देवभूमि उत्तराखण्ड को आंदोलनों की भूमि कहा जाना अतिश्योक्ति नहीं होगा सन 1921 में कुली बेगार आन्दोलन, सन 1930 का तिलाड़ी आन्दोलन, सन 1984 का नशा नहीं रोजगार दो आन्दोलन, सन 1994 का उत्तराखंड राज्य प्राप्ति आन्दोलन ऐसे छोटे–बड़े अनेक आंदोलनों ने यह बात सिद्ध की है कि यहां की मिट्टी में पैदा हुआ प्रत्येक व्यक्ति अपने हक की लड़ाई लड़ना जानता है। वन संरक्षण से पर्यावरण की शुद्धि और मानव के अस्तित्व की सुरक्षा के लिए विश्व स्तर पर चलाई जा रही जनचेतना की शुरुआत “चिपको आन्दोलन” भविष्य में मानव जाति के लिए प्रेरणा बना रहेगा। छोटे से गांव से प्रारम्भ हुआ दुनिया का सबसे अनोखा आन्दोलन जिसने देश और दुनिया की दिशा और दशा ही बदल कर रख दी थी।
चिपको आन्दोलन – 26 मार्च सन 1974 ग्राम रैणी, चमोली, उत्तरांखण्ड.
सन 1962 में भारत-चीन युद्ध के उपरान्त मोटर मार्गों के बिछते जाल ने पर्यावरणीय समस्याओं को जन्म दिया था। सन 1973 में शासन ने जंगलों को काटकर अकूत राजस्व बटोरने की नीति बनाई थी। जंगल कटने का सर्वाधिक असर पहाड़ की महिलाओं पर पड़ा था। उनके लिए घास और ईंधन लकड़ी की कमी होने लगी थी, हिंसक पशु गांव में आने लगे थे।धरती खिसकने और धंसने लगी, वर्षा कम हो गयी, हिमानदों के सिकुड़ने से गर्मी बढ़ने लगी और इसका वहां की फसल पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा था। राज्य के निर्मम शासकों को इन सबसे क्या लेना था, उन्हें तो प्रकृति द्वारा प्रदत्त हरे-भरे वन अपने लिए सोने की खान लग रहे थे। 15 मार्च एवं 24 मार्च सन 1974 को जोशीमठ में तथा 23 मार्च को गोपेश्वर में रेणी जगंल के कटान के विरुद्ध प्रदर्शन के बावजूद मजदूर जंगल कटान को रेणी गाँव पहुंच गये थे। 26 मार्च को वन विभाग के कर्मचारियों के संरक्षण में ठेकेदार के मजदूर ऋषिगंगा के किनारे-किनारे जंगल की तरफ बढ़ रहें थे। उसी समय घर-परिवार के कार्यों में व्यस्त रैणी ग्राम की लगभग 21 महिलाएं तथा कुछ बच्चे देखते-देखते जंगल की ओर चल पड़े।आशंका और आत्मविश्वास के साथ वह महिलाएं लगातार आगे बढ़ती चली गई थी। महिलाओं ने मजदूरों से कहा- “भाइयो यह जंगल हमारा और आपका है, इससे हमें जड़ी-बूटी, सब्जी, फल, लकड़ी, सुरक्षा आदि मिलती है। जंगल को काट दोगे तो यहां बाढ़ आएगी, हमारे बगड़ बह जायेंगे।”
राजकीय ठेकेदार और जंगलात महकमे के आदमी उन्हें धमकाने लगे, काम में बाधा डालने पर गिरफ्तारी की धमकी देने लगें लेकिन आंदोलनकारी महिलाएं बिल्कुल भी डरी नही थी। आंदोलनकारी महिलाओं के अंदर जंगल और उसकी अर्थव्यवस्था को उजाड़ने के विरुद्ध समाज का छिपा रौद्र रुप संयुक्त रुप से प्रकट हुआ था। सरकारी महकमें से एक कर्मचारी ने बंदूक निकालकर समाज की तरफ तान दी तो समाज ने गरजते हुए कहा- “मारो गोली और काट लो हमारा मायका” जवाब सुनकर सरकार के मजदूरों में भगदड़ मच गई। राजकीय ठेकेदार ने पुनः वन को काटने के विरुद्ध खड़े ग्रामीणों को डराने-धमकाने का प्रयास किया, यहां तक कि महिलाओं को अपमानित कर उनके चेहरे पर भी थूक दिया था, किन्तु आंदोलनकारियों ने बिल्कुल भी संयम नहीं खोया था। आंदोलनकारी महिलाएं पेड़ों से लिपट गयीं, उन्होंने राजकीय ठेकेदार को बता दिया कि अब उनके जीवित रहते जंगल नहीं कटेगा। आंदोलनकारी महिलाओं ने बिल्कुल स्पष्ट कर दिया कि कुल्हाड़ी का पहला प्रहार उसके शरीर पर होगा, पेड़ पर नहीं। ठेकेदार डर कर पीछे हट गया और आंदोलनकारी महिलाओं का मायका घर समान जंगल बच गया था तथा प्रतिरोध की सौम्यता और गरिमा बनी रही थी।
रेणी के जंगल के साथ-साथ अलकनन्दा में मिलनेवाली समस्त नदियों-ऋषिगंगा, पातालगंगा, गरुड़गंगा, विरही और मन्दाकिनी के जल ग्रहण क्षेत्रों तथा कुंवारी पर्वत के जंगलों की सुरक्षा की बात उभरकर सामने आई और सरकार को इस हेतु निर्णय लेने पड़े। सीमांत का खामोश गाँव रेणी दुनिया का एक चर्चित गांव हो गया था। उक्त घटनाक्रम ही चिपको आंदोलन के नाम से प्रसिद्ध हुआ था। गौरा देवी, चंडीप्रसाद भट्ट तथा सुंदरलाल बहुगुणा जैसे समाजसेवियों के जुड़ने से यह आंदोलन विश्व भर में प्रसिद्ध हो गया था। यद्यपि जंगलों का कटान अब भी जारी है, नदियों पर बन रहे दानवाकार बांध और विद्युत योजनाओं से पहाड़ और वहां के निवासियों का अस्तित्व संकट में पड़ गया है। गंगा-यमुना जैसी नदियां भी सुरक्षित नहीं हैं, पर रैणी के जंगल अपेक्षाकृत आज भी हरे और जीवंत हैं।
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