भारत की विविधता पश्चिमी जगत के लिए तो सदैव से आकर्षण, आश्चर्य एवं शोध की विषयवस्तु रही ही है, अनेक भारतीय विद्वान भी इसे लेकर भ्रम एवं संशय के शिकार रहे हैं। यह कहना अनुचित नहीं होगा कि ऊपरी, भेदकारी एवं राजनीतिक बुद्धि एवं दृष्टि से संपूर्ण भारतवर्ष में व्याप्त राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता का अनुभव-आकलन किया ही नहीं जा सकता। उसके लिए तो बड़ी गहरी, सूक्ष्म, समग्रतावादी, समन्वयकारी एवं सांस्कृतिक दृष्टि चाहिए।
इसे आदि शंकराचार्य ने मात्र 32 वर्ष की अल्पायु में संपूर्ण भारतवर्ष का तीन बार पैदल भ्रमण कर बख़ूबी समझा और निरंतर साधना के बल पर प्रत्यक्ष अनुभव किया था। संभवतः यही कारण रहा कि वे राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता के स्थाई, मान्य एवं व्यावहारिक सूत्र और सिद्धांत देने में सफल रहे। पूरब से पश्चिम तथा उत्तर से दक्षिण तक राष्ट्र को एकता एवं अखंडता के सुदृढ़ सूत्र में पिरोने में उन्हें अभूतपूर्व सफलता मिली। सुदूर दक्षिण में जन्म लेकर भी वे संपूर्ण भारतवर्ष की रीति, नीति, प्रकृति एवं प्रवृत्ति को भली-भाँति समझ पाए। वेदों, उपनिषदों, पुराणों एवं महाकाव्यों में बताया गया है कि ईश्वर सृष्टि के कण-कण में विद्यमान हैं। भारतीय दर्शन के अनुसार आत्मा, परमात्मा एवं संपूर्ण ब्रह्मांड एक-दूसरे से गहरे जुड़े हैं। जड़-चेतन, चर-अचर सभी प्राणियों में एक ही परम तत्त्व को देखने और पाने की दृष्टि भारतवर्ष में सदा से रही है।
आद्य शंकराचार्य ने इसका प्रत्यक्ष अनुभव किया था। इस ज्ञान, अनुभव एवं साधना के बल पर ही वे समय की धारा में स्वाभाविक रूप से आए भ्रम एवं भटकाव तथा भेद एवं संघर्ष आदि को पहचानकर, उसे दूर कर पाए। उन्होंने उस समय प्रचलित विभिन्न मत, पंथ, जाति आदि के बीच समन्वय स्थापित कर अद्वैतवाद का दर्शन दिया। उनका अद्वैत दर्शन सब प्रकार के भेद, संघर्ष, अलगाव व दूरी को मिटाकर आत्मा को परमात्मा, जीव को ब्रह्म तथा व्यक्ति-व्यक्ति को प्रकृति और पर्यावरण से जोड़ने का माध्यम है।
उन्होंने मनुष्य को छोटे-छोटे स्वार्थों, एवं संकीर्णताओं से ऊपर उठाया तथा उसकी संवेदना को विस्तार दिया। उन्होंने बताया और समझाया कि मनुष्य यदि स्वार्थ एवं संकीर्णताओं से ऊपर उठ जाय तो वह संपूर्ण सृष्टि के साथ गहरा आत्मिक संबंध स्थापित कर सकता है। उनके विचारों ने मनुष्य की चेतना को ऊपर उठाकर उसे उदार एवं श्रेष्ठ बनाने का कार्य किया। उनके अनुसार बाहरी संसार में जो भेद या अलगाव दिखाई देता है, वह अज्ञानता के कारण है। सत्य का साक्षात्कार हो जाने या सच्चा ज्ञान जान लेने पर यह भेद-बुद्धि अपने-आप समाप्त हो जाती है और सारा संसार उसी परम ब्रह्म का अभिव्यक्त स्वरूप जान पड़ता है, जिसे आध्यात्मिक भाषा में नाम रूपात्मक जगत कहते हैं। सही मायने में उनका अद्वैत दर्शन देश, काल, परिस्थिति आदि सब प्रकार की मानव निर्मित सीमाओं से परे एक विश्व-दर्शन है, जिसमें संपूर्ण धरती एवं मानवता के कल्याण का भाव निहित है।
आद्य शंकर के समन्वयकारी दर्शन ने उस समय प्रचलित भिन्न-भिन्न वैचारिक एवं धार्मिक धाराओं को भी सनातन धारा में सम्मिलित कर लिया। बौद्ध एवं जैन मतावलंबियों को भी वे सनातन के साथ लाने में लगभग सफल रहे। यह उनकी दी हुई दृष्टि ही थी कि बुद्ध भी विष्णु के दसवें अवतार के रूप में घर-घर पूजे गए। उन्होंने ऐसा राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक बोध दिया कि दक्षिण के काँची-कालड़ी-कन्याकुमारी-शृंगेरी आदि में पैदा हुआ व्यक्ति कम-से-कम एक बार अपने जीवन में उत्तर के काशी-केदार-प्रयाग-बद्रीनाथ की यात्रा करने की इच्छा रखता है तो वहीं पूरब के जगन्नाथपुरी का रहने वाला पश्चिम के द्वारकाधीश-सोमनाथ की यात्रा कर स्वयं को धन्य समझता है। देश के चार कोनों पर चार मठों एवं धामों की स्थापना कर उन्होंने एक ओर देश को एकता एवं अखंडता के मजबूत सूत्रों में पिरोया तो दूसरी ओर विघटनकारी शक्तियों एवं प्रवृत्तियों पर लगाम लगाया।
तमाम प्रकार के कथित भेदभावों के बीच आज भी गंगोत्री से लाया गया गंगाजल रामेश्वरम में चढ़ाना पवित्र कर्त्तव्य समझा जाता है तो जगन्नाथपुरी में खरीदी गई छड़ी द्वारकाधीश को अर्पित करना परम सौभाग्य माना जाता है। ये चारों मठ एवं धाम न केवल हमारी आस्था एवं श्रद्धा के सर्वोच्च केंद्रबिंदु हैं, अपितु ये आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक चेतना के सबसे बड़े संरक्षक एवं संवाहक भी हैं। यहाँ से हमारी चेतना एवं संस्कृति नया जीवन पाती है, फिर-फिर जागृत एवं प्रतिष्ठित होती है।
उन्होंने द्वादश ज्योतिर्लिंगों का जीर्णोद्धार कराया। उन द्वादश ज्योतिर्लिंगों एवं 52 शक्तिपीठों की तीर्थयात्रा की आशा-आकांक्षा सभी सनातनियों के मन में सदैव पलती-बढ़ती है। अखंड भारत में फैले ये द्वादश ज्योतिर्लिंग एवं शक्तिपीठ हमारी सांस्कृतिक एकता के लोक-स्वीकृत एवं सर्वमान्य प्रतीक हैं। इनके प्रति पूरब-पश्चिम-उत्तर-दक्षिण के लोगों की समान आस्था एवं श्रद्धा है। यह आस्था एवं श्रद्धा हमें आत्मिक तल पर सदैव जोड़े रखती है। यह विविधताओं के मध्य ऐक्य की अनुभूति कराती है। यह देश के भूगोल को जोड़ती है।
उन्होंने हर बारह वर्ष के पश्चात महाकुंभ तथा छह वर्ष के अंतराल पर आयोजित होने वाले अर्द्धकुंभ मेले के अवसर पर भिन्न-भिन्न मतों-पंथों-मठों के संतों-महंतों, दशनामी संन्यासियों के मध्य विचार-विमर्श, शास्त्रार्थ, संवाद एवं सहमति की व्यवस्था दी। उस मंथन एवं संवाद से निकले अमृत रूपी ज्ञान को जन-जन तक ले जाने की मति, दृष्टि और संस्कृति विकसित की।
यह उन जैसे अवतारी, अलौकिक एवं असाधारण साधकों के प्रयासों का ही सुखद परिणाम है कि हर कुंभ मेले पर लघु भारत का विराट स्वरूप उमड़ पड़ता है। करोड़ों श्रद्धालुओं का वहाँ एकत्रित होना, पवित्र नदी में डुबकी लगाना, व्रत, उपवास, मर्यादा एवं अनुशासन का नियमपूर्वक पालन करना, तंबु-डेरा डालकर हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन एवं नासिक में कई-कई दिनों तक व्रतियों एवं श्रद्धालुओं का निवास करना – संपूर्ण विश्व को मोहित एवं विस्मित कर जाता है।
वहाँ भाषा, जाति, प्रांत एवं पंथ-संप्रदाय आदि की सभी बाहरी एवं राजनीति-प्रेरित कृत्रिम दीवारें अपने-आप ढह जाती हैं, और पारस्परिक एकता, सद्भाव, सहयोग एवं प्रेम का साक्षात भाव-दृश्य सजीव एवं साकार हो उठता है। हर पीढ़ी के लिए आद्य शंकराचार्य के विचार, दर्शन एवं साहित्य समान रूप से उपयोगी हैं। उन्हें जीने और आत्मसात करने की आज कहीं अधिक आवश्यकता है। एक ऐसे दौर में जबकि विभाजनकारी शक्तियाँ पूरी शक्ति से सक्रिय हों, निश्चय ही आद्य शंकर का जीवन एवं संदेश राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता की भावना के संचार में सहायक है।
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