हल्द्वानी रेलवे जमीन पर अतिक्रमण का विवाद सुप्रीम कोर्ट में अगली 7 फरवरी को सुना जाना है। उत्तराखंड सरकार के निर्देश पर जिला प्रशासन अपने विभागों के जरिए अतिक्रमण की चपेट में आ रही अपनी जमीनों को चिन्हित करने में लग गया है। उल्लेखनीय है कि यहां रेलवे की जमीन के साथ-साथ वन विभाग, राजस्व की नजूल भूमि पर भी अवैध कब्जे हैं। बड़ा सवाल अब ये है कि क्या सरकार अपनी जमीन भी खाली करवाएगी? या फिर रेलवे की जमीन से कब्जे हटने की स्थिति में वहां के लोगों को सरकार क्या अपनी स्वामित्व वाली भूमि पर कब्जा देकर बैठाएगी?
रेलवे की जमीन पर 4365 परिवार अवैध रूप से काबिज हैं। करीब 29 हेक्टेयर क्षेत्र में ये लोग बसे हुए हैं, रेलवे अपनी योजनाओं के विस्तार के लिए अपनी जमीन खाली करवाने के लिए 35 करोड़ की राशि खर्च करने के लिए उत्तराखंड के राजस्व कोष में जमा भी करवा चुकी है। रेलवे की जमीन से अतिक्रमण करने वालों ने ये मुद्दा हिंदू सरकार बनाम मुस्लिम समुदाय से जोड़कर प्रचारित करते हुए, 50 हजार मुस्लिम लोगों को हटाने का बना दिया है, जबकि हकीकत ये है कि अतिक्रमण करने वालों में हिंदू भी शामिल हैं। पिछले दिनों हल्द्वानी रेलवे जमीन के इस मुद्दे को राजनीतिक, सामाजिक टूलकिट्स के माध्यम से शाहीन बाग प्रकरण से जोड़ते हुए बहुचर्चित बना दिया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में स्टे देते हुए कई दिशा निर्देश अपने आदेश में जारी किए हैं।
एएसजी ने रेलवे की आवश्यकता पर बल दिया है, लेकिन इस विवादास्पद मामले में राज्य सरकार के रुख पर विचार किया जाएगा कि कोर्ट ये भी पूछता है कि क्या पूरी जमीन रेलवे में निहित है या राज्य सरकार भूमि के हिस्से का दावा कर रही है? इसके अलावा कब्जाधारियों के भी विषय हैं जो की पट्टेदार/नीलामी खरीदार के रूप में भूमि पर अधिकार का दावा करते हैं। कोर्ट का कहना है कि हम मानते हैं कि एक व्यावहारिक व्यवस्था आवश्यक है जो लोगों को वहां से अलग करने के लिए है, जिनका भूमि में कोई अधिकार नहीं हैं और जिनके पास हैं, लेकिन उनके द्वारा हटाया जाना है। इसे पुनर्वास की योजनाओं के साथ मिलकर जो रेलवे की आवश्यकता को पहचानते हुए पहले से ही मौजूद हो सकती है।
न्यायालय ने एएसजी को व्यक्तियों के पुनर्वास के साथ रेलवे को आवश्यक भूमि उपलब्ध कराने के उद्देश्य को प्राप्त करने की पद्धति को अपनाने के लिए भी कहा है। इस बीच उच्च न्यायालय द्वारा पारित आदेशों में स्टे रहेगा। जिसके साथ अन्य किसी भी प्रकार के और कब्जे या निर्माण चाहे वह वर्तमान कब्जेदार द्वारा हो या किसी अन्य द्वारा पर पूर्णतः रोक रहेगी। ये बात तो तय है कि रेलवे की जमीन पर अतिक्रमण है और उसे हटाया जाना है। अब सुप्रीम कोर्ट इस बात के लिए सरकार से पूछ सकता है कि इन्हें हटाकर उनके पुनर्वास की कोई योजना है? ऐसे में सरकार कह सकती है कि जो गरीबी रेखा से नीचे हैं उनके लिए पुनर्वास की व्यवस्था हो सकती है, परंतु जो आयकर, जीएसटी देते हैं उनके द्वारा किया गया अतिक्रमण को हटाया ही जाएगा। क्या ऐसी संभावनाओं को तलाशने के लिए भी सर्वे सीमांकन किया जाएगा?
सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के बाद से उत्तराखंड सरकार को भी अपनी जमीनों को लेकर चिंता सताने लगी है। स्मरण रहे कि रेलवे ने अपनी जिस भूमि को चिन्हित किया है उसमें राज्य सरकार द्वारा बनाए गए स्कूल, अस्पताल, पानी की टंकियां आदि भी शामिल हैं। वन विभाग के सीमांकन पिलर खोजे जा रहे हैं। ऐसा इसलिए किया जा रहा है कि रेलवे की जमीन के साथ-साथ पहले वन विभाग की जमीन है, फिर राजस्व विभाग की जमीन जैसे नजूल, बागवानी की जमीन है, उनके दावे के लिए जिला प्रशासन अपने नक्शे लेकर सीमांकन सर्वे करवा रहा है।
बड़ा सवाल ये है कि सुप्रीम कोर्ट ने जब इस मामले में सभी पक्षों की सुनवाई नैनीताल हाई कोर्ट को करने के लिए निर्धारित किया था तब जिला प्रशासन क्यों सोया रहा? उसके द्वारा अपने सरकारी संपत्ति पर भवनों के होने का जिक्र क्यों नहीं किया? इस मामले में स्थानीय प्रशासन की लापरवाही सामने आ गई है। ये मामला राष्ट्रीय मुद्दा बन गया है तो प्रशासन अब सर्वे करा रहा है, ये बात तो तय है कि कल तक उत्तराखंड सरकार इस मामले को रेलवे और अतिक्रमण करने वालों का मामला बता रही थी। संभव है कि अब वो भी सुप्रीम कोर्ट में पक्षकार बन जाएगी।
इस मामले में याचिकाकर्ता रवि जोशी का कहना है कि जो क्षेत्र उत्तराखंड का सबसे बड़ा अपराधिक क्षेत्र रहा हो और रेलवे की जमीन पर अवैध रूप से बसा हो, उसे खाली करवाने में सरकार क्यों संकोच कर रही है। ये मुद्दा हिंदू- मुस्लिम का बेवजह बना दिया गया है, जबकि ये विकास से जुड़ा प्रश्न है। जब तक यहां से अवैध रूप से काबिज लोग हटेंगे नहीं तब तक नए रेल प्रोजेक्ट टूरिज्म की दृष्टि से नहीं आएंगे। उधर नैनीताल के एडीएम अशोक जोशी का कहना है कि हम ये देख रहे हैं कि रेलवे के साथ-साथ हमारी जमीन कहां तक है इसका सीमांकन सर्वे हम अपने रिकॉर्ड के लिए रख रहे हैं।
दुष्प्रचार उत्तराखंड सरकार के लिए चुनौती
रेलवे की जमीन पर अतिक्रमण किया गया है ये बात रेलवे की अदालतों से लेकर हाई कोर्ट तक में प्रमाणित हो चुकी है और नैनीताल हाईकोर्ट में ये सुनवाई, सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर ही पूरी करके जजमेंट दिया गया था। दरअसल मुद्दा तब गरमाया जब हाई कोर्ट ने इसे हटाने के लिए एक हफ्ते का समय दिया, जिसके बाद इस मुद्दे को मुस्लिम समुदाय से जोड़कर देखा जाने लगा, जिसके लिए स्थानीय मुस्लिम युवकों ने सोशल मीडिया का सहारा लिया, कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के साथ-साथ दिल्ली शाहीन बाग मामले से जुड़े ट्विटर टूल किट्स ने इस पर अपना अभियान शुरू किया और इस मुद्दे को बीजेपी विरोधी बनाए जाने में एक अभियान छेड़ा। अब जैसे-जैसे 7 फरवरी नजदीक आ रही है ये मुद्दा फिर से गर्म होने लगा है।
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