वर्षों पूर्व क्रांतिकारी सोच वाली एक समाज हित चिंतक विभूति ने लगभग 14-15 किशोरों के साथ एक मैदान में जिस संगठन का बीज रोपा था, वह आज एक बड़े वृक्ष का रूप ले चुका है। इतना ही नहीं, उस वृक्ष की विशाल शाखाएं उसकी शीतल छाया तले स्वतंत्र रूप से निखरते हुए अपनी पहचान बना चुकी हैं।
इससे कोलकाता में बरगद के उस प्रसिद्ध विशाल पेड़ की याद आती है, जिसका वर्णन टाइम्स आफ इंडिया में इन शब्दों में किया गया है, ‘‘कोलकाता में हावड़ा के शिबपुर स्थित आचार्य जगदीश चंद्र बोस भारतीय वनस्पति उद्यान में 250 साल से भी पुराना बरगद का एक अद्भुत वृक्ष है जिसका आकर्षण अतुलनीय है। यह पेड़ 4.67 एकड़ क्षेत्र में फैला हुआ है।
हम जानते हैं कि बरगद के पेड़ों की शाखाओं से हवा में लटकती जड़ें निकलकर जमीन में समा जाती हैं। ये जड़ें बहुत बड़े क्षेत्र तक फैलती चली जाती हैं। लेकिन क्या यह मुख्य तने के बिना संभव है? हां, ऐसा हो सकता है। दो बड़े चक्रवातों को झेलने के बाद, इस विशालकाय बरगद के मूल तने को बीमारी लग गई थी। पूरे पेड़ में रोग को फैलने से रोकने के लिए 1925 में इसके मूल तने को हटा दिया गया था। लेकिन इससे पेड़ का बढ़ना नहीं रुका। इसमें हवा में लटकती हुई धरती में समातीं कुल 3,772 जड़ें हैं’’।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विकास यात्रा भी इसी विशाल बरगद के पेड़ जैसी है, जो सामाजिक और राष्ट्रीय जीवन के लगभग हर क्षेत्र में विभिन्न सहयोगी संगठनों के माध्यम से काम करते हुए आज विशाल रूप ले चुका है। राष्ट्रीय स्तर पर 36 संगठन ऐसे हैं, जो रा.स्व.संघ के सिद्धान्तों पर काम कर रहे हैं, यथा-राष्ट्र सेविका समिति (1932 में गठित महिलाओं का संगठन), अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (1948), वनवासी कल्याण आश्रम (1951), भारतीय जनता पार्टी (पूर्व में भारतीय जनसंघ,1951), भारतीय मजदूर संघ (1955) और विश्व हिंदू परिषद (1964)। ये सभी बहुत बड़े संगठन हैं। इसके अलावा, 2021 में दिव्यांगजनों के लिए काम करने हेतु ‘सक्षम’ की स्थापना हुई। रा.स्व.संघ के दर्शन से प्रेरित लोग पूरी लगन और क्षमता के साथ सेवा कार्य कर रहे हैं।
दिलचस्प बात है कि इनमें कई ऐसे संगठन भी हैं जिनमें सदस्यों की संख्या रा.स्व.संघ से भी अधिक है। नलिन मेहता जैसे विद्वान बताते हैं कि भाजपा (18 करोड़ सदस्य) में रा.स्व.संघ से कई गुना अधिक सदस्य हैं। जबकि रा.स्व.संघ का भाजपा के मामलों में कोई दखल नहीं है, न ही वह उस पर अपनी कोई बात लागू करता है। विभिन्न सामाजिक क्षेत्रों में सेवारत अन्य संगठन भी अत्यंत उत्कृष्ट हैं। 2008 में विश्व हिन्दू परिषद ने 68 लाख सदस्य होने का दावा किया था, अभाविप के 45 लाख छात्र सदस्य हैं, वहीं भारतीय मजदूर संघ में 5,000 मजदूर संगठनों के करीब एक करोड़ सदस्य हैं।
साथ ही, ऐसे छोटे-छोटे कितने ही संगठन हैं जिन्होंने भारतीय इतिहास की दिशा बदलने में बड़ी भूमिका निभाई है, जैसे प्रसिद्ध पुरातत्वविद् हरिभाऊ वाकणकर द्वारा स्थापित इतिहास संकलन समिति, जिसने ‘आर्य आक्रमण सिद्धांत’ को ध्वस्त करने वाले साक्ष्यों की खोज की। ‘सेवा भारती’, जो 150 हजार से अधिक सामाजिक सेवा प्रकल्पों के साथ समाज सेवा के क्षेत्र में समन्वित रूप से कार्य करने वाली शीर्ष संस्था है। एक शिक्षक वाला ‘एकल विद्यालय’है, जिसके तहत दूर-दराज के क्षेत्रों में स्कूली शिक्षा उपलब्ध कराने की सुविधा दी जाती है। इन विद्यालयों की संख्या एक लाख का आंकड़ा पार कर चुकी है। यह देखकर कई अन्य संगठनों ने भी इस दिशा में बढ़ाए हैं।
ऐसे में दिमाग में सहज विचार उभरता है कि नई पहचान बनाने वाली उन सभी शाखाओं के संबंध में जनक समान वह तना किस तरह यह सुनिश्चित करता होगा कि उन सभी में उसके मूल दर्शन की प्राणमय भावना का सतत पोषण होता रहे, ताकि वे अपनी विरासत से इतर किसी और दिशा में न भटकें।
संगठन और सामंजस्य
यह एक ऐसा विषय है जिसने कई समाज-विज्ञानियों को चकित कर दिया है। उन्होंने अपने पश्चिमी संगठनात्मक मॉडल में उत्तर खोजने की कोशिश की। लेकिन, इसका उत्तर तो इस संगठन की भारतीय जड़ों में ही निहित है। यह प्रबंधन और संगठनात्मक संरचना के मामले में एक अद्वितीय संगठन है। इसका ढांचा एक विशिष्ट पिरामिड जैसा दिखता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की ढांचागत व्यवस्था में स्थानीय समूहों की शाखाओं से ऊपर जाते क्रम में विभिन्न स्तर पर मंडल, तहसील, जिला, राज्य, क्षेत्र और अंत में एक निर्वाचित प्रतिनिधि सभा और शीर्ष स्तर पर सरसंघचालक की अध्यक्षता में एक राष्ट्रीय कार्यकारिणी होती है। इसके अन्य सहयोगी संगठनों में भी यही व्यवस्था बनाई गई है। अब सवाल है कि अन्य संगठनों और रा.स्व.संघ के बीच क्या अंतर है और यह किस तरह अपने सहयोगी संगठनों के साथ या उनसे अलग करीब 100 वर्ष से सामंजस्यपूर्ण तरीके से काम कर रहा है?
संघ के चौथे सरसंघचालक प्रो. राजेंद्र सिंह उपाख्य रज्जू भैया ने इस बारे में बड़ी ही सारगर्भित बात कही थी। उनका कहना था कि रा.स्व.संघ कोई सांस्कृतिक या सामाजिक संगठन नहीं, बल्कि एक पारिवारिक संगठन है। परिवार का अर्थ होता है स्नेह, एक-दूसरे का ख्याल रखना, आपसी जुड़ाव, एक-दूसरे के लिए त्याग करने की इच्छा और एक-दूसरे के विचारों को सुनना तथा उनका सम्मान करना आदि। साथ ही, संघ के वरिष्ठ सदस्यों में संयुक्त परिवार के मुखिया की तरह अपने विस्तारित परिवार के अन्य सदस्यों को साथ लेकर चलने का दायित्व भाव और क्षमता।
आज के संगठनों में आम सहमति बनाने को ज्यादा महत्व नहीं दिया जाता। आज के अन्य वाणिज्यिक, सामाजिक और राजनीतिक संगठनों में भारी प्रतिस्पर्धा, गुटबाजी और बहुमत के जरिए निर्णयों को प्रभावित करने, किसी भी कीमत पर जीत हासिल करने जैसी प्रवृत्ति दिखती है। हमारे देश में विविध विचारों और दृष्टिकोणों को कहने-सुनने और उन पर बहस करने की स्वतंत्रता विकास का मार्ग प्रशस्त करने के बजाय अक्सर नकारात्मक माहौल तैयार करने लगती है; वहीं रा.स्व.संघ ने आम सहमति बनाने की कला में निपुणता हासिल की है, क्योंकि इसके सदस्यों के बीच संबंध निस्वार्थ भावना और पारिवारिक सौहार्द का है। इसमें कोई भी चर्चा सौहार्दपूर्ण वातावरण में निर्णय निर्माण के उद्देश्य से होती है। इससे सबको साथ लेकर चलने में मदद मिलती है।
रा.स्व.संघ से प्रेरित या उसके आनुषंगिक संगठनों की भी यही विशेषता है। उनमें भी रिश्तों की मजबूती और आम सहमति पर जोर दिया जाता है। रा.स्व.संघ सिर्फ ‘आईक्यू’ यानी बौद्धिकता का निर्माण नहीं करता, बल्कि यह ‘ईक्यू’ और ‘एसक्यू’ यानी भावनात्मकता और सामाजिकता का निर्माण भी करता है। इस प्रकार, इसका कोई भी सहयोगी संगठन टूटा नहीं। कुछ सदस्य बाहर गए, कुछ बाद में लौट आए, लेकिन किसी ने भी अपने संगठन को तोड़ने की कोशिश नहीं की।

अनोखा समन्वय, विशाल वट वृक्ष
रा.स्व.संघ सिर्फ ‘आईक्यू’ यानी बौद्धिकता का निर्माण नहीं करता, बल्कि यह ‘ईक्यू’ और ‘एसक्यू’ यानी भावनात्मकता और सामाजिकता का निर्माण भी करता है।
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न स्पर्धा, न टकराव
जैसे-जैसे रा.स्व.संघ का आकार विकसित होता गया, इसने समन्वय बनाकर काम करने पर बल दिया। यही वजह है कि इससे जुड़े विभिन्न संगठनों को हमेशा अपने सहयोगी संगठनों के कार्य और कार्यक्षेत्रों के बारे में जानकारी रही। समय-समय पर ये ‘समन्वय बैठक’ का आयोजन करते रहे हैं। इससे उन्हें एक-दूसरे के काम की जानकारी और उनके कार्य क्षेत्रों के प्रति सकारात्मक भाव रखने में मदद मिलती है। साथ ही, एक-दूसरे के काम और परिस्थितियों की इस समझ से किसी भी टकराव की संभावना भी नहीं रहती।
अगर वे एक-दूसरे की विरोधी संस्थाओं से आते तो ज्यादातर समय शायद टकराव में ही खर्च होता। उदाहरण के लिए, माना लघु उद्योग भारती के किसी सदस्य को अपने कारखाने में भारतीय मजदूर संघ के साथ कोई समस्या आई या स्वदेशी जागरण मंच या भारतीय मजदूर संघ को भाजपा की कुछ नीतियां पसंद नहीं आ रहीं, ऐसे में वे उसकी आलोचना करते या किसी नीति का विरोध करते दिख सकते हैं। लेकिन, जब दोनों पक्ष समन्वय बैठक में मिलते हैं तो एक-दूसरे को समझने और कुछ हद तक आम सहमति पर पहुंचने की कोशिश करते हैं अथवा समाधान के लिए अपने विचार प्रस्तुत करते हैं। यहां, रा.स्व.संघ सूत्रधार की भूमिका निभाता है और किसी पर भी बतौर मार्गदर्शक अपना दृष्टिकोण नहीं थोपता।
कुछ लोगों के मन में सवाल उठ सकता है कि रा.स्व.संघ अपने सहयोगी संगठनों पर ‘आदेश’ चलाने का भाव कैसे नियंत्रित करता है? वास्तव में संघ का सिद्धान्त है, सभी सहयोगी संगठनों को समान मानकर स्वायत्तता की भावना को जीवित रखना। संघ की भूमिका केवल विभिन्न मुद्दों पर अपने विचार साझा करने की है, यह दूसरे संगठन पर निर्भर है कि वह इसे स्वीकार करे या न करे। हां, जब सरसंघचालक या सरकार्यवाह कोई बात कहते हैं तो उसे गंभीरता से सुनकर मन में बैठाया जाता है। यही कारण है कि शीर्ष नेतृत्व अन्य संगठनों के साथ अपने विचार साझा करने से पहले कई बार सोचता है। आमतौर पर, नेतृत्व तब ही प्रतिक्रिया करता है जब कोई संगठन किसी समाधान के लिए उसके पास पहुंचता है।
- संघ का मूल भाव संयुक्त हिंदू परिवार की तरह अपने सहयोगी संगठनों के साथ मिल-जुलकर काम करना है; यही इसके सामंजस्यपूर्ण अस्तित्व का रहस्य है।
- रा.स्व.संघ का आकार विकसित होता गया, इसने समन्वय बनाकर काम करने पर बल दिया। यही वजह है कि इससे जुड़े विभिन्न संगठनों को हमेशा अपने सहयोगी संगठनों के कार्य और कार्यक्षेत्रों के बारे में जानकारी रही।
- रा.स्व.संघ समाज के भीतर एक संगठन नहीं, बल्कि समाज का एक संगठन होना चाहिए। संघ की शाखा में औपचारिक रूप से शामिल हुए बगैर भी कई लोग संघ के विचारों और कार्यप्रणाली को आत्मसात कर रहे हैं या उसका अनुसरण कर रहे हैं, यही है सबसे बड़ी सफलता।
- संघ के संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार का निर्देश है कि रा.स्व.संघ समाज के भीतर एक संगठन नहीं, बल्कि समाज का एक संगठन होना चाहिए। संघ की शाखा में औपचारिक रूप से शामिल हुए बगैर भी कई लोग संघ के विचारों और कार्यप्रणाली को आत्मसात कर रहे हैं या उसका अनुसरण कर रहे हैं, यही है सबसे बड़ी सफलता।
शुरुआती दिनों में, विशेष कार्य के लिए आवश्यक मानव संसाधन संघ ही उपलब्ध कराता था और प्रचारक भी प्रदान करता था। ऐसे में भी वह पहले संगठन से अपना कैडर बनाने का आग्रह करता था। धीरे-धीरे, अधिकांश संगठन अपने-अपने कार्यकर्ताओं और कार्यक्षेत्रों के आधार पर अपनी कार्यशैली का विकास करने में सक्षम हो गए हैं। रा.स्व.संघ के वरिष्ठ कार्यकर्ता सलाह देने की कोशिश करते हैं, लेकिन उसे मानने के लिए मजबूर नहीं करते और सहयोगी संगठन की मजबूरियों और विशेषज्ञता के क्षेत्र का सम्मान करते हैं।
इसके विपरीत कम्युनिस्ट संगठन में दूसरों को स्वायत्तता देने, गंभीर प्रयासों से सहमति बनाने और परिवार जैसे स्नेह की भावना को पोषित करने की भावना का नितांत अभाव है। वहां संगठन बनाए रखने के लिए वरीयता के विभिन्न पद बनाए गए हैं। ऐसा ही हाल अन्य संगठनों का भी है।
हम विवेकानंद रॉक मेमोरियल के निर्माण, लोकतंत्र की बहाली के लिए आपातकाल के खिलाफ संघर्ष, राम मंदिर आंदोलन, विशाल संघ परिवार द्वारा 2014 में समन्वित तरीके से चलाए गए ‘शत प्रतिशत मतदान’ अभियान और इसके व्यापक प्रभाव को याद करें। संघ के संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार का निर्देश है कि रा.स्व.संघ समाज के भीतर एक संगठन नहीं, बल्कि समाज का एक संगठन होना चाहिए। संघ की शाखा में औपचारिक रूप से शामिल हुए बगैर भी कई लोग संघ के विचारों और कार्यप्रणाली को आत्मसात कर रहे हैं या उसका अनुसरण कर रहे हैं, यही है सबसे बड़ी सफलता।
इस दृष्टिकोण से संघ का अध्ययन करने की किसी ने कोशिश नहीं की। सभी अपनी ऊर्जा संघ की ‘गलतियां’ निकालने में खर्च करते रहे। ऐसे लोग संघ के महती उद्देश्यों और सिद्धान्तों को कभी नहीं समझ पाएंगे। संघ का मूल भाव संयुक्त हिंदू परिवार की तरह अपने सहयोगी संगठनों के साथ मिल-जुलकर काम करना है; यही इसके सामंजस्यपूर्ण अस्तित्व का रहस्य है।
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
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