स्वामी दयानंद सरस्वती ने सत्य की खोज में 15 वर्ष तक भारत भ्रमण किया अंततः विरजानंद जी को अपना गुरु बनाया। अपने गुरु की आज्ञा को शिरोधार्य कर अपना संपूर्ण जीवन आर्य संस्कृति के प्रचार प्रसार में लगाने का निश्चय किया। 10 अप्रैल 1875 को मुंबई में आर्य समाज की स्थापना की। वेदों से प्रेरणा ली तथा वेदों की ओर लौटो का नारा दिया।
आधुनिक भारत के महान चिंतक व समाज सुधारक स्वामी दयानंद सरस्वती का जन्म 12 फरवरी 1824 को वर्तमान गुजरात राज्य के काठियावाड़ क्षेत्र के टंकारा में हुआ। इनकी माता का नाम यशोदा बाई व पिता का नाम करसन जी लाल जी तिवारी था। इनके बचपन का नाम मूलशंकर था। सत्य की खोज में 15 वर्ष तक भारत भ्रमण किया अंततः विरजानंद जी को अपना गुरु बनाया। अपने गुरु की आज्ञा को शिरोधार्य कर अपना संपूर्ण जीवन आर्य संस्कृति के प्रचार प्रसार में लगाने का निश्चय किया। 10 अप्रैल 1875 को मुंबई में आर्य समाज की स्थापना की। इन्होंने वेदों से प्रेरणा ली तथा वेदों की ओर लौटो का नारा दिया। सत्यार्थ प्रकाश ग्रंथ की रचना की। 30 अक्टूबर 1883 को अजमेर में मृत्यु हुई।
स्वामी दयानंद सरस्वती का शिक्षा दर्शन सत्यार्थ प्रकाश के विशेष संदर्भ पर आधारित है। स्वामी दयानंद सरस्वती ने 19वीं शताब्दी के अंतिम चरण में इस पुस्तक की रचना की। वह आधुनिक विश्व के प्रथम विचारक थे जिन्होंने सत्यार्थ प्रकाश में सबके लिए अनिवार्य एवं निशुल्क शिक्षा विशेषकर प्राथमिक शिक्षा का सिद्धांत रखा था। दयानंद के अनुसार शिक्षा जिससे विद्या सभ्यता, धर्मात्मा जितेन्द्रियता आदि की वृद्धि हो और अविद्या दोष दूर हो उसे शिक्षा कहते हैं। विद्या के पांच लक्षण हैं – विद्या प्रदान करना, सभ्य बनाना, धर्मात्मा बनाना जितेन्द्रियता बढाना और अविद्या से मुक्ति दिलाना। इस प्रकार शिक्षा में लौकिक और पारलौकिक सभी 14 विद्याएं आती हैं। सत्यार्थ प्रकाश के नौवें विभाग में स्वामी दयानंद ने विद्या अविद्या के योग सूत्र के अनुसार अंतर किया है। अविद्या के कारण मनुष्य अनित्य को नित्य और अपवित्र को पवित्र समझता है, जबकि विद्या से दुखों से छुटकारा मिलता है और इसी से मोक्ष की प्राप्ति होती है।
स्वामी दयानंद सरस्वती के अनुसार शिक्षा का मुख्य उद्देश्य मोक्ष प्राप्त करना है। सत्यार्थ प्रकाश में उन्होंने स्पष्ट किया है कि जो मनुष्य विद्या और अविद्या दोनों के स्वरूप को जानता है वह अनिया अर्थात कर्म उपासना से मृत्यु को जीतकर विद्या अर्थात यथार्थ ज्ञान से मोक्ष को प्राप्त करता है। आदर्शवादी होने के कारण दयानंद ने शिक्षा व्यवस्था में चरित्र के विकास को अधिक महत्व दिया है। यह चरित्र का विकास ज्ञान उपार्जन पर आधारित है क्योंकि विद्या अथवा ज्ञान के बिना चरित्र नहीं बन सकता है। दयानंद शिक्षा के व्यावहारिक पहलू पर भी विशेष जोर देते हैं। उनके अनुसार शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य सदाचार और नैतिकता का विकास करना है। इसके लिए उन्होंने ब्रह्मचर्य का पालन करना आवश्यक माना। शिक्षा का उद्देश्य केवल व्यक्तिगत विकास करना ही नहीं बल्कि समाज में ऐसे नर नारियों का निर्माण करना है जो अपने कर्तव्य को भलीभांति पूरा कर सके। दयानंद ने समाज के सभी वर्गों के लिए शिक्षा का समर्थन किया है।
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दयानंद दर्शन में ब्रह्मचर्य का महत्व-स्वामी दयानंद सरस्वती ने विद्यार्थी के लिए ब्रह्मचर्य व्रत का पालन अनिवार्य माना है। ब्रह्मचर्य व्रत का पालन श्री एवं पुरुष दोनों के लिए अनिवार्य है। उत्तम ब्रह्मचर्य 48 वर्ष की आयु पर्यंत रखा जाता है। मध्यम ब्रह्मचर्य 44 वर्ष की आयु पर्यंत रखा जाता है स्त्री के संदर्भ में यह आयु 22 वर्ष निर्धारित है।
दयानंद दर्शन के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य निम्नलिखित हैं-
1. सार्वभौम और अनिवार्य शिक्षा-स्वामी दयानंद देश में सार्वभौम शिक्षा के प्रबल समर्थक थे। उन्होंने स्त्री पुरुष तथा प्रत्येक वर्ष के बालकों के लिए शिक्षा आवश्यक मानी। राज्य को यह देखभाल करनी चाहिए कि प्रत्येक व्यक्ति अपने बालकों को अनिवार्य रूप से शिक्षा प्राप्त करने हेतु भेजें। इस प्रकार दयानंद सरस्वती शिक्षा में जनतंत्रीय आदर्श को मानते हैं। राज्य की ओर से यह नियम होना चाहिए कि जो व्यक्ति अपने बालकों को नियमित शिक्षा उपलब्ध करवाने में सक्षम नहीं है ऐसे बालकों को निशुल्क शिक्षा उपलब्ध कराए।
2. घर में शिक्षा-दयानंद दर्शन के अनुसार की सबसे पहली नैतिक शिक्षा घर में होनी चाहिए क्योंकि घर में ही उसके चरित्र की नींव पड़ती है। वह अच्छी आदतें सीखता है एवं बुरी आदतों से बचता है। इस मनोवैज्ञानिक नियम को भलीभांति समझते हुए दयानंद ने जोर दिया कि माता-पिता अपने बालकों को यथासंभव जितेंद्रिय, विद्या प्रिय और सत्संग में रुचि रखने वाला बनाएं। वे उन्हें व्यर्थ क्रीडा, रुदन, हास्य, लढाई, हर्ष शोक, लोलुपता ईर्ष्या द्वेष से रोकें।
स्वामी दयानंद सरस्वती के अनुसार जब लड़का-लड़की 5 वर्ष के हो जाएं तो उन्हें देवनागरी अक्षरों का अभ्यास करवाया जाए। बालकों को ऐसे उपदेश दिया जाए जिससे उनका भूत-प्रेत आदि मिथ्यापूर्ण बातों पर विश्वास न हो। विद्या को विषयों की कथा, विषयी लोगों का साथ, विषयों का ध्यान, स्त्री का दर्शन एकांत सेवन, संभाषण और स्पर्श से दूर रहना चाहिए। इस प्रकार माता-पिता द्वारा 5 वर्ष तक घर पर ही शिक्षा दी जानी चाहिए।
3. माता द्वारा शिक्षा- दयानंद दर्शन के अनुसार बालक-बालिकाओं को बचपन से ही ब्रह्मचर्य का उपदेश देना चाहिए क्योंकि ब्रह्मचर्य के अभाव में मनुष्य दुर्बल निस्तेज, निर्बुद्धि व उत्साहहीन हो जाता है और उसमें साहस, धैर्य, बल पराक्रम आदि नहीं रहते हैं। घर में माता का स्थान महत्वपूर्ण माना जाता है। वह नित्य पल अपने बच्चे के साथ घर में रहती है इसलिए बालकों के विकास पर माता का प्रभाव अधिक रहता है। दयानंद के अनुसार जन्म से 5 वर्ष तक बालकों को माता द्वारा शिक्षा दी जानी चाहिए। आधुनिक शिक्षा दर्शन और शिक्षा मनोविज्ञान के दृष्टिकोण से दयानंद की यह बात अधिक महत्वपूर्ण है।
4. पिता द्वारा शिक्षा-दयानंद दर्शन के अनुसार बालक की प्रारंभिक शिक्षा में माता-पिता का विशिष्ट योगदान रहता है। इसलिए माता-पिता दोनों की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। माता-पिता द्वारा दी गई शिक्षा से बालकों को भावनात्मक संतोष प्राप्त होता है। दयानंद ने नौवें वर्ष के आरंभ में उपनयन संस्कार के पश्चात बालक-बालिकाओं को आचार्य कुल में शिक्षा हेतु भेजे जाने का विधान किया है।
5. पुरस्कार एवं दंड का सिद्धांत-स्वामी दयानंद सरस्वती ने बालकों की शिक्षा में पुरस्कार और दंड के सिद्धांत पर विशेष ध्यान दिया है। हालांकि दयानंद ने शारीरिक दंड के बजाय मौखिक दंड पर विशेष बल दिया है। जो माता-पिता अध्यापन कराने हेतु संतानों को लाड प्यार नहीं करते किंतु ताड़ना ही करते रहते हैं उन्हीं की संतान सभ्य, शिष्ए और प्रचंड विद्वान बनते हैं। अधिक लाड प्यार से बालक दोषयुक्त हो जाता है जबकि ताड़ना अर्थात दंड देने से गुण बढ़ता है। बालकों को यह भली-भांति पता होना चाहिए कि उनके माता-पिता एवं शिक्षक किन बातों के विरोधी हैं। उन्हें ताड़न से आसन्न नहीं होना चाहिए और ना ही अधिक लाड प्यार की इच्छा करनी चाहिए।
6. आदर्श द्वारा नैतिक शिक्षा-दयानंद दर्शन के अनुसार बालकों की शिक्षा में सबसे महत्वपूर्ण प्रयास माता-पिता और शिक्षक द्वारा सही आदर्श उपस्थित करना है। दयानंद ने यह स्पष्ट किया है कि जो माता-पिता एवं शिक्षक सकारात्मक प्रभाव उत्पन्न करने में सक्षम नहीं होते हैं ऐसे बालकों का नैतिक विकास भी समुचित ढंग से नहीं हो पाता है। दयानंद सरस्वती बालकों की नैतिक शिक्षा पर विशेष बल देते हैं। उनका मानना था कि चरित्र निर्माण के बीज बचपन में ही पड़ जाते हैं। बचपन में ही शिष्टाचार की शिक्षा अत्यंत आवश्यक है। बालकों को चाहिए कि वह बड़ों का सम्मान करें। गुणों को स्वीकार कर दोषो का परित्याग करना चाहिए। सभी को अपने पिता और आचार्य की तन मन धन से सेवा करनी चाहिए।
7. आदर्श शिक्षक द्वारा शिक्षा-दयानंद दर्शन के अनुसार शिक्षा व्यवस्था चाहे कितनी भी अच्छी क्यों न हो उससे लाभ तभी हो सकता है जब तक वह आदर्श शिक्षकों के हाथ में है। दयानंद ने आचार्य अथवा शिक्षक के चरित्र पर विशेष बल दिया है। उनका मानना था कि जो अध्यापक दुराचारी हो उसे शिक्षक के पद पर कभी भी नियुक्त नहीं करना चाहिए। शिक्षकों को विद्वान होना चाहिए। उन्हें तपस्वी होना चाहिए तथा धर्म अनुष्ठान कराते हुए वेदों और शास्त्रों को पढ़ना पढ़ाना चाहिए।
दयानंद दर्शन में शिक्षा व्यवस्था के सिद्धांत-स्वामी दयानंद सरस्वती ने शिक्षा व्यवस्था में जनतंत्रीय आदर्शों का समर्थन किया। उनके अनुसार विद्यालय में सभी विद्यार्थियों को एक समान खानपान, वस्त्र एवं आसन दिए जाने चाहिए। संतान को माता-पिता से और माता-पिता को संतान से मिलने का अवसर नहीं दिया जाना चाहिए। आपस में पत्र व्यवहार से भी बचना चाहिए। महर्षि दयानंद की यह व्यवस्था बालक बालिकाओं के भावनात्मक विकास पर नकारात्मक प्रभाव डाल सकती है। शिक्षा शैली का रचनात्मक विकास तभी संभव है जब शिक्षा को व्यवस्थित परिवेश में प्रदान किया जाए।
दयानंद दर्शन में ब्रह्मचर्य का महत्व-स्वामी दयानंद सरस्वती ने विद्यार्थी के लिए ब्रह्मचर्य व्रत का पालन अनिवार्य माना है। ब्रह्मचर्य व्रत का पालन श्री एवं पुरुष दोनों के लिए अनिवार्य है। उत्तम ब्रह्मचर्य 48 वर्ष की आयु पर्यंत रखा जाता है। मध्यम ब्रह्मचर्य 44 वर्ष की आयु पर्यंत रखा जाता है स्त्री के संदर्भ में यह आयु 22 वर्ष निर्धारित है।
दयानंद दर्शन में बहुमुखी पाठ्यक्रम – दयानंद दर्शन के अनुसार विद्यालय में पाठ्यक्रम के विषय में दयानंद ने स्त्री पुरुष सभी के लिए लगभग एक सा पाठ्यक्रम निर्धारित किया। उनका मानना था कि महिलाओं को वेद का अध्ययन करवाया जाए। उन्होंने शास्त्र विद्या के अध्ययन पर विशेष बल दिया। इसके माध्यम से राजा त्यागपूर्ण शासन व्यवस्था स्थापित करता है। उन्होंने राज विद्या सिखाने के बाद गांधर्व वेद के अध्ययन पर भी विशेष बल दिया। इसके अतिरिक्त अथर्ववेद, ज्योतिष शास्त्र, सूर्य सिद्धांत के अध्ययन पर विशेष बल दिया। उनका मानना था कि सभी महत्वपूर्ण साहित्य- एवं वेदों का अध्ययन 21 वर्ष तक समाप्त हो जाना चाहिए। दयानंद ने प्रत्येक विषय सिखाने के लिए प्रामाणिक ग्रंथों की लंबी सूची प्रस्तुत की, साथ ही ऐसे अप्रामाणिक ग्रंथों की सूची बनाई जो नहीं पढ़े जाने चाहिए।
दयानंद दर्शन में शिक्षा में विघ्न- दयानंद ने अपने शिक्षा के दर्शन में शिक्षा में विघ्नों का व्यापक वर्णन किया है। वह चित्र है कुसंग अर्थात विषयी लोगों का संग इत्यादि, व्यसन, वेश्यागमन इत्यादि। 25 वर्ष की आयु से पूर्व पुरुष का और 15 वर्ष से पूर्व स्त्री का विवाह हो जाना, पूर्ण ब्रह्मचारी न होना, अति भोजन, अति जागरण, अध्यापन में मन न लगना, ईश्वर का तिरस्कार करना, आलस्य कपट तथा आचार्य विद्वान की संगति से वंचित हो जाना शिक्षा में विघ्न के प्रतिरूप माने जाते हैं।
दयानंद दर्शन में ब्रह्मचर्य का महत्व- स्वामी दयानंद सरस्वती ने विद्यार्थी के लिए ब्रह्मचर्य व्रत का पालन अनिवार्य माना है। ब्रह्मचर्य व्रत का पालन स्त्री एवं पुरुष दोनों के लिए अनिवार्य है। उत्तम ब्रह्मचर्य 48 वर्ष की आयु पर्यंत रखा जाता है। मध्यम ब्रह्मचर्य 44 वर्ष की आयु पर्यंत रखा जाता है स्त्री के संदर्भ में यह आयु 22 वर्ष निर्धारित है।
दयानंद दर्शन में स्त्रियों की शिक्षा- स्वामी दयानंद सरस्वती ने सबके लिए सामान्य पाठ्यक्रम के साथ साथ भिन्न-भित्र वर्णों के स्त्री पुरुषों के उनके वर्ग के अनुरूप विशेष शिक्षा का भी आयोजन किया है। उनका मानना था कि केवल पुरुषों में ही नहीं बल्कि भिन्न-भिन्न वर्ण की स्त्रियों को भी उनके वर्ण के अनुरूप शिक्षा दी जानी चाहिए। ब्राह्मण एवं स्त्रियों को संपूर्ण शिक्षा, वैश्यों को व्यवहार शिक्षा और शूद्रों को पाक आदि सेवा की शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए। पुरुषों के समान स्त्रियों को भी धनुर्वेद, व्याकरण, धर्म, वैदिक गणित तथा शिल्प विद्या पढनी चाहिए क्योंकि इसके बिना संतानोत्पत्ति और उसका पालन पोषण तथा शिक्षा का विकास उचित ढंग से संभव नहीं है।
लेखक –
प्रधानाचार्य रा.बा.उ.मा.वि.
सादड़ी, जिला- पाली,
(राजस्थान)
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