भारतीय ऋषि-मुनियों, धर्मोपदेशकों और आचार्यों ने पूरे विश्व का भ्रमण करते हुए ज्ञान और सत्य का संदेश दिया और सम्पूर्ण विश्व को श्रेष्ठ बनाने के अपने धर्म का पालन किया। इन विद्वानों ने ज्ञान, विज्ञान, भाषा, योग, ज्योतिष, खगोल विज्ञान, गणित का ज्ञान विश्व को देकर सुदूर क्षेत्रों तक भारतीय संस्कृति का विस्तार किया
विश्व मंगल की प्रेरणा से सम्पूर्ण जगत में श्रेष्ठता के प्रसार की भारतीय परम्परा इस ध्येय वाक्य ‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम्’ अर्थात् सम्पूर्ण विश्व को हम श्रेष्ठ बनाएं – में परिलक्षित होती है। जगत-कल्याण की अन्त:प्रेरणा से विश्व को ज्ञान, विज्ञान, भाषा विज्ञान, लिपि, गणित, योग और मनुष्य की मानवतावादी चेतना से अनुप्राणित करने के लिए भारतीय ऋषि, मनीषी व विद्वज्जन अनादिकाल से प्रवास करते आए हैं। इसके परिणामस्वरूप सुदुर पूर्व में दक्षिण-पूर्व एशिया से मध्य एशिया, अरब जगत, यूरोप व लैटिन अमेरिका पर्यन्त भारतीय संस्कृति का प्रभाव सर्वत्र दिखाई देता है।
योग का व्यापक प्रसार
विगत कई शताब्दियों में भारत के योग गुरुओं के प्रवास का ही परिणाम है कि आज योग के अभ्यासी सभी महाद्वीपों में बड़ी संख्या में देखे जाते हैं। अमेरिका में प्रत्येक चौथा व्यक्ति व यूरोप में प्रत्येक पांचवां व्यक्ति योग का अभ्यास करता है। भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 27 सितम्बर, 2014 को संयुक्त राष्ट्र महासभा के अपने भाषण में जब अन्तरराष्ट्रीय योग दिवस आयोजित करने का प्रस्ताव दिया, तब न्यूनतम अवधि में वह प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित हो गया था। भारत द्वारा संयुक्त राष्ट्र में इस प्रस्ताव की प्रस्तुति के पूर्व 28 जून, 2013 को ऐसा ही प्रस्ताव पुर्तगाल की संसद सर्वसम्मति से पारित कर यूनेस्को को भेज चुकी थी। यह पिछली कई शताब्दियों में यूरोप व अमेरिका सहित कई देशों में गए भारतीय योगाचार्यों के प्रयासों का ही परिणाम था।
पांच सहस्राब्दियों का इतिहास
ईसा पूर्व 3 सहस्राब्दी पहले से, विश्व के कई भागों में भारतीय ज्ञान-विज्ञान, वैदिक व पौराणिक देवी-देवताओं की उपासना का चलन, संस्कृत भाषा, देवनागरी व पल्लव आदि लिपियों, खगोल, दिक्साधन, गणित आदि के प्रसार के अवशेष आज भी मिलते हैं। दक्षिण-पूर्व एशिया व अफगानिस्तान, ईरान, मध्य एशिया में आज चाहे इस्लाम का प्रसार हो चुका है, तथापि वहां के पुरावशेषों व प्राचीन अभिलेखों में भारतीय संस्कृति का प्राचुर में है। यूरोप में आज 400 से अधिक वैदिक देवता मित्र के मन्दिरों के खण्डहर हैं। इंग्लैण्ड के आठ हजार वर्ष प्राचीन स्टोनहेंज के महापाषाण शिलावर्त जैसे ग्रीष्म व शीत अयनान्त अर्थात् सायन दक्षिणायन व उत्तरायण संक्रान्तियों को सूर्य आराधन जैसे अनेक पुराखगोलीय स्थल वैदिक देवताओं की आराधना के प्रमाण प्रस्तुत करते हैं।
तीन सहस्राब्दी ईसा पूर्व के मध्य से भारत बाकी विश्व से सांस्कृतिक, शिक्षा के प्रसार एवं व्यापारिक स्तर पर सजीव संपर्क में रहा है। भारतीय लोगों ने सुदूर देशों की यात्राएं कीं और वे जहां भी गए, वहां भारतीय संस्कृति की अमिट छाप छोड़ी। इस सन्दर्भ में सबसे बड़ी विलक्षणता यह थी कि इससे भारतीय संस्कृति और सभ्यता का प्रसार विश्व के विभिन्न भागों में हुआ, विशेष रूप से मध्य एशिया, दक्षिण-पूर्व एशिया, चीन, जापान, कोरिया, यूरोप आदि में। इस प्रसार की सर्वाधिक विलक्षणता यह है कि इसका उद्देश्य किसी समाज या व्यक्ति को जीतना या डराना नहीं था बल्कि लोगों में भारत के आध्यात्मिक तथा सांस्कृतिक मूल्यों के प्रति एक सहज आकर्षण उपजा था।
प्राचीन काल में भारतीय ऋषि, मुनि, विद्वज्जन एवं व्यापारी अनेक देशों में गए थे। वे पश्चिम में रोम तक और समुद्री मार्गों से होते हुए पूर्व में चीन व दक्षिण-पूर्व एशिया तक पहुंचे थे। हमारे देश के व्यापारी सोने की खोज में ईसा पूर्व काल में इण्डोनेशिया और कम्बोडिया आदि देशों में गए। उनकी जावा, सुमात्रा तथा मलाया द्वीपों की यात्राओं के विशेष वर्णन मिलते हैं। यही कारण है कि इन क्षेत्रों को प्राचीन काल में वाल्मिकि रामायण में भी ‘सुवर्ण द्वीप’ कहा गया था।
गुरुकुलों की भूमिका
विश्व के साथ सांस्कृतिक आदान-प्रदान में यहां के 65 से अधिक प्राचीन विश्वविद्यालयों व अनगिनत गुरुकुलों की भूमिका सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण रही है। इन्होंने बड़ी संख्या में विद्वानों और छात्रों को आकर्षित किया। विदेश से आने वाले विद्वान अक्सर तक्षशिला, पुष्कलवती, शारदापीठ, वल्लभी, काशी, नवद्वीप, सीताकुण्ड, नालंदा विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में जाते थे। इन विश्वविद्यालयों के शिक्षक और छात्र धर्म एवं विद्या के साथ-साथ भारतीय संस्कृति को भी विदेश में ले गए। इन विश्वविद्यालयों के अनेक आचार्य अनेक देशों में जाते रहे हैं। प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्नेन-सांग ने भारत के उन सभी विश्वविद्यालयों का विस्तार से वर्णन किया है।
विक्रमशिला विश्वविद्यालय के संबंध में तिब्बती विद्वान तारानाथ ने लिखा है कि यहां के शिक्षक और विद्वान चीन व तिब्बत में इतने प्रसिद्ध थे कि कहा जाता है, एक बार तिब्बत के राजा ने इस विश्वविद्यालय के प्रधान को तिब्बत में आमंत्रित करने के लिए दूत भेजे थे। नालंदा विश्वविद्यालय के आचार्य कमलशील को तिब्बत के राजा ने निमंत्रित किया था। उनकी मृत्यु के बाद उनके शरीर पर विशेष लेप लगा कर उसे ल्हासा के विहार में सुरक्षित रखा गया था। तिब्बत के बौद्ध शासक द्वारा आमन्त्रित किए जाने पर नालन्दा विश्वविद्यालय के आचार्य ‘शान्तरक्षित’ भी वहां गए। आचार्य अतीश विक्रमशिला विश्वविद्यालय के प्रधान थे जिन्हें दीपंकर श्रीज्ञान के नाम से भी जाना जाता था। वे 11वीं शताब्दी में तिब्बत गए और वहां विविध भारतीय विधाओं व शास्त्रों का अध्यापन प्रारम्भ किया। तिब्बत के राजा ने बौद्ध धर्म को ही राजधर्म घोषित कर दिया। बिहार में एक अन्य प्रसिद्ध विश्वविद्यालय था- ओदन्तपुरी। इस विश्वविद्यालय से विविध विषयों के बहुत सारे आचार्य उपाध्याय व शिक्षकगण तिब्बत, मध्य एशिया व चीन में जाकर बस गए थे।
चीनी सम्राट के निमंत्रण पर 67 ईस्वी वर्ष में दो भारतीय काश्यप मातंग और धर्मरक्षित वहां गए थे। इसके बाद लगातार नालंदा, तक्षशिला, विक्रमशिला और ओदन्तपुरी आदि विश्वविद्यालयों के शिक्षकों ने उनका अनुसरण किया। जब आचार्य कुमारजीव चीन पहुंचे तो चीनी सम्राट ने उनसे प्राचीन भारतीय संस्कृत ग्रंथों को चीनी भाषा में अनूदित करने का अनुरोध किया। उन्होंने भारतीय राजशास्त्र, दर्शन व भाषा विज्ञान का प्रसार किया। एक अन्य आचार्य बोधिधर्म थे जो योगदर्शन के विशेषज्ञ माने जाते थे। उन्हें चीन और जापान में अभी भी सम्मान प्राप्त है। ज्ञानभद्र व वेदनिधि जैसे कई प्रकांड विद्वान अपने पूरे कुल के साथ एशिया के कई भागों में गए थे। ओदन्तपुरी विश्वविद्यालय के विद्वानों ने तिब्बत में एक नए अध्ययन व साधना केन्द्र की स्थापना कर दी थी।
भारतीयता के दीप
हरगोविंद खुराना
अविभाजित भारतवर्ष के रायपुर (जिला मुल्तान, पंजाब) नामक कस्बे में जन्मे डॉ. हरगोविंद खुराना नोबेल पुरस्कार से सम्मानित भारतीय-अमेरिकी जैव रसायनज्ञ थे। विस्कॉन्सिन विश्वविद्यालय, अमेरिका में अनुसन्धान करते हुए, उन्हें 1968 में मार्शल डब्ल्यू निरेनबर्ग और रॉबर्ट डब्ल्यू होली के साथ फिजियोलॉजी या मेडिसिन के लिए नोबेल पुरस्कार संयुक्त रूप से मिला। उन्होंने न्यूक्लिक एसिड में न्यूक्लियोटाइड का क्रम खोजा, जिसमें कोशिका के अनुवांशिक कोड होते हैं और प्रोटीन के सेल के संश्लेषण को नियंत्रित करता है। इस सफलता से ऐमिनो अम्लों की संरचना तथा आनुवंशिकीय गुणों का संबंध समझना संभव हो गया है और वैज्ञानिक अब आनुवंशिकीय रोगों का कारण और उनको दूर करने का उपाय ढूंढने में सफल हो सकेंगे।
भारतीयता के दीप
वी. रामकृष्णन
तमिलनाडु के कुडडालूर जिले के चिदंबरम नामक स्थान पर जन्मे डॉ. वेंकटरमन रामकृष्णन ब्रिटिश और अमेरिकी संरचनात्मक जीवविज्ञानी हैं, जिन्होंने राइबोसोम की संरचना और कार्य के अध्ययन के लिए थॉमस ए. स्टीट्ज और एडा योनाथ के साथ रसायन विज्ञान में 2009 का नोबेल पुरस्कार साझा किया था।
वडोदरा के महाराजा महाराज सियाजीराव विश्वविद्यालय से भौतिकी में स्नातक के तत्काल बाद ही रामकृष्णन उच्च शिक्षा के लिए अमेरिका चले गए। पीएचडी पूरी होने के बाद रामकृष्णन ने दो वर्षों तक कैलिफोर्निया तथा सैन डियोगो यूनिवर्सिटी से जीव विज्ञान की पढ़ाई की। यह एक आश्चर्यजनक तथ्य है कि भौतिक विज्ञान से पी.एच.डी करने वाले रामकृष्णन का रुख सैद्धांतिक भौतिकी से जीव विज्ञान की तरफ मुड़ा और उन्होंने जीव विज्ञान का अध्ययन किया और अंतत: उन्हें विश्व का सबसे प्रतिष्ठित सम्मान नोबेल पुरस्कार रसायन विज्ञान में प्राप्त हुआ।
भारतीयता के दीप
नरिंदर सिंह कपानी
पंजाब के मोगा में 31 अक्तूबर 1926 को जन्मे नरिंदर सिंह कपानी एक ऐसे गुमनाम हीरो हैं, जिन्होंने फाइबर आॅप्टिक्स तकनीक खोजकर दुनिया में संचार क्रांति की नींव रखी। प्रो. कपानी को भारत सरकार ने मरणोपरांत देश के दूसरे सर्वोच्च नागरिक सम्मान पद्म विभूषण से नवाजा।
कपानी के शोध और आविष्कारों में फाइबर-आॅप्टिक्स संचार, लेजर, बायोमेडिकल इंस्ट्रूमेंटेशन, सौर ऊर्जा और प्रदूषण निगरानी शामिल हैं। उनके पास सौ से अधिक पेटेंट थे और नेशनल इन्वेंटर्स काउंसिल के सदस्य थे। 1953 में उन्होंने पहली बार आॅप्टिकल फाइबर के माध्यम से एक फोटो को दूसरी जगह भेजने की उपलब्धि हासिल की, जो 1954 में फाइबर आॅप्टिक्स तकनीक के तौर पर दुनिया के सामने आई। कपानी ने ही 1960 में साइंटिफिक अमेरिकन के एक लेख में पहली बार दुनिया को ‘फाइबर आॅप्टिक्स’ शब्द दिया था। कपानी को नोबेल पुरस्कार के लिए भी नामित किया गया।
रोमा या जिप्सी
अपने प्रवास में बहुत-से भारतीय संसार के अनेक देशों में पहुंचे, जहां वे स्वयं को रोमा कहते हैं। यूरोप में उन्हें ’जिप्सी’ कहा जाता है। वे आज के पाकिस्तान और अफगानिस्तान आदि को पार कर पश्चिम की ओर निकल गए थे। वहां से, ईरान और इराक होते हुए वे तुर्की पहुंचे। फारस, तौरस की पहाड़ी और कुस्तुन्तुनिया होते हुए वे यूरोप के अनेक देशों में फैल गए। आज वे ग्रीस, बुल्गारिया, रोमानिया, पूर्व चेक एवं स्लोवाकिया के राज्यों, पोलैंड, स्विट्जरलैंड, फ्रांस, स्वीडन, चेकोस्लोवाकिया, रूस, हंगरी और इंग्लैंड में बसे हुए हैं। इस पूरी यात्रा में उन्हें लगभग चार सौ वर्ष का समय लगा। इस अवधि में आज तक उन्होंने अपनी भाषा, रहन-सहन के ढंग, नामकरण, लोकगीत रीति-रिवाजों और पारम्परिक व्यवसाय को नहीं छोड़ा। ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी से भारत के विद्वानों ने चीन, जापान, मध्य एशिया, पश्चिम एशिया और रोमन साम्राज्य में भी अपना प्रभाव डाला। मध्य एशिया, तिब्बत, अफगानिस्तान, चीन, रूस और मंगोलिया में भारतीय भाषाओं व लिपियों की असंख्य पाण्डुलिपियां हैं।
भारत और अरब सभ्यता के संबंध
स्थल और समुद्र मार्ग के द्वारा पश्चिम एशिया से भारत का संपर्क प्राचीन काल से रहा है। पश्चिम एशिया के साथ सार्थक सांस्कृतिक मेल-जोल व भारतीय शास्त्रों के प्रसार के प्रमाण बहुत से क्षेत्रों में मिलते हैं। इससे इस्लामी जगत उस काल में ज्ञान समृद्ध हुआ। खगोलविज्ञान के दो महत्त्वपूर्ण ग्रंथ ‘ब्रह्म-स्फुट सिद्धांत’, जिसे अरब जगत में ‘सिंधिन’ के नाम से जानते हैं, तथा ‘खण्डनखाध’ (अरकंद नाम से प्रसिद्ध) सिन्ध के दूतावासों के जरिए बगदाद पहुंचे। इन दूतावासों ने भारतीय विद्वानों की मदद से इन ग्रंथों का अरबी में अनुवाद किया। बाद के समय में आर्यभट्ट और वराहमिहिर कृत खगोलविज्ञान के ग्रंथों का भी अरब-जगत में अध्ययन हुआ और इन्हें अरब के वैज्ञानिक साहित्य में शामिल कर लिया गया। अरब सभ्यता को भारत का एक अन्य महत्त्वपूर्ण योगदान गणित था। वहां से ही अंकज्ञान व भारतीय गणित का यूरोप में प्रसार हुआ। अरब के विद्वानों ने गणित शास्त्र को ‘हिन्दिसा’ (अर्थात्, भारत से संबंधित) कहकर भारत के प्रति अपना ऋण स्वीकार किया है। भारतीय गणित की लोकप्रियता अन्य विद्वानों के अतिरिक्त अलकिन्दी के ग्रंथों के कारण ज्यादा बढ़ी। अरबों ने बहुत जल्दी यह जान लिया कि शून्य की अवधारणा से सम्पन्न भारतीय दशमिक-प्रणाली अत्यंत क्रांतिकारी है। सीरिया के एक तत्कालीन विद्वान ने शून्य के साथ दाशमिक-प्रणाली के ज्ञान के लिए वहां जाने वाले भारतीयों के प्रति कृतज्ञता प्रकट की थी।
10वीं से 13वीं सदी के अनेक अरबी स्रोतों से पता चलता है कि चिकित्सा और औषधि विज्ञान के बहुत से भारतीय ग्रंथों का खलीफा हारून अल-रशीद के निर्देश पर भारत से गए कई विद्वानों ने अरबी में अनुवाद किया था। खलीफा हारुन अल-रशीद सन् 786 ई. से 809 ई. तक बगदाद का शासक रहा। उदाहरण के तौर पर सुश्रुतसंहिता का अनुवाद अरबी में एक प्रवासी भारतीय ने किया था जिसे ’मंख’ कहा जाता था।
खगोल विज्ञान, ज्योतिष शास्त्र, गणित शास्त्र तथा औषधि-विज्ञान आदि के ग्रन्थों के अनुवाद व अध्ययन के अतिरिक्त अरबों ने विभिन्न विषयों के भारतीय ग्रंथों के साथ-साथ प्रवासी भारतीयों द्वारा वहां ले जाई गई सभ्यता-संस्कृति के विभिन्न विषयों की भी प्रशंसा की थी। उन्होंने भारतीय ग्रंथों का अनुवाद कराया और अनूदित ग्रंथों के अध्यापन के लिए भारतीय विद्वानों को आमंत्रित भी किया। अरबों ने भारतीय ज्ञान के जिन अन्य क्षेत्रों का अध्ययन किया उसमें सांप और जहर के विषय में लिखे ग्रंथ, पशु-चिकित्सा से संबंधित ग्रंथ, तर्कशास्त्र, दर्शनशास्त्र, नीतिशास्त्र, राजनीति तथा युद्ध-कला पर लिखित ग्रंथ भी शामिल हैं। अरबी ज्योतिष ग्रन्थ ताजिक नीलकण्ठी की रचना नीलकण्ठ नामक ब्राह्मण ने की थी। इस प्रक्रिया से अरब की शब्दावली भी अत्यंत समृद्ध हुई। ऐसे अनेक अरबी शब्द भारतीय मूल के हैं, जैसे, ‘हूर्त्ति’ (छोटी नाव) जो होरी से बना है तथा ‘बनवी’ जो बनिया या वणिक् से बना है, एवं ‘डोनीज’ जो डोंगी से बना है आदि। ऐसे अनगिनत शब्द हैं जिन्हें पूर्व में प्रवासी भारतीय अरब क्षेत्र में ले गए।
पुर्तगालियों ने लिखा है कि कुछ भारतीय व्यापारी पचास जहाजों तक के स्वामी थे। पश्चिम में विभिन्न स्थानों पर मिली हड़प्पा-सभ्यता से संबंधित वस्तुएं सिद्ध करती हैं कि ईसा पूर्व तीसरी सहस्राब्दी में मैसोपोटामिया और मिस्र सभ्यताओं के साथ भारत के व्यापारिक और सांस्कृतिक संबंध थे। यही नहीं, प्राचीन यूनान, रोम और फारस के साथ हमारे देश के सांस्कृतिक, धार्मिक और सामाजिक विचारों का खूब आदान-प्रादान हुआ। रोम के इतिहासकार प्लिनी ने रोम साम्राज्य के साथ व्यापार के फूलने-फूलने का वर्णन किया। मेसापोटामिया (ईराक-टर्की) के 1300 ईसा पूर्व के कई राजाओं के हिन्दू नाम रहे हैं। वहां के 1300 ईसा पूर्व के शिलालेखों में इन्दु, वरुण, अग्नि, नासत्य (अश्विनी कुमारों) के उल्लेख हैं।
उन्नत भारतीय संस्कृति का प्रसार
प्राचीन ऋषि-मुनियों और बौद्ध प्रचारक अनेक मुश्किल बाधाओं का सामना करते हुए यात्राओं पर जाते थे और नि:शंक होकर असभ्य जातियों को धर्मोपदेश देकर अपने धर्म में दीक्षित करते थे। इनका लक्ष्य विश्व में सत्य का प्रचार-प्रसार करना था। चीनी यात्री फाह्यान के अनुसार ईसवी सन् की प्रथम शताब्दी तक मध्य एशिया का भारतीयकरण किया जा चुका था। वहां की समस्त जातियों ने भारतीय धर्म और भाषा ग्रहण कर ली थी। वहां से मिले अवशेषों से सिद्ध हो चुका है कि वहां अब से लगभग दो हजार वर्ष पूर्व अनेक ऐसे नगर थे जहां भारतीय निवास करते थे। वहां खुदाई में अनेक स्थानों पर बुद्ध, गणेश, कुबेर तथा अन्य देवी-देवताओं की मूर्तियां, बौद्ध स्तूप, विहार, चित्र, हस्तलिखित ग्रन्थ, भारतीय सिक्के तथा भारतीय लिपि में लिखे छोटे-छोटे अभिलेख मिले हैं। इससे स्पष्ट है कि वहां बौद्ध धर्म और सनातन हिन्दू धर्म का व्यापक प्रसार हुआ और संस्कृत भाषा का प्रयोग किया जाता था।
सातवीं शताब्दी में चीनी यात्रा ह्वेनसांग ने लिखा है कि उसके काल के मध्य एशिया में भारतीय संस्कृति तथा बौद्ध धर्म का पूर्णरूपेण प्रसार था। उस समय मध्य एशिया में स्थित कुछ भारतीय राज्य काशगर, कूचा और खोतान थे। भारतीय संस्कृति के इन मुख्य केन्द्रों से भारतीय धर्म प्रचारकों ने आगे बढ़कर चीन, कोरिया और जापान आदि एशिया के दूरस्थ भागों में बौद्ध धर्म और भारतीय संस्कृति की विजय पताका फहराई।
ईस्वी सन् की प्रथम शताब्दी में कश्यम, मातंग, धर्मरत्न आदि धर्म प्रचारक बौद्ध धर्म और भारतीय संस्कृति का संदेश लेकर चीन में प्रविष्ट हुए, तभी तीसरी शताब्दी से छठी शताब्दी के समय सम्पूर्ण चीन में बौद्ध धर्म फैल गया। चीन के सम्राटों ने राजधर्म को उच्च स्थान दिया। वहां बौद्ध विहारों का निर्माण कराया गया। चीन में तांग वंश का शासन बौद्ध धर्म का स्वर्ण युग माना जाता है।
चौथी शताब्दी में बौद्ध धर्म का प्रचार कोरिया में और उसके बाद जापान द्वीप समूह में हुआ। भारतीय संस्कृति ने जापानी संस्कृति को अत्याधिक प्रभावित किया। मंगोलों ने 13वीं शताब्दी में बौद्ध धर्म को स्वीकार किया। उस समय अफगानिस्तान में संस्कृत भाषा को महत्व दिया जाता था। अफगानिस्तान के समान ही ईरान, सीरिया और इराक आदि देशों में भी इस्लाम के पूर्व सनातन वैदिक व कुछ मात्रा में बौद्ध धर्म प्रचलित था। सातवीं शताब्दी के कई भारतीय विद्वानों ने तिब्बत की यात्रा की और वहां बौद्ध धर्म का प्रचार किया। इसके बाद 747 ई. में कश्मीर से आचार्य पद्मसम्भव तिब्बत पहुंचे। वहां उन्होंने तन्त्रवाद से युक्त बौद्ध धर्म की महायान शाखा का प्रचार किया। महायान से ही आगे चलकर तिब्बत में लामा मत का विकास हुआ। इस तरह से पूरे मध्य एशिया और आस-पास के अनेक देशों में धर्म के आधार पर भारतीय संस्कृति का प्रचार-प्रसार हुआ।
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