हापुड़ जिले की गढ़मुक्तेश्वर तहसील के विकास खंड बक्सर के ग्राम ढाना देवली में स्थापित है। ढाई बीघा जमीन पर इस केंद्र की स्थापना मेरठ के ‘दिशा सेवा संस्थान’ द्वारा की गई है। इस समय इस केंद्र से प्रत्यक्ष रूप से 300 और अप्रत्यक्ष रूप से 500 लोगों को रोजगार मिल रहा है।
आज पर्यावरण भारत ही नहीं, पूरी दुनिया के लिए एक बड़ी समस्या है। प्लास्टिक की वस्तुएं पर्यावरण को सबसे अधिक नुकसान पहुंचा रही हैं। यदि लोगों को प्लास्टिक का सुगम और सस्ता विकल्प मिल जाए तो वे इसे छोड़ सकते हैं। कुछ ऐसा ही अनुभव इन दिनों पश्चिमी उत्तर प्रदेश के हापुड़ जिले में देखने को मिल रहा है। चाहे चाय दुकानदार हों, ढाबा चलाने वाले हों या फिर बागवानी में लगे लोग, इनमें से अधिकतर लोग मिट्टी के बर्तनों का उपयोग कर रहे हैं। ये सभी माटी कला केंद्र में बनने वाले मिट्टी के बर्तन खरीद रहे हैं।
यह केंद्र हापुड़ जिले की गढ़मुक्तेश्वर तहसील के विकास खंड बक्सर के ग्राम ढाना देवली में स्थापित है। ढाई बीघा जमीन पर इस केंद्र की स्थापना मेरठ के ‘दिशा सेवा संस्थान’ द्वारा की गई है। इस समय इस केंद्र से प्रत्यक्ष रूप से 300 और अप्रत्यक्ष रूप से 500 लोगों को रोजगार मिल रहा है। ये सभी आसपास स्थित नौ गांवों के निवासी हैं। इनमें से अधिकतर लोग केंद्र में आकर काम करते हैं, बाकी कुछ लोग अपने घर पर उत्पाद तैयार कर केंद्र को दे जाते हैं। सबसे अच्छी बात यह है कि माटी के बर्तन तैयार करने में हर वर्ग के लोग शामिल हैं। वैसे परंपरागत रूप से यह कार्य कुम्हार जाति के लोग करते आ रहे हैं, लेकिन केंद्र ने इस कार्य के लिए सबके द्वार खोल रखे हैं। जो भी इस कार्य से जुड़ना चाहता है, जुड़ सकता है।
माटी कला केंद्र का प्रमुख उद्देश्य है स्थानीय संसाधनों से स्थानीय लोगों को रोजगार उपलब्ध कराना। इस समय इस केंद्र में चार प्रकार के दीये, चार प्रकार के गुल्लक, पांच प्रकार के कुल्हड़, चार तरह की कटोरियां, तीन प्रकार के गमले, घड़े, कलश, पानी की बोतलें, हांडी, प्लेट जैसी वस्तुएं बन रही हैं। केंद्र में कुल्हड़ बनाने की 30 मशीनें हैं। एक मशीन से एक दिन में लगभग 7,000 कुल्हड़ तैयार होते हैं। वहीं दीये बनाने की 15 मशीनें हैं और एक मशीन पांच मिनट में लगभग 3,000 दीये बनाती है। बर्तन के लिए मिट्टी भी मशीन से ही तैयार की जाती है। लगभग 15 मिनट में इतनी गीली मिट्टी तैयार हो जाती है जो पूरे दिन के लिए काफी होती है। दिशा सेवा संस्थान के संस्थापक एवं मुख्य संचालक डॉ. अमित मोहन ने बताया, ‘‘आसपास में जितने नर्सरी वाले हैं, वे गमले खरीद लेते हैं। चाय वाले कुल्हड़ ले लेते हैं। होटल वाले प्लेट खरीदते हैं। मांग इतनी है कि हम लोग सामान की आपूर्ति नहीं कर पा रहे।’’ इसके साथ ही वे यह भी कहते हैं कि आने वाले समय में रेलवे को भी कुल्हड़ दिए जाएंगे, वहां से भी मांग आ रही है।
डॉ. अमित बताते हैं कि परंपरागत रूप से मिट्टी के बर्तन बनाने में लागत काफी अधिक आने लगी है और जो लोग इस काम में लगे हैं, वे अपने उत्पादों को उचित मूल्य पर बेच नहीं पा रहे हैं। इस कारण लोग इस काम को छोड़ रहे हैं, लेकिन मशीन के माध्यम से बर्तन बनाने से कम समय में अधिक उत्पादन होता है और इस तरह लागत भी कम हो जाती है। फिर निर्माण में लगे लोगों को बाजार की चिंता भी नहीं रहती।
उत्पाद बेचने का काम दिशा सेवा संस्थान ही करता है। इस केंद्र की स्थापना भारत सरकार के सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्यम मंत्रालय की ‘स्फूर्ति योजना’ के अंतर्गत और कोहंड व उद्यमिता विकास संस्थान, अमदाबाद के सहयोग से की गई है। बता दें कि भारत सरकार परंपरागत उद्योगों को आधुनिक तरीके से पुनर्जीवित करना चाहती है, ताकि ग्राम्य कुटीर उद्योगों को मजबूती मिले और उनसे जुड़े कारीगरों को आर्थिक और सामाजिक रूप से सुदृढ़ तथा समृद्ध बनाया जा सके।
अमित मोहन कहते हैं कि परंपरागत मिट्टी के कार्य करने वाले कारीगरों को ‘डिजिटल मार्केटिंग’ का प्रशिक्षण भी दिया जाता है, ताकि उन्हें अपने उत्पादों का समुचित पारिश्रमिक प्राप्त हो सके। डॉ. अमित के अनुसार, कारीगरों की सहायता के लिए ढाना देवली स्थित परिसर में एक जन सहायता केंद्र की स्थापना भी की जा रही है, जिससे कारीगरों को उनके उद्यम की आवश्यकता के सभी दस्तावेज तैयार हों और उससे संबंधित विभिन्न प्रशिक्षण दिया जा सके ।
यही कारण है कि केंद्र से जुड़े कारीगरों को सबसे पहले प्रशिक्षण दिया गया। इसके साथ ही उन्हें मशीन पर काम करने का अभ्यास कराया गया। इसका सुपरिणाम यह हुआ कि आज माटी कला केंद्र में एक दिन में लगभग 50,000 रु. का कच्चा सामान तैयार हो जाता है। डॉ. अमित ने बताया कि सरकार ने एक वर्ष में 1.75 करोड़ रु. मूल्य का सामान बनाने का लक्ष्य दिया है। उन्होंने यह भी बताया कि चूंकि अभी सभी कारीगर मशीन से काम करने में सहज नहीं हैं, इसलिए लक्ष्य पूरा नहीं हो पा रहा है, लेकिन उम्मीद है कि छह महीने के अंदर इस लक्ष्य को हासिल कर लिया जाएगा। केंद्र में बने सभी उत्पादों को जिस भट्ठी में पकाया जाता है, वह 21 लाख रु. की लागत से बनी है। इस भट्ठी की सबसे बड़ी विशेषता है कि डीजल से चलने के बावजूद यह प्रदूषण नहीं फैलाती।
कारीगरों के कौशल को बढ़ाने के लिए समय-समय पर उन्हें खुर्जा व अन्य स्थानों पर ले जाया जाता है। इसके माध्यम से मिट्टी का कार्य करने वाले कारीगरों को अपने कौशल को बढ़ाने के लिए आवश्यक जानकारियां तो मिल ही रही हैं, साथ ही मशीनों के उपयोग एवं उनसे सार्थक कार्य करने के तरीकों के बारे में भी अभिनव ज्ञान प्राप्त हो रहा है। अमित मोहन कहते हैं कि परंपरागत मिट्टी के कार्य करने वाले कारीगरों को ‘डिजिटल मार्केटिंग’ का प्रशिक्षण भी दिया जाता है, ताकि उन्हें अपने उत्पादों का समुचित पारिश्रमिक प्राप्त हो सके। डॉ. अमित के अनुसार, कारीगरों की सहायता के लिए ढाना देवली स्थित परिसर में एक जन सहायता केंद्र की स्थापना भी की जा रही है, जिससे कारीगरों को उनके उद्यम की आवश्यकता के सभी दस्तावेज तैयार हों और उससे संबंधित विभिन्न प्रशिक्षण दिया जा सके ।
माटी कला केंद्र के संरक्षक एवं भाग्योदय फाउंडेशन के अध्यक्ष आचार्य राममहेश मिश्र कहते हैं, ‘‘भारत सरकार की महत्वाकांक्षी ‘स्फूर्ति योजना’ परंपरागत उत्पादों तथा जमीन से जुड़े उद्यमों को बढ़ावा देकर अपने देश के कारीगरों को सम्यक रोजगार देना चाहती है।’’ उन्होंने यह भी कहा कि दिशा सेवा संस्थान के अथक प्रयासों से आरंभ हुआ माटी कला केंद्र देश की माटी, देश के गांवों तथा देश के खेतों से जुड़े ग्राम ‘देवताओं’ को उनका खोया हुआ सम्मान वापस दिलाने में महती भूमिका का निर्वहन कर सकेगा, ऐसी आशा की जाती है।
इससे पहले दिशा सेवा संस्थान ने हरियाणा, बिहार, दिल्ली, पंजाब, उत्तराखंड, राजस्थान, मध्य प्रदेश, हिमाचल प्रदेश आदि राज्यों के बहुसंख्य लोगों को सामाजिक एवं आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाने के लिए सफलतापूर्वक कार्य किया है।
अब यह संस्थान हापुड़ जिले के असंगठित कामगारों के लिए वरदान साबित हो रहा है। माटी कला केंद्र में कार्य कर रहे लोग बहुत खुश हैं। उन्हें अपने घर के पास ही अच्छा रोजगार मिल गया है। यही तो ‘स्फूर्ति योजना’ का लक्ष्य है।
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