भारत की गौरवशाली परंपरा के अमर सपूत और स्वाधीनता संग्राम के अप्रतिम योद्धा हेमू कालाणी का नाम जन-मानस में बड़े आदर और श्रद्धा के साथ लिया जाता है। भारत माता को अंग्रेजों की दासता से मुक्त कराने तथा समस्त राष्ट्र को एकता के सूत्र में बांधने के लिए हेमू कालाणी ने अपने जीवन की आहुति दे दी। उनका जन्म 23 मार्च,1923 को सिंध प्रांत के सक्खर नामक नगर में हुआ था। उनकी माता का नाम जेठीबाई और पिता का नाम पेसूमल था। हेमू कालाणी सक्खर के तिलक हाईस्कूल में मेधावी छात्र थे। उनमें बचपन से ही देशभक्ति की भावना का विकास हो चुका था। इस संबंध में एक उदाहरण उल्लेखनीय है।
23 मार्च,1931 सरदार भगत सिंह की फांसी का दिन, और दूसरी तरफ उसी दिन हेमू का 8वां जन्मदिन। लेकिन वह मात्र आठ वर्ष का बालक न तो खिलौनों की जिद कर रहा था और न ही मिठाई की। वह तो अपने घर में सरदार भगत सिंह का अनुकरण करते हुए रस्सी टांग कर शहीद होने का अभ्यास कर रहा था। उसी समय मां ने देखा और पूछा, बेटा ये क्या कर रहे हो? हेमू ने शांत भाव से उत्तर दिया, ‘‘मां मैं भी फांसी पर चढूंगा।’’ मां ने हेमू को प्यार से समझाया और रस्सी ले ली, लेकिन उन्हें क्या मालूम था कि हेमू एक दिन वास्तव में देश के लिए भारत मां को आजाद कराने के लिए फांसी पर चढ़ेगा और बलिदान होगा।
यह हमारी पराधीनता के दिनों की कहानी है। उन दिनों अंग्रेजों का क्रूर दमनचक्र स्वतंत्रता के पुजारियों से जीने का अधिकार छीन रहा था। लोग शासक दल द्वारा पदाक्रांत थे और उसके निर्दयता पूर्ण व्यवहार से जनता कराह रही थी। ऐसे में भारतवासियों का आत्मसम्मान अंग्रेजों के प्रति विद्रोह और रोष की अग्नि के रूप में धधक उठा। इस धधकती हुई अग्नि में हेमू की फांसी ने घी का कार्य किया।
वीर सपूत भारत माता की जय के उद्घोष के साथ फांसी पर चढ़ गया और शहीद हो गया। फांसी के बाद उनके पार्थिव शरीर का परंपरानुसार अंतिम संस्कार किया गया। सारे सक्खर शहर में उस दिन उन्हें फांसी दिए जाने के विरोध में पूर्ण हड़ताल रही।
23 अक्तूबर, 1942 की रात, चारों तरफ सन्नाटा और अचानक सन्नाटे को चीरती हुई टन-टन की आवाजें। यह रेल पटरियों से फिश प्लेटें निकालते हुए तीन सिंधी नवयुवक विद्यार्थियों द्वारा की जा रही थी, जो स्वराज सेना के तत्वावधान में 1942 के ‘अंग्रेजो भारत छोड़ो’ आंदोलन में कूद पड़े थे। क्वेटा के आंदोलनकारियों को कुचलने के लिए कराची से गोरी पलटन को लेकर जाने वाली विशेष रेलगाड़ी, जिसमें बड़ी मात्रा में बारूद और हथियार थे, यहां से गुजरने वाली थी। इन नवयुवकों ने इस रेलगाड़ी को उड़ा देने की योजना बनाई थी। वहीं पर गश्त लगाते हुए सिपाहियों ने टन-टन की आवाजें सुनीं। वे बड़ी फुर्ती से उन पर टूट पड़े।
युवकों में से दो तो भागने में सफल हो गए मगर एक युवक वहीं पर खड़ा रहा और पकड़ा गया। वह नवयुवक भारत माता का सपूत हेमू कालाणी था। हेमू को भयानक शारीरिक यातनाएं दी गईं, ताकि वह अपने साथियों के नाम बता दे, लेकिन उसने अपनी जुबान नहीं खोली। उस पर राजद्रोह का अभियोग लगाकर सैनिक न्यायालय में मुकदमा चलाया गया तथा 10 वर्ष की कठोर कारावास की सजा सुनाई गई। उसे हैदराबाद जेल भेजा गया, परंतु हैदराबाद मुख्यालय के प्रमुख कर्नल रिचर्डसन ने इस वीर साहसी युवक की सजा को फांसी में बदल दिया। रिचर्डसन के निर्णय में परिवर्तन कराने के लिए हेमू से माफी मांगने को कहा गया, लेकिन उस युवा ने क्षमा मांगने से इनकार कर दिया।
आखिर कर्नल रिचर्डसन के निर्णयानुसार 21 जनवरी,1943 के दिन यह वीर सपूत भारत माता की जय के उद्घोष के साथ फांसी पर चढ़ गया और शहीद हो गया। फांसी के बाद उनके पार्थिव शरीर का परंपरानुसार अंतिम संस्कार किया गया। सारे सक्खर शहर में उस दिन उन्हें फांसी दिए जाने के विरोध में पूर्ण हड़ताल रही। (लेखक राष्ट्रीय सिंधी भाषा विकास परिषद के निदेशक हैं)
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