चमोली जिले में भगवान बद्री विशाल धाम के प्रवेश द्वार कहे जाने वाले और आदिशंकराचार्य द्वारा स्थापित जोशीमठ की जमीन धंसने लगी है। सैकड़ों मकानों और जमीन में पड़ी दरारों से पूरे क्षेत्र में दहशत का माहौल बन गया है। आपदा प्रबंधन को हाई अलर्ट पर रखा गया है। जोशीमठ के विषय कुछ साल पहले ही चेतावनी जारी कर दी गई थी, कि हिमालय के रेतीले ढाल पर बसे इस कसबे में ऊंची पक्की इमारतें नहीं बनाई जाएं, लेकिन इतनी हिदायतों के बावजूद यहां पांच मंजिला इमारतें खड़ी हो गईं।
जोशीमठ के तपोवन में विष्णु गाड़ जल विद्युत परियोजना को लेकर भी सवाल उठे थे, 2013 में जब बद्रीनाथ में बादल फटा था, तो वो अपने साथ ये पूरा डैम बहा ले गया था, और अब यहां फिर से काम शुरू हो गया है, पिछले दिनों जब भू-वैज्ञानिकों का दल यहां दरारों का सर्वे करने आया था, तो उसने ये सिफारिश की थी, कि इस परियोजना पर चल रहे टनल निर्माण के विस्फोट को बंद करवाया जाए, क्योंकि पहाड़ो में खासतौर पर हिमालय रेंज में चट्टान काटने के लिए इस्तेमाल बारूद विस्फोट से चट्टान कट तो हो जाती है, लेकिन उसकी दरारें कई मीटर दूर तक पड़ जाती हैं, और उसमें जब पानी भरता है, तो वो दूर जाकर कहीं रिसने लगती हैं, इस तरह जोशीमठ में भी यही हो रहा है।
अब जब दरारों में पानी रिसने की घटनाएं सामने आईं हैं, तो सबसे पहले विष्णु गाड़ परियोजना पर शासन ने काम रुकवाया है, आईआईटी रुड़की, वाडिया इंस्टिट्यूट के भू-वैज्ञानिकों का दल फिर से जोशीमठ में है, और इस बार वो पिछले अध्ययन की समीक्षा कर रहा है।
1936 में दी गई थी चेतावनी
विख्यात स्विश भूवैज्ञानिक अर्नोल्ड हीम और सहयोगी आगस्टो गैस्टर ने सन् 1936 में मध्य हिमालय की भूगर्वीय संरचना पर जब पहला अभियान चलाया था, तो उन्होंने अपने यात्रा वृतान्त ”द थ्रोन ऑफ द गॉड (1938) और शोध ग्रन्थ” सेन्ट्रल हिमालया: जियॉलॉजिकल आबजर्वेशन्स ऑफ द स्विश एस्पीडिशन 1936 (1939) में टैक्टोनिक दरार, मुख्य केन्द्रीय भ्रंश (एमसीटी) की मौजूदगी को चिन्हित करने के साथ ही चमोली गढ़वाल के हेलंग से लेकर तपोवन तक के क्षेत्र को भूगर्वीय दृष्टि से संवेदनशील बताया था। ये ग्रन्थ भूवैज्ञानिकों के लिए बाइबिल से कम नहीं हैं। इन्हीं के आधार पर मध्य हिमालय के भूगर्व पर शोध और अध्ययन आगे बढ़ा। आज भूधंसाव के कारण अस्तित्व के संकट में फंसा जोशीमठ (ज्योतिर्मठ) ठीक तपोवन और हेलंग के बीच ही है। इसके बाद 1976 में मिश्रा कमेटी ने भी अध्ययन कर जोशीमठ को संवेदनशील घोषित कर उपचार के सुझाव दिए थे। पिछले ही साल उत्तराखंड सरकार के आपदा प्रबंधन विभाग ने भी जोशीमठ पर मंडराते खतरे की ओर सरकार का ध्यान आकर्षित किया था। वहीं इन तामम चेतावनियों के बाद जोशीमठ को बचाने के प्रयास तो हुए नहीं, लेकिन वहां भारी भरकम इमारतों का जंगल उगता गया। बढ़ती गई आबादी का उपयोग किया हुआ पानी जोशीमठ के गर्भ में उतरता गया। आज उसी दलदल पर असह्य बोझ तले दबा जोशीमठ नीचे अलकनंदा की ओर फिसलता जा रहा है।
प्रो खड़क सिंह वाल्दिया ने भी चेताया था
देश के जाने माने भू गर्भ वैज्ञानिक पदम विभूषण प्रो खड़क सिंह वाल्दिया ने भी भी चमोली जिले को अति संवेदनशील माना था, साथ ही उन्होंने गंगोत्री, केदारघाटी क्षेत्रों में भी जल विद्युत परियोजनाएं और ऊंचे पक्के मकान नहीं बनाए जाने की सिफारिश की थी। नैनीताल के जाने माने भू गर्भ विशेषज्ञ प्रो बहादुर सिंह कोटिया ने भी कहा था कि बड़े बड़े पावर प्रोजेक्ट हिमालय में नहीं बनाए जाने चाहिए, 2013 और उससे पहले जो तबाही हुई उससे भी सबक नहीं लिया और बिना भू गर्भ विशेषज्ञों की राय लिए इन प्रोजेक्ट्स को दोबारा शुरू होने दिया गया और नतीजा सामने है।
शासन प्रशासन असंवेदनशील
जोशीमठ कभी एक गांव था और बद्रीनाथ धाम के लिए पैदल रास्ते का पड़ाव हुआ करता था, यहां कच्चे मकान हुआ करते थे, पिछले करीब तीस पैंतीस सालों से यहां पक्के मकान बनने लगे हैं, और आज यहां पांच मजीला इमारतें बन गईं हैं, सरकारी भवन तक पक्के लेंटर के हैं, जिनका बोझ जोशीमठ की ढलान नहीं सहन कर पाई है। 2013 में आई आपदा के बाद भी शासन प्रशासन और स्थानीय जनता ने भविष्य के खतरों को नजरंदाज किया है, और अब ये हालात पैदा हो गए हैं, कि मकानों और सड़कों पर दरारें पड़ गईं हैं, और ये दरारें अब लोगों में दहशत पैदा कर रहीं हैं।
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