नई दिल्ली। समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता देने के मामले पर सुप्रीम कोर्ट की संविधान बेंच के समक्ष मंगलवार की सुनवाई पूरी हो गई। मामले की अगली सुनवाई 19 अप्रैल को होगी।
सुनवाई के दौरान याचिकाकर्ताओं की ओर से मुकुल रोहतगी ने कहा कि गरिमापूर्ण जीवन जीने के अधिकार, निजता का सम्मान और अपनी इच्छा से जीवन जीने का अधिकार है। घरेलू हिंसा, परिवार और विरासत को लेकर भी कोर्ट के दिशा-निर्देश स्पष्ट हैं। अब समलैंगिक जोड़ों को शादी की मान्यता देनी चाहिए ताकि समाज और सरकार इस तरह के विवाह को मान्यता दे।
चीफ जस्टिस ने रोहतगी से पूछा कि सरकार और समाज की मान्यता के बाद भी कई कानूनी सवालों के जवाब नहीं मिल रहे हैं, क्योंकि वे व्यावहारिक सवाल हैं। तब रोहतगी ने कहा कि विवाह के कई प्रकार हैं लेकिन समय-समय पर इसमें सुधार के आधार पर बदलाव भी हुए हैं। बहु विवाह, अस्थाई विवाह जैसी चीजें भी थीं जो अब इतिहास का हिस्सा हैं। उन्होंने कहा कि 1905 में हिंदू विवाह अधिनियम आया। इन कानूनी और संवैधानिक बदलावों में भारतीय दंड संहिता की धारा 377 को अपराध के दायरे से बाहर निकलने का दिल्ली हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के फैसले भी हैं। इसमें आ रही कानूनी अड़चनों के मद्देनजर कानून में पति और पत्नी की जगह जीवनसाथी शब्द का इस्तेमाल किया जा सकता है। इससे संविधान की प्रस्तावना और धारा 14 के मुताबिक समानता के अधिकार की भी रक्षा होती रहेगी।
रोहतगी ने कहा कि अदालतें हमारे अधिकारों की रक्षा के लिए हस्तक्षेप कर सकती हैं। यह हमारा मौलिक अधिकार है और हम केवल उस डिक्लेरेशन की मांग कर रहे हैं जो हमें कोर्ट दे सकता है। तब जस्टिस संजय किशन कौल ने कहा कि कभी-कभी सामाजिक मुद्दों में प्रगतिशील परिवर्तन बेहतर होते हैं लेकिन हर बात का एक वक्त होता है। उन्होंने कहा कि क्या हम फिलहाल इसे स्पेशल मैरिज एक्ट तक सीमित रख सकते हैं। चीफ जस्टिस ने पूछा कि क्या हम सिविल यूनियन के किसी रूप को विकसित कर सकते हैं।
केंद्र की ओर से पेश हुए सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि कोई भी बदलाव पर्सनल लॉ को प्रभावित करेगा। हिंदू, मुस्लिम या कोई भी पर्सनल लॉ को प्रभावित करेगा। जस्टिस कौल ने कहा हम पर्सनल लॉ में नहीं पड़ रहे हैं। तब मेहता ने कहा कि कल कोई आ सकता है और कह सकता है कि मैं एक हिंदू हूं, मैं हिन्दू मैरिज एक्ट के तहत शादी करना चाहता हूं। मुझे शादी का अधिकार क्यों नहीं दिया जा सकता? जस्टिस कौल ने कहा कि हमने कहा है कि हम पर्सनल लॉ को नहीं छू रहे हैं, आप कह रहे हैं कि कृपया पर्सनल लॉ को छूएं। हम कह रहे हैं कि हम पर्सनल लॉ में नहीं जाएंगे। हम इस बात पर विचार कर रहे हैं कि क्या हम जोड़े को स्पेशल मैरिज एक्ट में पढ़ सकते हैं।
वकील करुणा नंदी ने कहा हममें से कुछ लोगों ने विदेशी विवाह अधिनियम आदि अन्य कानूनों को भी चुनौती दी है। तब मेहता ने सवाल किया कि एलजीबीटीक्यू लोगों की निजता और गरिमा के अधिकार का नहीं है। सवाल सामाजिक-कानूनी संबंधों की मान्यता के अधिकार का है संसद से नहीं बल्कि एक न्यायिक आदेश द्वारा दिया जा सकता है।
याचिकाकर्ताओं के वकील मेनका गुरुस्वामी ने कहा कि हमें बैंक खाते, बीमा जैसे अधिकारों से वंचित किया जा रहा है। मैं सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन की सदस्य हूं। मैं अपने परिवार के लिए सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन का चिकित्सा बीमा नहीं खरीद सकती। एक पहलू अधिकार है। दूसरा जीवन का दिन-प्रतिदिन का व्यवसाय है। ज्यादातर रिश्ते या तो खून के रिश्ते या फिर शादी से चलते हैं। मुझे जीवन बीमा के लिए अपने साथी को नामांकित करने की अनुमति नहीं है।
वकील अभिषेक मनु सिंघवी ने कहा कि शादी शब्द का कोरा ढांचा नहीं हो सकता। अगर आप रबर बैंड को ज्यादा तानेंगे तो वह टूट जाएगा। सामाजिक स्वीकृति के लिए धीमी चाल महत्वपूर्ण है। कपिल सिब्बल ने समलैंगिक जोड़े को शादी की मान्यता देने का विरोध करते हुए कहा अगर समान लिंग वाली शादी टूट गई तो क्या होगा। ऐसे में उन जोड़ों द्वारा गोद लिए गए बच्चे का क्या होगा। उन और उसके बच्चे का पिता कौन होगा। उनके लिए आपराधिक कानूनों का क्या होगा। ऐसी कई और सवाल हैं जो आने वाले समय में आगे भी आएंगे, उनका भी जवाब नहीं है।
इस मामले में केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में में नया हलफनामा दायर किया है। केंद्र सरकार ने समलैंगिक जोड़ों को शादी की मान्यता देने की मांग वाली सभी याचिकाओं को खारिज करने का आग्रह किया है। केंद्र सरकार ने अपने हलफनामे में कहा है कि अदालत नहीं बल्कि केवल संसद ही है जो इस मुद्दे पर व्यापक विचार-विमर्श और भारत के ताने-बाने से जुड़े सभी ग्रामीण और शहरी, अर्ध-ग्रामीण और शहरी संरचनाओं के साथ अलग-अलग धार्मिक संप्रदायों के विचार और व्यक्तिगत कानूनों के अलावा विवाह के क्षेत्र को नियंत्रित करने वाले रीति-रिवाजों को ध्यान में रखते हुए निर्णय ले सकती है।
केंद्र सरकार ने अपने हलफनामे में कहा है कि समलैंगिक जोड़ों की शादी भारत के लोकाचार से परे और शहरी और संभ्रांत अवधारणा है। इतना ही नहीं यह विपरीत लिंग वाले जोड़ों की शादी से अलग जाकर विवाह की अवधारणा का विस्तार एक नई सामाजिक संस्था बनाने जैसा है। केंद्र सरकार समलैंगिक जोड़ों की शादी को मान्यता देने का विरोध करते हुए पहले भी सुप्रीम कोर्ट में एक हलफनामा दाखिल कर चुकी है।
इस संविधान बेंच में चीफ जस्टिस के अलावा जस्टिस संजय किशन कौल, जस्टिस एस रवींद्र भट, जस्टिस हीमा कोहली और जस्टिस पीएस नरसिम्हा शामिल रहेंगे। 13 मार्च को कोर्ट ने इस मामले को संविधान बेंच को को रेफर कर दिया था।
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