वाल्मीकि जी ने जब रामायण की रचना की तो हेतु था संसार का आदर्श जीवन क्या हो, यह सिखाना, बताना। लेकिन जब बाबा तुलसीदास ने रामचरितमानस की रचना की तो दुनिया को उपदेश करने का नहीं, बल्कि स्वयं की शांति का भाव था।
रामचरितमानस का 450वां वर्ष प्रारंभ हो रहा है। यह कितना सुख देना वाला समय है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरितमानस की रचना करके हेतु बदला है। वाल्मीकि जी ने जब रामायण की रचना की तो हेतु था संसार का आदर्श जीवन क्या हो, यह सिखाना, बताना। लेकिन जब बाबा तुलसीदास ने रामचरितमानस की रचना की तो दुनिया को उपदेश करने का नहीं, बल्कि स्वयं की शांति का भाव था। निज आनंद की सदिच्छा थी। बाबा ने रामचरितमानस की रचना के तीन हेतु स्पष्ट किए हैं। ..स्वांत: सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा। यानी निज आनंद के लिए लिखता हूं। दूसरा हेतु – दुनिया को उपदेश करना नहीं, बल्कि मेरे मन को बोध मिले, ज्ञान का कुछ प्रकाश प्राप्त हो जाए, इसलिए मैंने इसकी रचना की।
भाषाबद्ध करबि मैं सोई, मोरे मन प्रबोध जेहिं होई। मेरे मन को कुछ प्रबोध हो जाए, मेरे मन को कुछ सीखने को मिल जाए। इसलिए तुलसीदास जी ने संबोधन किया है दुनिया को नहीं, अपने मन को। और तीसरा हेतु – गान करने से वाणी पवित्र हो। इसलिए जब भी हम रामचरितमानस पढ़ते, सुनते हैं तो मन पवित्र होने लगता है। भक्ति भाव का जागरण होता है। मन भगवान में रमने लगता है। ऐसा इसका प्रताप है। आज रामचरितमानस की मान्यता दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। दुनिया के कोने-कोने में इसकी ख्याति फैली है। हमारा सबका विश्वास है, श्रद्धा है कि इसका कथापान जहां भी होता है, वहां स्वयं हनुमान जी महाराज विराजमान होकर इसे सुनते हैं। प्रभु चरित सुनिबे को रसिया, राम लखन सीता मन बसिया। इसलिए यह ग्रंथ अद्भुत है।
जब बात भगवान राम की आती है तो वे मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। सबको साथ लेकर चलते हैं। कोई भेदभाव नहीं। कोई पराया नहीं। सबका सम्मान, सबको स्नेह, सबसे प्रीत, यही उनके चरित्र की विशेषता है। वे सबके राम हैं और सब उनके हैं। पशु-पक्षी, नर-नारी, वनवासी-गिरिवासी, वंचित यानी कोई भी ऐसा वर्ग नहीं है, जो राम का नहीं और राम उनके नहीं। सबको परस्पर प्रेम, यही तो राम हैं। यही तो रामराज्य है। आज दुनियादारी में जितने भी संकट हैं, जितनी भी लड़ाइयां हो रही हैं, जितना भी क्लेश है, जितने भी मतभेद हैं, वह सब राम की शरण से दूर होने के चलते हैं। लेकिन जैसे ही व्यक्ति को ज्ञान होता है और वह अपने प्रभु के सन्निकट आता है, सब कष्टों से छुटकारा पा जाता है। ऐसा चरित्र है हमारे प्रभु श्रीराम का।
सबके हैं राम
राम को किसी एक सांचे, बंधन में नहीं बांधा जा सकता। उनका चरित्र तो सिंधु की भांति है। अपार-अपरिमित, अनंत। जहां एक-एक धारा ज्ञान की धारा है। उनका चरित्र ऐसा है कि वह वन जाने पर भी माता कैकेयी के प्रति कोई दुराभाव नहीं रखते। उनके मन में तो सिर्फ आज्ञा का भाव होता है। और जब वापस आते हैं तो माता कैकेयी के गले से लिपट जाते हैं। स्नेह करते हैं। माता कैकेयी अपने राम का माथा चूमती हैं। यही राम हैं। एक तरफ सोने की लंका में रावण रहता है तो दूसरी तरफ राजा राम भी राज महल में रहते हैं। लेकिन अंतर इतना है कि वे कभी केवट को नहीं भूलते। वे कभी शबरी के सम्मान को नहीं नकारते।
वे तो झोंपड़ी में रहने के लिए हरदम तैयार रहते हैं। उनके लिए सब बराबर हैं। बात इतनी है कि आप जब बड़ी जगह विराजमान होते हैं तो छोटे को ना भूलना। राम के जीवन में ऐसे अनगिनत उदाहरण हैं। केवट, शबरी, जटायु, नल-नील, गिलहरी, विभीषण, जामवंत, हनुमंत, कौन सा वर्ग उनके साथ नहीं है? वह कभी किसी को नहीं भूलते। राम ने वन गमन के दौरान निषाद राज को गले लगाया तो केवट को भी पूरा सम्मान दिया। शबरी का आतिथ्य स्वीकार कर प्रभु ने जूठे बेर खाए। इतना ही नहीं, भगवान राम ने उन सभी को अपना अंग माना जिन्हें आज कुछ लोग हेय दृष्टि से देखते हैं।
राम के जीवन में ऐसा कोई भेदभाव कभी रहा ही नहीं। फिर आज समाज में ऐसा भेदभाव कहां से आया? कौन लोग हैं जो हिन्दू समाज को जातियों के टुकड़ों में बांटकर हमें अलग करने की साजिश रच रहे हैं? ये सब सोचने-विचारने की बातें हैं। पूरा समाज एक शरीर की तरह ही है। शरीर के किसी भी भाग को कष्ट होगा तो पूरा शरीर अस्वस्थ हो जाएगा। समाज की अवधारणा भी कुछ ऐसी ही है। इसका भी कोई हिस्सा कमजोर होगा तो सामाजिक एकता की भावना कमजोर होगी। इसलिए आज के समय में राम से बढ़कर समरसता का दूसरा उदाहरण और कहां मिलेगा। वनवासी राम का सम्पूर्ण जीवन ही सामाजिक समरसता का अनुकरणीय पाथेय है।
प्रभु ने वन गमन के समय प्रत्येक कदम पर समाज के अंतिम व्यक्ति को गले लगाया। उन्होंने इसके माध्यम से यह संदेश दिया कि मनुष्य के अंदर एक ही जीव आत्मा है – ईश्वर अंश जीव अविनाशी। बाहर भले ही अलग दिखाई देते हों पर अंदर से तो एक ही हैं। भगवान राम ने अपने वन गमन के दौरान समाज के सबसे अंतिम पायदान पर खड़े व्यक्तियों को गले लगाकर सामाजिक समरसता का जो अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत किया, वह अनुकरणीय है। आज हम देखते हैं कि सामाजिक समरसता के भाव को नष्ट करने की साजिशें रची जाती हैं। तमाम झूठे तथ्य गढ़े जाते हैं, आपस में लड़ाया जाता है, समाज को कमजोर करने का सुनियोजित प्रयास किया जाता है। इसके कारण समाज की शक्ति तो कमजोर होती ही है, देश को हानि पहुंचती है। वास्तविक तथ्य यह है कि पुरातन समय में ऐसा नहीं था। असल में समाज में विभाजन की रेखा खींचने वाले कुछ स्वार्थियों ने इस भेदभाव को जन्म दिया है।
रावण कलह तो राम लाते हैं जीवन में शांति
रावण के जीवन को जब हम देखेंगे तो वह हर समय परेशान और कलह में ही रहा। ऐश्वर्य था लेकिन शांति नहीं थी। शक्ति थी पर अहंकार उससे ज्यादा था। वह शक्ति आने पर अपने भाई का ही अपमान करता है, उसे मारने के लिए दौड़ता है, उसे तिरस्कृत करके अपने राज्य से भगाता है। यह आसुरी प्रवृत्ति है। यह रावण का स्वभाव है। राम का स्वभाव ठीक इससे उलट है। वे सभी को सम्मान देते हैं। गले से लगा लेते हैं। सन्मार्ग दिखाते हैं। एक छोटी-सी गिलहरी को भी सम्मान देकर उसका मान बढ़ाते हैं। यह राम हैं। आज के समय आसुरी प्रवृत्ति का प्रकोप बढ़ा है। भाई-भाई आपस में लड़ते हैं, घरों में कलह है, संपत्तियों पर विवाद है, पिता पुत्र का अपमान करता है तो पुत्र पिता का। समाज में अनेक तरह से विष घोला जा रहा है। आपस में कैसे लड़ाई हो, इसकी साजिशें रची जाती हैं। यह सब इसलिए होता है क्योंकि उनके जीवन में राम नहीं हैं। राम जहां होते हैं, वहां लड़ाइयां नहीं, स्नेह आता है। प्रेम फैलता है। आपसी वैमनस्य स्वयं दूर होकर मेल-मिलाप होता है। क्योंकि राम का यही स्वभाव है। इसलिए हमारे जीवन में राम कैसे आएं, हम उनके सन्निकट कैसे पहुंचे, इसके लिए जतन करते रहना चाहिए। क्योंकि वे पालनकर्ता हैं, वही हमारे इष्ट हैं।
दीन-दुखियों की सेवा राम की सेवा
मानस में प्रश्न उठाया गया है कि सबसे सुंदर शरीर किसका है। तो काकभुसुंडि जी कहते हैं मानव शरीर। बड़े भाग मानुष तन पावा, सुर दुर्लभ सब ग्रंथनि गावा। यह देवों को भी दुर्लभ है। पुण्य करने से कोई भी देव बन सकता है, लेकिन मनुष्यत्व भगवान की कृपा से ही तो मिलता है। भगवान ने हम सबको मानव बनाकर हमारा सम्मान किया है। यह श्रेष्ठ है। इसका मतलब भगवान हमको बहुत चाहते हैं। तो जो हमें चाहते हैं, ऐसे में हमारी जिम्मेदारी बनती है कि हम सब उनका स्मरण करें, उनकी आराधना करें, उनके बताए रास्ते पर चलें। दीन-दुखियों की सेवा करें। समाज के सबसे अंतिम पंक्ति में बैठे व्यक्ति की अपने सामर्थ्य के अनुसार सेवा करें। यही राम की सेवा है। मनुष्यता यही है। जीवन का सार यही है। क्योंकि भगवान श्रीराम ने – विप्र धेनु सुर संत हित, लीन्हि मनुज अवतार – को ही तो चरितार्थ किया है। इन चारों के हित के लिए भगवान का अवतार हुआ। रावण इन चारों का विरोधी था। भगवान राम का रावण से कोई विरोध नहीं था। वह तो उसके भी मंगल की कामना करते थे। काजु हमार तासु हित होर्र्ई…।
भगवान श्री राम ने रावण को मारा नहीं बल्कि तारा है। उसकी पत्नी मंदोदरी रावण को संबोधित करती हुई कहती हैं- हे नाथ! आप पूरे जीवन भर द्रोह करते रहे, लेकिन भगवान की कृपा देखिए कि उन्होंने आपको अपने लोक में स्थान दिया। मैं राम को नमस्कार करती हूं। इसलिए रावण को राम ने नहीं, उसके कर्म ने मारा है। दरअसल यह विचारों का संघर्ष था। दशाननी और दसरथी विचारधारा का संघर्ष था। दशाननी विचारधारा भोग और अपहरण की है। रावण ने सब कुछ अपहरण करके बनाया। चाहे वह सोने की लंका हो या सुर, नर, मुनि और गंधर्व की कन्या हों। लेकिन श्रीराम की विचारधारा त्याग और समर्पण की है। राम और रावण का युद्ध विचारों का युद्ध है। एक तरफ त्याग और समर्पण है तो दूसरी तरफ भोग और अपहरण है। इसलिए आज भी देखते हैं कि भौतिकता और आध्यात्मिकता में संघर्ष चल रहा है। यहां मैं बताना चाहता हूं कि आध्यात्मिकता का भौतिकवाद से कोई संघर्ष नहीं है।अच्छे और सच्चे इनसान का संदेश
राम कथा का संदेश है कि अच्छे और सच्चे इनसान बनो। आज समाज में बहुत सी विकृतियां दिखाई पड़ती हैं। क्योंकि हम राम कथा के चरणामृत का पान अपनी जिंदगी के स्वभाव में नहीं लाते। जरूरत है मर्यादा पुरुषोत्तम के चरित्र को जीवन में उतारने की। भेदभाव से ऊपर उठकर उनके साधक बनने की। राम के नाम में ऐसा ही प्रताप है। राम कथा धरती का कल्पवृक्ष है। वह कामधेनु है। चिंतामणि है। जिस प्रकार कैलाश में मानसरोवर है, वैसे ही रामचरितमानस, मानस सरोवर है। जिस तरीके से मानसरोवर की यात्रा कठिन है, वैसे ही मानस सरोवर की यात्रा कठिन है। यहां भी कई पड़ावों को पार करते हुए मानस सरोवर में गोता लगाना पड़ता है।
घर-संसार के काम भी ऐसे ही पहाड़, जंजाल हैं। गृह कारज नाना जंजाला…। मानस सरोवर की यात्रा करते समय तेज बहाव की नदियां, पहाड़ मिलते हैं। साधना के पथ पर अनेक झंझावातों से टकराव होता है। लेकिन जब हम भगवान की शरण में आते हैं तो इन सबसे छुटकारा मिल जाता है। वह हमें इससे उबार लेते हैं क्योंकि हम उनकी शरणागति में हैं। बिना राम चरण अनुराग संभव नहीं है। रामकथा मानवमात्र को संस्कारित करने वाली है। बाबा ने रामचरितमानस के माध्यम से श्रीराम के चरित्र को प्रस्तुत कर सामाजिक मूल्यों को स्थापित किया। श्रीराम का चरित्र लोकमानस का आदर्श चरित्र है।
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