जीत दर्ज की है।
निकाय चुनाव से पूर्व पुलिस अभिरक्षा में माफिया सरगना अतीक अहमद और उसके भाई अशरफ की हत्या को मुस्लिम परस्त राजनीतिक दलों ने मुद्दा बनाने की कोशिश की। पूरा सेकुलर इकोसिस्टम अतीक को ‘फरिश्ते’ की तरह पेश कर रहा था। यही नहीं, इसकी आड़ में भावनाएं भड़काने के प्रयास भी किए गए। लेकिन उन्हें मुंह की खानी पड़ी।
भाजपा ने निकाय चुनाव में 395 मुसलमानों को टिकट दिया था, जिनमें 45 ने जीत हासिल की है। पांच नगर पंचायत अध्यक्ष पर भी भाजपा के मुस्लिम उम्मीदवारों ने कमल खिलाया। इनमें हरदोई की गोपामऊ, सहारनपुर की चिलकाना, संभल की सिरसी, बरेली की धौरा टांडा और मुरादाबाद की भोजपुर नगर पंचायत शामिल हैं। वहीं, गोरखपुर नगर निगम में भी भाजपा की टिकट पर एक मुस्लिम पार्षद ने जीत दर्ज की है। इसके अलावा, पालिका, पंचायत सदस्यों के पदों पर भी भाजपा के मुस्लिम उम्मीदवार जीते हैं।
सभी निगमों में मेयर
भाजपा ने पिछली बार 17 में से 14 मेयर पदों पर जीत हासिल की थी। लेकिन इस बार भाजपा को अयोध्या, लखनऊ, वाराणसी और गोरखपुर के अलावा अलीगढ़, आगरा, कानपुर प्रयागराज, गाजियाबाद, झांसी, मेरठ, मुरादाबाद, सहारनपुर, मथुरा-वृंदावन, बरेली, शाहजहांपुर और फिरोजाबाद सभी नगर निगमों में मेयर पद पर जीत मिली है।
इसके अलावा 1,420 नगर निगम पार्षद पदों में से 813 पदों पर भाजपा, 191 पर सपा, 85 पर बसपा और 77 पार्षद पदों पर कांग्रेस ने जीत दर्ज की है। इसी तरह, नगरपालिका की 199 सीटों में से भाजपा को 89, सपा को 35, बसपा को 16 और कांग्रेस को महज 4 पालिका अध्यक्ष सीटों पर जीत मिली। पालिका परिषद सभासदों की 5,327 सीट में से भाजपा को 1360, सपा को 425, बसपा को 191 और कांग्रेस को 91 स्थानों पर जीत मिली। नगर पंचायत अध्यक्ष की 7177 सीटों में से भाजपा को 191, सपा को 79, बसपा को 37 और कांग्रेस को 14 सीटें मिली हैं।
वोट प्रतिशत बढ़ा
2017 के मुकाबले इस निकाय चुनाव में भाजपा ने प्रदेश में अपनी पकड़ और सुदृढ़ की है। 2017 में पार्टी को 30.8 प्रतिशत वोट मिले थे, जो इस बार बढ़कर 32.22 प्रतिशत हो गए हैं। वहीं, विपक्ष की हालत पिछले पांच साल में और पतली हुई है। सपा को 2017 के निकाय चुनाव में 18 प्रतिशत वोट मिले थे, जो इस बार घट कर 14.9 प्रतिशत रह गए। स्पष्ट है कि सपा की कमान अखिलेश यादव के हाथ में आने के बाद मतदाता पार्टी से दूर हो रहे हैं। इसमें एक अहम पहलू अतीक अहमद का भी है।
अखिलेश यादव ने अतीक के नाम पर मुस्लिम वोट बैंक के ध्रुवीकरण की कोशिश की थी, लेकिन वोट प्रतिशत में गिरावट को देखकर लगता है कि सपा अपने परंपरागत मतदाता भी खो रही है। इसी तरह, बसपा के हाथ से दलित ‘वोट बैंक’ निकल चुका है। निकाय चुनाव में बसपा ने बड़ी संख्या में मुस्लिम प्रत्याशी उतारे थे।
इसके बावजूद उसके वोट प्रतिशत में भारी गिरावट आई है। 2017 के निकाय चुनाव में बसपा को 14.3 प्रतिशत वोट मिले थे, जो इस बार घट कर 8.81 प्रतिशत रह गए। यानी दलितों में सुरक्षा की भावना आई है और वह वोट की ठेकेदारी की प्रथा से बाहर आ गया है। प्रदेश में कांग्रेस की हालत सबसे खराब है। 2017 में कांग्रेस को 10 प्रतिशत वोट मिले थे, जो इस चुनाव में घटकर 4.90 प्रतिशत रह गए हैं। यदि समग्र रूप से देखें तो सपा, बसपा और कांग्रेस, तीनों को मिलाकर जितने वोट मिले हैं, वे भी भाजपा को मिले वोट से कम हैं। यह पहलू साफ संकेत देता है कि मौजूदा हालात में किसी चुनाव में ये तीनों पार्टियां मिलकर भी भाजपा से पार नहीं पा सकेंगी।
सोनिया की सीट पर लहराया भगवा
सोनिया गांधी की संसदीय सीट रायबरेली में रायबरेली नगरपालिका अध्यक्ष पद कांग्रेस को जरूर मिला, लेकिन जिला पूरी तरह भगवा हो गया है। नगर पंचायत की 9 में से 5 सीटें भाजपा ने जीती हैं। कांग्रेस को एक सीट और बाकी तीन सीटों पर निर्दलीय उम्मीदवारों ने जीत दर्ज की है। मैनपुरी नगरपालिका अध्यक्ष पद पर मिली करारी हार सपा के लिए किसी झटके से कम नहीं है। यह क्षेत्र हमेशा से सपा का गढ़ माना जाता रहा है। मैनपुरी से अखिलेश यादव की पत्नी डिंपल यादव सांसद हैं। यहां पालिका अध्यक्ष का पद भाजपा ने जीता है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी में नगर निगम मेयर पद का चुनाव भाजपा ने प्रचंड बहुमत से जीता। पार्षद की 100 सीटों में से 63 सीट भाजपा को, जबकि सपा को 13 और कांग्रेस को 8 सीटें मिली हैं। वहीं, मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के गृह क्षेत्र गोरखपुर में नगर निगम मेयर पद भाजपा ने 60 हजार से ज्यादा वोटों से जीता। यहां नगर निगम में 80 वार्ड हैं, जिसमें से 42 सीटें जीतकर भाजपा ने निगम में बहुमत भी हासिल कर लिया है। माफिया अतीक अहमद के कारण लगातार सुर्खियों में रहे प्रयागराज में भी मेयर पद पर भाजपा ने जबरदस्त जीत हासिल की। 100 पार्षद वाले निगम में भाजपा ने 56 सीटों पर विजय हासिल करके बहुमत हासिल किया। हालांकि अतीक के गृह वार्ड में सपा प्रत्याशी जीता।
ओवैसी का उभार
यूपी निकाय चुनाव के नतीजों में असदुद्दीन ओवैसी की आल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन का उभार खतरनाक दूरगामी नतीजों का संकेत दे रहा है। ओवैसी लगातार उत्तर प्रदेश के मुस्लिम वोटरों से कहते रहे हैं कि दूसरों की दरी उठाना बंद करें, अपनी ताकत बनाएं। इस बार एआईएमआईएम ने पांच नगरपालिका सीट जीत लीं। नगर निगमों में भी पार्टी के 75 पार्षद पहुंचे हैं मेरठ में तो पार्टी का उम्मीदवार मेयर के चुनाव में दूसरे स्थान पर रहा और सपा तीसरे नंबर पर चली गई। मुजफ्फरनगर में भी पार्टी के उम्मीदवार को दस हजार से ज्यादा वोट मिले। मुस्लिम मतों की ठेकेदारी करने वाले दलों के लिए यह किसी झटके से कम नहीं है।
यह जीत है बड़ी
- 2014 लोकसभा चुनाव में प्रचंड जीत के बाद से योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में भाजपा ने जीत का सिलसिला कायम रखा है और चुनाव दर चुनाव अपनी पकड़ मजबूत की है। 2017 में विधानसभा चुनाव की जीत को पार्टी ने 2022 में दोहराया। 2021 के ग्राम पंचायत चुनाव में भी भाजपा सबसे बड़ी पार्टी रही और शहरी पार्टी होने का ठप्पा हटा दिया। अब स्थानीय निकाय निर्वाचन में भी भाजपा ने यह साबित कर दिया है कि सुदूर छोटे कस्बों तक वह मजबूत पकड़ बना चुकी है।
- भाजपा के सुशासन, अपराधों पर सख्ती व सांप्रदायिक हिंसा के प्रति जीरो टोलरेंस की नीति को प्रदेश में समाज के हर वर्ग, जाति और मत ने पसंद किया है। साथ ही, विपक्ष के महंगाई, बेरोजगारी, ‘लोकतंत्र खतरे में है’ जैसे जुमलों को जनता ने पूरी तरह से नकार दिया।
- सड़क, बिजली, पानी व सुनवाई जैसे स्थानीय मुद्दों पर निकाय चुनाव होते हैं। भाजपा को जो जनादेश मिला है, उससे साफ है कि जनता ने स्थानीय मुद्दों पर भी पार्टी व सरकार को पूरे नंबरों से पास किया है।
- चुनावी राजनीति में कार्यकर्ताओं का मनोबल एक बहुत बड़ा पहलू होता है। भाजपा का कार्यकर्ता यदि पूरे जोश से नगर पंचायत के छोटे-छोटे वार्ड के चुनाव तक मजबूती से लड़ा है, तो इसका यही संदेश माना जाए कि पार्टी के आखिरी कार्यकर्ता तक संगठन की मजबूत पकड़ है।
- प्रदेश की राजनीति में बड़ा परिवर्तन यह आया है कि क्षेत्रीय और जातियों के नाम पर बने दल हिंदू वोट का बंटवारा करने में नाकाम रहे हैं। उधर भाजपा ने भी सभी वर्गों, जातियों को समुचित प्रतिनिधित्व दिया है। इन्हीं कारणों से सपा का ‘एम-आई’ (मुस्लिम-यादव) समीकरण और बसपा का ‘मीम-भीम’ समीकरण अब प्रदेश में फेल हो चुके हैं।
- निकाय चुनाव के नतीजे यह भी दर्शाते हैं कि उत्तर प्रदेश में विपक्ष इतनी खस्ता हालत में कभी नहीं था। अखिलेश यादव के नेतृत्व में सपा जनता से कटती जा रही है। सपा जिस तरीके से माफिया समर्थन पर उतर आई है, उसे जनता ने नकारा है। मुसलमानों के बीच असदुद्दीन ओवैसी की एआईएमआईएम के प्रति जो रुझान नजर आया, वह भी यही दिखाता है कि मुसलमानों का सपा से मोहभंग हो रहा है। मेरठ नगर निगम में तो मेयर पद पर एआईएमआईएम प्रत्याशी दूसरे स्थान पर रहा और सपा तीसरे स्थान पर खिसक गई।
- बसपा पार्टी की ‘दलित वोट बैंक’ की ठेकेदारी भी अब खत्म होती नजर आ रही है। सिर्फ पार्टी के नाम पर दलितों ने कहीं एकमुश्त वोट नहीं किया।
भाजपा के 45 मुस्लिम प्रत्याशी जीते
भाजपा ने निकाय चुनाव में 395 मुसलमानों को टिकट दिया था, जिनमें 45 ने जीत हासिल की है। पांच नगर पंचायत अध्यक्ष पर भी भाजपा के मुस्लिम उम्मीदवारों ने कमल खिलाया। इनमें हरदोई की गोपामऊ, सहारनपुर की चिलकाना, संभल की सिरसी, बरेली की धौरा टांडा और मुरादाबाद की भोजपुर नगर पंचायत शामिल हैं। वहीं, गोरखपुर नगर निगम में भी भाजपा की टिकट पर एक मुस्लिम पार्षद ने जीत दर्ज की है। इसके अलावा, पालिका, पंचायत सदस्यों के पदों पर भी भाजपा के मुस्लिम उम्मीदवार जीते हैं।
बड़ी सफलता के बीच कुछ चिंताजनक पहलू भी उभरकर सामने आए हैं। पार्टी के कई कद्दावर नेताओं और राज्य सरकार के मंत्रियों के क्षेत्र में भाजपा को हार मिली है। इनमें कई उम्मीदवार ऐसे हैं, जिनकी सांसद, विधायक, मंत्रियों व बड़े पदाधिकारियों ने पैरवी की थी। लेकिन वे अपने उम्मीदवारों को जिता नहीं सके। निकाय चुनाव के दौरान कुछ मंत्रियों के रुख को लेकर तो संगठन और सरकार दोनों में ही खासी नाराजगी है। इसके अलावा, कई स्थानों से पार्टी को रिपोर्ट मिली है कि कुछ सांसदों, विधायकों, मंत्रियों और पदाधिकारियों ने अधिकृत उम्मीदवार का भीतर से विरोध किया। चूंकि इस चुनाव को 2024 के लोकसभा चुनाव की रिहर्सल माना जा रहा है, इसलिए इन मसलों को पार्टी ने बहुत गंभीरता से लिया है। इसका असर जल्द ही नजर आएगा।
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