22 मार्च को विश्व जल दिवस है, खोजबीन करने से पता चलता है कि 1993 से संयुक्त राष्ट्र इस दिवस को विश्व जल दिवस के रूप में मना रहा है। भारत जैसे देश में जहां हमारे उत्सव, आयोजन, त्यौहार, कार्यक्रमों की कल्पना में ही जल का महत्व रचा बसा है, बचपन के लड़कपन में कभी पानी अधिक बहा देने पर दादी-नानी की कहानियों के माध्यम से जल देवता नाराज न हो जाएं ऐसी डांट और सीख भी हम सुनते आए हैं। इसी प्रकार सूर्यदेव को, पितरों को जल अर्पण की वैदिक परंपरा भी हमारे समाज में कब से शुरू हुई, इसका अंदाजा लगाना भी कठिन है लेकिन ये जरूर कह सकते हैं कि इस परंपरा का जुड़ाव जल संरक्षण और उसके महत्व से जोड़ना रहा है। पूजा-पाठ, शादी-ब्याह, शुभ प्रसंग सब जल की पूजा एवं आचमन से ही शुरू होते हैं। हमने नदियों को माता माना है। हम 365 दिन अपने आचरण से जल का संरक्षण और संवर्धन करने वाले समाज रहे हैं। किंतु आज दुनिया में जो सबसे प्रचलित शब्द चल निकला है ‘ विकास ‘ उस विकास की प्रक्रिया में हमने नदियों को आचमन तो दूर स्पर्श के योग्य भी नहीं छोड़ा है।
WHO की 2022 की एक रिपोर्ट के अनुसार 14 लाख लोगों की वार्षिक मृत्यु का कारण दूषित जल है। आज दुनिया में हर चौथे व्यक्ति को पीने का स्वच्छ पानी नहीं मिल रहा है। WHO की ही 2021 की एक और रिपोर्ट कहती है कि घरों से निकलने वाले अपशिष्ट जल के 44% का निस्तारण नहीं हो पा रहा है। OECD की 2012 की एक रिपोर्ट डरा सकती है कि ऐसे समय में जब दुनिया में जल की कमी देखी जा रही है तब 2050 तक दुनिया में जल की मांग 55% तक बढ़ने वाली है। ये सब आंकड़े अध्ययन के लिए नहीं हैं बल्कि बताने के लिए हैं कि जल का एक दिवस मनाना आज क्यों जरूरी और प्रासंगिक लगता है ।
भारतीय समाज में जल संरक्षण की परंपरा बहुत प्राचीन और वैज्ञानिक है। राजस्थान के जैसलमेर में जहां वर्षा भले ही न्यूनतम रहती हो लेकिन वहां का समाज अपनी समस्याओं का समाधान खुद करने में सक्षम रहा और जल सरंक्षण की टांका पद्धति समाज के वर्षों के अनुभव और धैर्य का ही परिणाम है । अनुपम मिश्र जी की पुस्तक ‘ आज भी खरे हैं तालाब’ और राजस्थान की रजत बूंदें ‘ भारतीय समाज की जल संरक्षण की तकनीक और उससे भी ज्यादा श्रद्धा और धैर्य को उकेरने का काम बहुत ही खूबसूरती से करती हैं। जिस इलाके में प्रकृति ने जितना पानी दिया है वहां वैसी ही जीवन पद्धति और फसलें होनी चाहिए लेकिन लोग मानते हैं कि हम नए जमाने के हैं, इसलिए तरीके भी नए होने चाहिए। शायद यही कारण रहा कि राजस्थान में गेंहू उगाने लगे, तटवर्ती प्रदेशों की फसलों को पंजाब-हरियाणा में बोने लगे क्योंकि हमें लगा कि पानी कहीं से भी ले आयेंगे और इस तरह हमने भूजल का भी भरपूर दोहन शुरू कर दिया ।
बनाने होंगे पोखर और तालाब
दिल्ली, चेन्नई, अहमदाबाद, हैदराबाद या भारत का कोई भी शहर आज थोड़ी बारिश में डूब जाता है क्योंकि वहां के समाज ने जल संरक्षण के लिए पूर्वजों की परंपराओं का सम्मान नहीं किया। वहां का समाज अपने पूर्वजों द्वारा विकसित उन तालाबों को विकास की प्रक्रिया में पाट दिया जो वर्षा जल संचयन का सबसे बड़ा माध्यम थे। यदि ईश्वर ने पानी बरसाने का तरीका नहीं बदला है तो हमें उसी पुराने ढंग के तालाब, पोखर आदि बनाने होंगे। आज भारत में बहुत संस्था, संगठन और व्यक्ति भी जल पुरुष के रूप में वर्षों से बिना थके जल के काम में लगे हुए हैं और उन सबके काम को देखकर लगता है कि जल के ये बड़े-बड़े काम समाज की छोटी-छोटी बातों पर ध्यान दिए बिना संपन्न नहीं होंगे। भारतीय समाज की चेतना की विस्मृति जो औपनिवेशिक काल में हुई है, उसे पुनः जागृत करने के लिए समाज को ही सामूहिक रूप से जल संरक्षण और संवर्धन का अभियान अपने पूर्वजों के अनुभवों के आधार पर लेना होगा।
क्या कहती है यूएन की रिपोर्ट
UN की ही एक रिपोर्ट कहती है कि 2050 तक समुद्र के अंदर मछलियों से ज्यादा प्लास्टिक होगा तो प्लास्टिक की बोतल में बंद पानी की जगह पीने के लिए नल के पानी का प्रयोग वह सबसे पहली और छोटी बात हो सकती है जिससे हमारा समाज इस पूरे जल सरंक्षण आंदोलन की शुरुआत खुद से कर सकता है।
हम प्रकृति पूजक रहे हैं
इस जल दिवस पर सेमिनार आयोजित करना, भाषण देना, लेख लिखना और कार्यक्रम आयोजित करने के साथ ही हम कोई एक जल संरक्षण की आदत (जैसे पानी पीते समय आधा गिलास ही पानी लेना, RO के अपशिष्ट जल का बगीचे में संयोजन करना, स्नान के समय पानी का उपयोग कम करना, ब्रश करते समय नल बंद रखना, शौचालय में फ्लश की जगह बाल्टी का उपयोग) खुद से शुरू करें यही जल दिवस की सार्थकता होगी और यही इस आंदोलन की शुरुआत। महाभारत में एक प्रसंग है कि राजस्थान की मरुभूमि को भगवान कृष्ण का आशीर्वाद प्राप्त है कि वहां कभी जल संकट नहीं उत्पन्न होगा लेकिन वहां का समाज इस आर्शीवाद को लेकर हाथ पर हाथ रखकर बैठा नहीं, उन्होंने अथक परिश्रम से इस आर्शीवाद को सार्थक किया। हमारी संस्कृति हमारा भारतीय समाज, हमारी प्राचीन जनजाति परंपराएं सब प्रमाण हैं कि हम प्रकृति पूजक रहे हैं और आज तो दुनिया भी इस बात को स्वीकार कर रही है। ऐसे समय में नदियों को माता कहना नहीं अपितु माता जैसा आचरण नदियों के साथ करना, वृक्षों को पूजना निश्चित ही हमारे समाज ने प्रतिकात्मक रूप से उनके महत्व और संरक्षण के लिए ही शुरू किया होगा। एक बार पुनः अपने पर्यावरणीय संस्कारों को समझकर अपनी भारतीय संस्कृति को समझकर, ईशोपनिषद में, कौटिल्य के अर्थशास्त्र में या अथर्ववेद में जो बातें कही गई हैं, उन बातों को जीवन के आचरण में लाने की आवश्यकता आज किसी भी काल खंड से ज्यादा आज प्रासंगिक लगती है। आज “जल संरक्षण का अर्थ है परंपराओं का संरक्षण” यही लगता है।
(लेखक अभाविप की पर्यावरणीय संरक्षण से संबंधित, वर्षभर कार्य करने वाली विद्यार्थी गतिविधि ‘विकासार्थ विद्यार्थी (Students For Development)’ के राष्ट्रीय संयोजक हैं)
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