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मर्यादा की गाथा मानस

भारतीय समाज में लक्ष्मण रेखा का प्रयोग सलाह और चेतावनी के संदर्भ में किया जाता है, ताकि व्यक्ति सचेत रहे। मानस के अरण्य काण्ड में आए सीता हरण प्रसंग में पांच पात्र हैं, जो अपने चरित्र से समाज को यह संदेश देते हैं कि विपत्तिकाल में व्यक्ति को कैसा व्यवहार करना चाहिए

by रमेश शर्मा
Mar 27, 2023, 12:25 pm IST
in भारत, संस्कृति
रावण बहुत शक्तिशाली था, पर लक्ष्मण रेखा नहीं लांघ पाया

रावण बहुत शक्तिशाली था, पर लक्ष्मण रेखा नहीं लांघ पाया

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अरण्यकाण्ड के इस प्रसंग का सामाजिक संदेश क्या है? लक्ष्मण रेखा की सत्यता पर विद्वानों के चाहे कितने ही तार्किक आख्यान हों, यह जनमानस में उतनी ही रची-बसी है जितनी रामकथा।

भारतीय समाज जीवन में लक्ष्मण रेखा की बहुत चर्चा होती है। मान्यता है कि वनवास काल में लक्ष्मण ने माता सीता की सुरक्षा के लिए यह रेखा खींची थी। रावण इसे लांघ कर कुटी के भीतर नहीं आ सकता था। यदि सीता इसे पार न करतीं तो उनका अपहरण न होता। भारतीय समाज में लक्ष्मण रेखा का संदर्भ सलाह और चेतावनी, दोनों प्रकार से मर्यादा रेखा न लांघने के लिए सचेत करने से जुड़ा है। लेकिन रामकथा मर्मज्ञ इसकी चर्चा अलग प्रकार से करते हैं। यह चर्चा लक्ष्मण रेखा के सत्य व इसके संदेश को लेकर होती है। क्या लक्ष्मण ने वास्तव में रेखा खींचकर माता सीता को सीमित कर दिया था? अरण्यकाण्ड के इस प्रसंग का सामाजिक संदेश क्या है? लक्ष्मण रेखा की सत्यता पर विद्वानों के चाहे कितने ही तार्किक आख्यान हों, यह जनमानस में उतनी ही रची-बसी है जितनी रामकथा।

लक्ष्मण रेखा का सत्य
रामकथा के लिए वाल्मीकि रामायण को सर्वाधिक प्रामाणिक ग्रंथ माना जाता है। इसमें स्वर्ण मृग प्रसंग आता है। इसमें स्वर्ण मृग के प्रति सीता के मोहित होने, रामजी के स्वर्ण मृग को लेने जाने, सहायता के लिए मारीच के रामजी के स्वर में लक्ष्मण को पुकारने, सीता और लक्ष्मण के कुछ तीखे संवादों का और लक्ष्मण का रामजी की सहायता के लिए जाने का विवरण है। लेकिन वाल्मीकि रामायण में लक्ष्मण रेखा का कोई उल्लेख नहीं है। बाहर जाते समय लक्ष्मण माता सीता की सुरक्षा की चिंता तो करते हैं, किन्तु कोई सीमा रेखा नहीं खींचते। तुलसीदास कृत रामचरितमानस में भी लक्ष्मण रेखा का उल्लेख नहीं है। महाभारत में भी रामकथा प्रसंग आता है, लेकिन वहां भी लक्ष्मण रेखा का उल्लेख नहीं है।

वाल्मीकि रामायण की रचना श्रीराम के जीवनकाल में हुई थी। इसका रचनाकाल वही काल-खंड है, जब माता सीता वाल्मीकि आश्रम में रहीं। महर्षि वाल्मीकि का अपना तत्व दर्शन तो महत्वपूर्ण है ही, पर घटना विवेचन के सत्यापन के लिए सीता प्रत्यक्ष थीं। इसलिए इस घटनाक्रम को आधिकारिक माना जाएगा। वाल्मीकि रामायण के अनुसार, सीता रामजी के स्वर में आर्त पुकार सुनकर व्यथित हुईं और उन्होंने लक्ष्मण जी को सहायता के लिए जाने को कहा। उन्होंने समझाया कि राम अजेय हैं, पर सीता जी ने मर्मांतक शब्द कहे, जिससे लक्ष्मण व्यथित हुए और प्रत्युत्तर में उन्हें पुन: समझाने का प्रयास किया-
अब्रवील्लक्ष्मणस्तां सीतां मृगवधूमिव।
पन्नगासुरगन्धर्वदेवदानवराक्षसै:॥
अशक्यस्तव वैदेही भर्ता जेतुं न संशय:।
(सर्ग 45, छंद 10,11 का पूर्वार्ध)

डरी-सहमी-सी सीता को समझाते हुए लक्ष्मण ने कहा, ‘हे विदेहनंदिनी! इसमें तनिक भी शंका नहीं है कि श्रीराम नाग, असुर, गंधर्व, देव, दानव और राक्षसों के द्वारा भी नहीं जीते जा सकते। फिर क्यों चिंतित होती हैं?
राक्षसा विविधा वाचो आहरन्ति महावने।
हिंसाविहारा वैदेहि न चिन्तयितुमर्हसि॥
लक्ष्मणेनैवमुक्ता तु क्रुद्धा संरक्तलोचना।
अब्रवीत्परुषं वाक्यं लक्ष्मणं सत्यवाहदनम्॥
(सर्ग 45, छंद 19-20)

‘हे वैदेही! आप चिंता न करें। इस बड़े वन में राक्षसगण, जिनका मनोरंजन ही हिंसा में निहित रहता है, नाना प्रकार की बोलियां बोलते रहते हैं।’ लक्ष्मण के ऐसा कहने पर कु्रद्ध तथा रक्तिम हो चुकी आंखों वाली सीता लक्ष्मण जी को कटु शब्द कहने लगीं। माता सीता के कठोर वचन सुनकर लक्ष्मण व्यथित हुए और वन देवता से उनकी रक्षा का आह्वान कर धनुष-बाण लेकर ध्वनि की दिशा में चल दिए।
रक्षन्तु त्वामङ्घपुनरागत:। (श्लोक 34)

अर्थात् विशाललोचने! वन के सम्पूर्ण देवता आपकी रक्षा करें, क्योंकि इस समय मेरे सामने बड़े भयंकर अपशकुन प्रकट हो रहे हैं। इन अपशकुनों ने मुझे संशय में डाल दिया है। लक्ष्मण ने आशंकित होकर कहा, ‘‘क्या मैं श्रीरामचंद्र के साथ लौटकर पुन: आपको कुशल देख सकूंगा?’’ यह कह कर लक्ष्मण चल देते हैं और सीताजी व्यथित हो जाती हैं। इसके बाद महर्षि वाल्मीकि ने उनकी व्यथा को तो वर्णन किया है। पर रेखा खींचे जाने का उल्लेख नहीं किया है।

तुलसीकृत रामचरितमानस
रामचरितमानस के अरण्य काण्ड में भी यह प्रसंग है कि जब भगवान श्रीराम ने स्वर्णमृग रूपी मायावी मारीच को अपने बाणों से बेधा तो उसने योजनानुसार उनकी आवाज में पुकारा-‘हा लक्ष्मण’। यह आर्त स्वर सुनकर माता सीता विचलित हो गर्इं और लक्ष्मण से भगवान श्रीराम की सहायता के लिए जाने का आग्रह करने लगीं-
जाहु बेगि संकट अति भ्राता। लछिमन बिहसि कहा सुनु माता।।
भृकुटि बिलास सृष्टि लय होई। सपनेहु संकट परइ कि सोई।।
मरम बचन जब सीता बोला। हरि प्रेरित लछिमन मन डोला।।
बन दिसि सौंपि सब काहू। चले जहां रावन ससि राहू।।

अर्थात् हे लक्ष्मण, जल्दी से जाओ। तुम्हारे भाई पर संकट आ पड़ा है। यह सुनकर लक्ष्मण ने हंसते हुए कहा, ‘‘हे माता, जिसके भृकुटि संकेत मात्र से सृष्टि का ही विलय हो जाए, ऐसे रामजी पर स्वप्न में भी संकट नहीं आ सकता।’’ तब सीता के मुख से कुछ मर्मस्पर्शी लांछनात्मक शब्द निकले जिससे लक्ष्मण थोड़े विचलित हुए और वन-देवता एवं दिक्पालों से सीताजी की रक्षा का आह्वान करके चल दिए। जहां रावण रूपी चंद्र के लिए राहु रूपी राम गए हुए थे। यहां भी लक्ष्मण रेखा का वर्णन नहीं है। लेकिन लंका काण्ड में कुछ संकेत अवश्य हैं-
कंत समुझि मन तजहु कुमतिही। सोह न समर तुम्हहि रघुपतिही॥
रामानुज लघु रेख खचाई। सोउ नहिं नाघेहु असि मनुसाई॥
(रामचरितमानस गीताप्रेस, गोरखपुर 19वां पुनर्मुद्रण संवत् 2063 लंका काण्ड, पृष्ठ 739)

उधर महारानी मंदोदरी रावण को समझाती हैं, ‘‘हे स्वामी, कुमति त्याग कर अपने मन में विचार करो, श्रीराम और आपके मध्य यह युद्ध शोभा नहीं देता। राम के लघु भ्राता लक्ष्मण द्वारा खींची गई छोटी-सी रेखा भी आप लांघ नहीं पाए थे।’’ यद्यपि रामचरितमानस के कुछ अन्य संस्करणों में यह चौपाई नहीं मिलती। अब लक्ष्मण जी ने माता सीता की सुरक्षा के लिए कोई रेखा खींची या नहीं, इस प्रसंग पर चर्चा हो सकती है, पर इस पूरे प्रसंग में समाज निर्माण के लिए अत्यंत सुंदर और महत्वपूर्ण संदेश छुपा है।

प्रसंग का संदेश
अरण्य काण्ड में वर्णित सीता हरण प्रसंग में पांच पात्र हैं। श्रीराम, सीता, लक्ष्मण, रावण और मारीच। ये पांचों साधारण मानव नहीं हैं। श्रीराम नारायण के अवतार हैं, तो माता सीता स्वयं श्रीलक्ष्मी का अवतार, लक्ष्मण शेषावतार हैं। रावण और मारीच भी असाधारण प्राणी हैं। रावण भगवान नारायण का द्वारपाल है, तो मारीच यक्ष है। ये दोनों अलग-अलग घटनाओं में ऋषि शाप के कारण राक्षस बने। नारायण जब अवतार लेते हैं तो उनके पूरे जीवन का घटनाक्रम पूर्व निर्धारित होता है, इसलिए उनके कर्म कर्तव्य को लीला कहा जाता हैं। इसलिए मारीच का स्वर्ण मृग रूप में आना, माता सीता का मोहित होना, रामजी का धनुष-बाण लेकर उसके पीछे जाना, रामजी का स्वर बनाकर मारीच की पुकार, सीता का व्यथित होकर लक्ष्मण जी को मर्मांतक वचन कहना, सब लीला ही है। सब पूर्व निधारित था।

समाज भटके नहीं, इसलिए वे बार-बार अवतार लेकर संसार में आते हैं। क्या उनसे या माता सीता से मारीच का सत्य छुपा था। फिर भी रामजी सीता की इच्छा पूर्ति के लिए धनुष-बाण लेकर निकले। सीता भी एक साधारण स्त्री की भांति स्वर्ण मृग से मोहित होती हैं और इसी कारण लक्ष्मण जी से संवाद करती हैं, उन्हें मर्मांतक और आरोपात्मक वचन कहती हैं। केवल इसलिए कि समाज को सतर्क और सावधान रहने का संदेश दिया जा सके। नारायण भी इसीलिए अवतार लेते हैं और साधारण मनुष्य की भांति जीवन जीते हैं, ताकि समाज को शिक्षा और संदेश मिल सके।

रामकथा में अरण्यकाण्ड के इस प्रसंग में माता सीता ने सबसे पहला संदेश अपनी लीला द्वारा समाज को यह दिया है कि सभी आकर्षक दिखने वाली वस्तुएं या व्यक्ति उत्तम नहीं हो सकते। वे घातक भी हो सकते हैं। वस्तु या व्यक्ति को देखकर या बातों को सुनकर राय नहीं बनानी चाहिए, मोहित नहीं होना चाहिए। सदैव विवेक का उपयोग करना चाहिए और यथार्थ को समझ कर अपना कर्म, कर्तव्य निश्चित करना चाहिए। सीता ने दूसरा संदेश यह दिया है कि वार्तालाप में शिष्टता होनी चाहिए, संयम होना चाहिए। प्रश्न यह नहीं है कि जिससे बात की जा रही है वह छोटा है या बड़ा। हमें शिष्ट भाषा व शैली का उपयोग करना चाहिए।

सीता मृग देखकर मोहित हुईं और पुकार के शब्द सुनकर विचलित। उनका मोह व उनका विचलित होना ही मुसीबतों का कारण बना। वे बखूबी जानती थीं कि लक्ष्मण जी का भाव उनके प्रति माता के समान है, फिर भी उनके मुख से आरोपात्मक शब्द निकले। ऐसा करके उन्होंने समाज की नारियों को यह संदेश दिया है कि बातचीत और व्यवहार में किसी सद्भावना को आहत नहीं करना चाहिए। सदैव यह सावधानी रखनी चाहिए कि वे किससे और क्या बात कह रहीं हैं। सीता भी त्रिकालदर्शी हैं। वे सब जानती थीं, उनसे कुछ छिपा न था। न स्वर्ण मृग और न लक्ष्मण जी के जाने के बाद रावण के आने के बारे में। वे यदि कटु वचन न कहतीं तो लक्ष्मण न जाते और न संकट आता। रामजी ने माता सीता और अनुज लक्ष्मण सहित जहां निवास बनाया था, वह राक्षसों के आतंक वाला क्षेत्र था। इसलिए अतिरिक्त सतर्कता की आवश्यकता थी।

असामाजिक या दुष्ट तत्व हर काल में रहे हैं। रामायण काल में जिस मनोवृत्ति को राक्षसी कहा गया, वैसी मानसिकता वाले असामाजिक तत्व आज भी हैं, जो महिलाओं को मोहित करके या आतंकित कर क्षति पहुंचाते हैं। अतएव हमें, विशेषकर महिलाओं को देश, काल और परिस्थिति के अनुसार अपनी इच्छा व्यक्त करनी चाहिए और अपनी सुरक्षा के लिए प्रयत्नशील व्यक्ति को कटु कभी वचन नहीं कहना चाहिए। कटु वचन से हमारे रिश्तों में कटुता आती है, हमारे शुभचिंतक दूर होते हैं।

दूसरा संदेश रामजी ने अपनी लीला से समाज को दिया है। आदर्श पति को पत्नी की इच्छा का सम्मान करना चाहिए। पत्नी को उसकी पसंद के उपहार देने चाहिए। जिन परिवारों में पति अपनी पत्नी को उसकी पसंद का उपहार देकर प्रसन्न रखते हैं, वे परिवार सदैव प्रतिष्ठित होते हैं, प्रगति करते हैं। रामजी का स्वर्ण मृग रूपी मारीच के पीछे जाना एक कठिन कार्य था, फिर भी वे गए।

लक्ष्मण जी की भूमिका एक आदर्श अनुज की है। वे अपने बड़े भाई की आज्ञा से सतर्क थे, किन्तु भाभी की जिद के आगे झुके। भावनाओं के जिस नकारात्मक अतिरेक की स्थिति में सीता माता थीं, उस स्थिति में लक्ष्मण जी ने कोई कटु वचन नहीं कहे। उन्होने वहां से दूर हो जाना ही उचित समझा।

लक्ष्मण जी जाने से पहले वन देवता और दिग्पालों से माता सीता की सुरक्षा की प्रार्थना करके निकले। ऐसा कर उन्होंने समाज को यह संदेश दिया है कि आदर्श के रिश्तों में यदि एक व्यक्ति कुछ पलों के लिए भ्रमित होता है, तो दूसरे को संयम रखना चाहिए।
इस प्रसंग में रावण की भूमिका से भी समाज को संदेश मिलता है। रावण के विनाश का बीज सीता हरण से ही अंकुरित हुआ।

मनुष्य कितना ही शक्तिशाली क्यों न हो, आचरण की हीनता, परस्त्री पर कुदृष्टि उसके विनाश का कारण बनती है। ऐसे व्यक्ति की सहायता न उसकी शक्ति कर पाती है और न भक्ति। रावण भगवान शिव का सबसे बड़ा भक्त था, उसकी शक्ति भी अपार थी। पर कदाचरण, षड्यंत्र और परनारी पर कुदृष्टि रखने से सब व्यर्थ हो गया। अतएव मनुष्य को आदर्श, जीवन नियम, संयम और मर्यादा की सीमा का उल्लंघन कभी नहीं करना चाहिए।

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