गाज़ियाबाद में एक लड़की इकरा की ऐसी कहानी सामने आई जिसने बहुत कुछ प्रश्न खड़े कर दिए हैं। दरअसल यह प्रश्न बहुत साधारण हैं, बहुत सामान्य हैं। और यह इकरा तक ही सीमित नहीं हैं, यह बहुत मामलों में हैं। इकरा तो आज का एक उदाहरण है।
गाज़ियाबाद से एक लड़की की कहानी सामने आई। उसने सभी को दहलाकर रख दिया। तीन महीने पहले हुई शादी में इकरा को अपने शौहर युसुफ से ऐसा दर्द मिलेगा, इतने घाव मिलेंगे, उसने सोचा नहीं होगा। उसने यह नहीं सोचा होगा कि उसके जिस शरीर पर नई शादी के बाद प्यार की प्रगाढ़ता के निशान होने चाहिए थे, उस पर ब्लेड आदि से मारे जाने के निशान होंगे। जिन आँखों में नई दुनिया के सपने होंगे, उन आँखों में मार पिटाई की सूजन हो जाएगी।
परन्तु ऐसा हुआ है। शादी के तीन ही महीने बाद इकरा को उसके शौहर और ससुराल वालों से जो दर्द मिला है, वह उसके शरीर पर पड़े कई दागों तथा घावों से दिखाई दे ही रहा है।
गाज़ियाबाद में रहने वाली इकरा की शादी ३ महीने पहले गाज़ियाबाद में नगर कोतवाली क्षेत्र में स्थित केला भत्ता निवासी युसुफ से हुई थी। मीडिया के अनुसार दोनों ने इस्लाम के अनुसार नहीं बल्कि गाज़ियाबाद में रजिस्ट्रार ऑफिस में शादी रजिस्टर कराई थी।
मगर शादी के बाद ही उसके ससुराल वालों ने उसे तंग करना शुरू कर दिया और उसके साथ फिर बेरहमी की सारी सीमाएं पार कर दी। उसके चेहरे पर बने हुए ब्लेड आदि के निशान और साथ ही पूरे शरीर पर घाव उस बेरहमी की जीती जागती कहानी कह रहे हैं।
इकरा ने आरोप लगाया था कि शादी के बाद ही उसके शौहर ने उसे उसके जेठ के साथ शारीरिक सम्बन्ध बनाने के लिए कहा और फिर जब उसने यह बात नहीं मानी तो प्रताड़ना आरम्भ कर दी। तीन दिन पहले इकरा ने किसी तरह ससुराल से छत के रास्ते भागकर अपनी जान बचाई और फिर जब वह कैला भट्ठा इलाके के सरकारी स्कूल की छत पर पहुँची तो वहां से लोगों ने उसे नीचे उतारा!
यह घटना जितनी दुखद है, उतना ही दुखद है इस मामले पर और इस हिंसा के प्रति उस पूरे वर्ग की चुप्पी जो बार-बार इन कुरीतियों को लेकर हिन्दू समाज को उत्तरदायी ठहराता रहता है। दहेज़ को लेकर पूरे हिन्दू समाज को लोभी कहने वाला बड़ा वर्ग पूरी तरह से मौन है, उसने एक भी शब्द इस जघन्य घटना के विषय में नहीं कहा है। वह वर्ग इस विषय में बात ही नहीं कर रहा है कि इकरा के दोषियों को भी सजा मिलनी चाहिए। वह एक प्रकार से इस पूरी घटना पर इसलिए मौन साधे है क्योंकि उसके अनुसार उन्हें पहले हिन्दू धर्म में व्याप्त अपनी कुरीतियों पर बात करनी चाहिए, फिर ही मुस्लिम समुदाय पर टिप्पणी करनी चाहिए!
यह सत्य है कि वह समुदाय पर टिप्पणी नहीं कर सकते, परन्तु यह भी उतना भी सत्य है कि वह घटनाओं पर पीड़िताओं के साथ सहानुभूति तो व्यक्त कर सकती हैं? दुःख की बात यही है कि वह मजहबी कट्टरता से उपजी हिंसा से पीड़ित पीड़िताओं के पक्ष में भी मुंह नहीं खोलती हैं।
और ऐसा नहीं है कि यह इकरा की बात हो। ऐसी तमाम घटनाएं हुई हैं, जब इन महिलाओं ने, जो बहनापे को लेकर लगातार न जाने क्या क्या कहती रहती हैं, बहनापा होने का दावा करती हैं और लगातार ऐसी घटनाओं पर मौन रहती हैं, जिनमें मुस्लिम महिलाएं मुस्लिम कट्टरपंथी सोच का शिकार होती हैं। ऐसी ही एक घटना हुई थी, कश्मीर में जहाँ पर एक आरिफा नामक युवती की हत्या शब्बीर अहमद वानी ने बिलकुल उसी प्रकार कर दी थी, जैसे आफताब ने श्रद्धा की कर दी थी। उसने आरिफा की पहले हत्या की और फिर उसके शव के टुकड़े टुकड़े कर के फेंक दिए।
बहनापा यहाँ भी मौन रहा। यही मौन रह जाना इस बहनापे का सबसे शर्मिंदा करने वाला चेहरा है। आरिफा पर वह शोर क्यों नहीं हुआ, जो कठुआ की उस लड़की को लेकर हुआ था? क्या लड़कियों की पीड़ा भी इनके लिए राजनीतिक हथकंडा हैं, जिसे वह अपने अनुसार प्रयोग करती रहती हैं। आखिर ऐसा क्या है और क्यों है?
आरिफा का समाचार तो मीडिया के एक वर्ग तक ही होकर रह गया, इसपर तो चर्चा होना भी मुनासिब नहीं हुआ।
इतना ही नहीं यह बहनापे वाला वर्ग जहाँ यह कहता है कि इस्लाम से ही सुधार की आवाज की आवाज आनी चाहिए और फिर हम समर्थन करेंगी तो ऐसे में तसलीमा नसरीन से बढ़कर महिला कौन होगी, जो सुधार की आवाज लगातार उठा रही हैं।
जिनकी आवाज के चलते ही उन्हें बांग्लादेश अर्थात उनके अपने ही देश ने निर्वासित कर रखा है, परन्तु जब उन पर कट्टरपंथ के हमले होते हैं तो ये बहनापे वाली महिलाएं इस पर भी नहीं बोलती हैं। हाल ही में उनके घुटने की सर्जरी को लेकर विवाद हुआ।
उन्होंने अस्पताल पर आरोप लगाए तो अस्पताल ने जबाव दिया, परन्तु इन सबमे महत्वपूर्ण था कि उन्हें इस बात को लेकर कट्टरपंथियों ने निशाना बनाया कि उनके साथ एकदम ठीक हो रहा है, क्योंकि उन्होंने काम ही ऐसे किए हैं।
यह भी देखना हैरतअंगेज था कि तसलीमा नसरीन के साथ हुई इस कट्टरपंथी घटना पर भी बहनापे का राग अलापने वाली महिलाऐं मौन रह गईं? यह कैसा बहनापा है और यह कैसा महिलाओं के प्रति समर्थन कि जब एक वर्ग विशेष से हिंसा हो तो मौन रह जाया जाए और उन तमाम महिलाओं की पीड़ा को दबा दिया जाए जो पिट रही हैं, मर रही हैं या फिर जो तमाम धमकियों का सामना कर रही हैं?
क्या बहनापे की बात करने वाला कथित फेमिनिस्ट वर्ग इन पीड़ित महिलाओं का शत्रु नहीं है क्योंकि वह उनके साथ न खड़े होकर उनके साथ खड़ा है, जो महिलाओं को मार रहे हैं, पीट रहे हैं और तमाम तरह की धमकियां दे रहे हैं।
प्रश्न तो उठता ही है कि बहनापे की यह कौन सी परिभाषा है? या यह बहनापे का नाटक है? इकरा, आरिफा और तसलीमा नसरीन इन तीनों मामलों पर ही बहनापे की बात करने वाली फेमिनिस्ट लोगों की चुप्पियाँ एक ऐसा विमर्श खड़ा करती है, जिस पर वास्तव में अब चर्चा तो होनी ही चाहिए!
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