अटल जी को सुनना प्रेरित कर जाता था। हर बार उनसे कुछ सीखने को मिलता था। उनके ठहाके लोगों को प्रफुल्लित कर देते थे। उनका एक-एक कदम, उनकी भाव-भंगिमाएं संदेश देती थीं। सागर मंथन-सुशासन संवाद में पूर्व केंद्रीय मंत्री संजय पासवान से पाञ्चजन्य के संपादक हितेश शंकर की बातचीत के अंश –
आपने अटल जी का नाम पहली बार कब सुना था, और उन्हें किस तरह जाना था?
सबसे पहले तो पूरे पाञ्चजन्य परिवार को मेरी ओर से शुभकामना, बधाई और आशीर्वाद कि आपने इस जलसे को गोवा जैसे नगर में किया। वर्ष 1975-76 में जब मैं दसवीं कक्षा में था, उस वक्त दौर था इंदिरा जी को सुनने का, वे बहुत दौरा करती रहती थीं। तो 1976 में अटल जी का आना हुआ था सहरसा जिले में, लोगों ने कहा कि बहुत अच्छा बोलते हैं, चलो, सुनने चला जाए। उसी में हम सब लोग उनको सुनने गए। बात तो कोई समझ में नहीं आई लेकिन ऐसा लगा कि कक्षा के कोई हिंदी या भाषा के शिक्षक बोल रहे हैं। लगा कि अच्छे शिक्षक हैं ये। नेता का मतलब हम लोग बिहार में धूम-धड़ाम समझते थे। हमारे यहां नेता का मतलब आक्रामक होना था। मुझे लगा कि कवि की मुद्रा में कोई बोले, ऐसा भी नेता कोई हो सकता है क्या। मैंने पिताजी से पूछा कि ये कौन थे, नेता थे कि कवि थे कि विद्वान थे। तो पिताजी ने कहा कि सबकुछ थे ये। उस समय सोचा कि अगर कभी नेता बने तो ऐसे ही नेता बनेंगे।
अटल जी का वो कैसा आकर्षण था जो संपर्क में, फिर आत्मीयता में बदला?
हम लोग जब छात्रजीवन में थे, तो उन दिनों परिसर में वामपंथी होना एक रोमांटिक यात्रा होती थी। उस भ्रम में हम भी चले गए। पटना में पता चला कि अटल जी आ रहे हैं। मैंने साथियों से कहा कि चलकर उनको सुना जाए। तो साथियों ने विरोध किया। लेकिन मैं उनको सुनने गया। उनको सुनकर लगा कि उनके भाषणों इस्तेमाल कर अच्छे छात्रनेता बन सकते हैं। लय के साथ बोलने की कला हमने उनसे सीखी। इस पर वामपंथी साथियों ने मुझे नजरअंदाज करना शुरू किया और फिर इतना मजबूर कर दिया कि मैं तलाशने लगा कि अटल जी के समर्थक छात्र कौन से हैं। तब उस सिलसिले में पाञ्चजन्य, अभाविप और मजदूर संघ के लोगों के संपर्क में आया। इस तरह से इस पूरे परिवार से जुड़ने का मौका मिला।
क्या आपको सांसद बनने से पहले अटल जी के साथ मंच साझा करने, साथ में दौरा करने का कोई मौका मिला था?
जब हम भाजपा में आए तो बिहार में पार्टी का प्रदेश महासचिव बने। 1991 और 1996 के चुनाव में उनकी यात्रा को मैं ही देख रहा था। वे मछली खाने के बहुत शौकीन थे। अटल जी कहीं जाते थे तो पूछते थे कि कैसे लोग हैं, कैसी भाषा है, वहां की भोजन पद्धति क्या है, वहां कोई महापुरुष हुआ था, कुछ बड़े लोग कौन हैं, वहां की कौन सी महत्वपूर्ण फसलें हैं, वहां का ऐतिहासिक महत्व क्या है, सांस्कृतिक महत्व क्या है? इससे हम लोगों को बहुत कुछ सीखने का मौका मिला कि कहीं जाओ तो वहां के बारे में जानो। सांसद बनने से पहले दर्जनों बार उनके साथ रहने का मौका मिला। वे हंसते थे तो आसपास के लोगों को प्रफुल्लित कर देते थे। उनसे सीखा कि कैसे जीवन को जीया जाता है। उनका एक-एक कदम, उनकी भाव-भंगिमाएं एक संदेश देती थीं। उनसे बहुत कुछ सीखा हमने।
1999 की बात करें तो क्या रहा। लोकसभा का चुनाव था, चुनाव में आपके क्षेत्र में अटल जी का दौरा हुआ था, साथ मंच साझा करने का अनुभव क्या रहा?
मुझे लोकसभा का टिकट मिला, अटल जी का प्रोग्राम बढ़िया से हो, मंडलीय स्तर पर उनका कार्यक्रम हो, वो बोले कि वे नवादा आएंगे। वह नवादा नहीं, नैवेद्यम है। उनका कार्यक्रम बना, हम लोग साथ थे, चुनाव का 12वां दिन था, दाढ़ी बढ़ी हुई थी, चेहरा काला हो गया था, उन्होंने संजय कह कर पुकारा। संजय कहां हो। वह भी एक तरह का प्रचार था, कि अटल जी संजय को व्यक्तिगत रूप से जानते हैं। उस चुनाव में पूरे बिहार में सर्वाधित वोट मुझे ही मिला, मैं तीन लाख वोट के अंतर से जीता था।
जब किसी व्यक्ति को निकट से देखते हैं, दूर से देखते हैं, साथ समय बिताते हैं, तो आपका अनुभव गाढ़ा होता है। चुनाव में आपने देखा, संसद में भी देखा, दोनों में वक्ता के तौर पर कोई अंतर आपको दिखता था क्या?
सदन में अपनी बातों को रखना, और चुनाव में अपनी बातों को रखना, दोनों के ही अपने राग, सुर, ताल हैं। मैंने जब उन्हें सदन में देखा तो वह बिल्कुल अलग अटल थे। सदन में में टेक्निकल थे, बाकी मैदान में मैकेनिकल थे। सदन में जब विवाद होता था, तो अटल जी और चंद्रशेखर जी आते थे। जब ये दोनों प्रवेश करते थे सदन में तब सारा सदन मौन हो जाता था। दोनों आपस में एक-दूसरे को बोलने के लिए कहते थे। उस बोली में निश्चित तौर पर सबके लिए, निष्पक्ष बोलते थे। सबको संतुष्ट करते थे, यह उनका कद था।
विज्ञान और परंपरा को अटल जी ने जोड़ा। अटल का ए-अंबेडकर, टी यानी ठेंगरी जी, पुन: ए यानी अबुल कलाम आजाद और एल से लोहिया-इनका पूरा भाव था तो कुल मिलाकर अभ्युदय, सर्वोदय, अंत्योदय और पुनरोदय का सम्मिश्रण थे। अटल का अ ओंकार है, ट टंकार है। आ भारत की बात हो रही है। पहले बात इंडिया की हो रही थी। अटल जी के समय से ही भारत की बात शुरू हुई। जो अपने भाव को राग और ताल में रखे, वही भारत है।
आप बाद में मंत्री भी बने, तो आपको पहले से सूचना थी क्या?
जब भी कोई सांसद, विधायक बनता है, तो उसे अपने मंत्री बनने का इंतजार रहता है। 1999 में चुन कर आया तो प्रतीक्षा थी। पासवान जी बिहार से थे ही, तो मैं निश्चिंत था कि मैं नहीं बन पाऊंगा। गुजरात विवाद के समय उन्होंने छोड़ दिया। फिर आडवाणी जी का फोन आया कि कल आ जाओ, आपको मंत्री बनना है। उसके 10 मिनट बाद वेंकैया जी का फोन आया कि आपको मंत्री नहीं, महामंत्री बनना है। मैंने चर्चा की तो लोगों ने कहा कि मंत्री बनो, महामंत्री छोड़ो। मेरे लिए मुश्किल था। बाद में मैंने मंत्री बनना तय किया। प्रमोद महाजन जी के साथ संचार राज्य मंत्री बना।
मंत्री के तौर पर अनुभव जो था, उसमें चुनौतियां क्या थी, उपलब्धियां क्या थीं।
जब कोई पहली बार चुन कर आता है तो लोगों की चाहत होती है कि रेल मंत्रालय और कोयला मंत्रालय। परंतु मैंने संचार समिति को स्वीकार किया। इसलिए प्रमोद जी ने कहा कि इसे मंत्री बनाया जाए। उस वक्त कनेक्टिविटी का रिवॉल्यूशन हुआ। अटल जी और प्रमोद जी को धन्यवाद कि सिम कार्ड, जो पहले क्लास में थे, वह मास में आ गया।
एक बार बहुत विवाद हुआ था, आप आग पर चले थे। कोई सदस्य विवाद में आ जाए तो अटल जी कैसे डील करते थे?
हम लोग जिस जाति के हैं, उसमें चैत और सावन के महीने में आग पर चलने की परंपरा है। हम लोग बचपन में चले थे। 2003 में पटना के श्रीकृष्ण मेमोरियल हाल में भगत, ओझाओं का एक सम्मेलन हुआ। उसमें एक भगत आग पर चला। उसने फिर मुझे ललकार दिया। तो मैं चल दिया। मीडिया ने इस पर काफी चर्चा की। मैं उस वक्त मानव संसाधन में मंत्री हो गया था। तो सवाल यह उठाया गया कि शिक्षा मंत्री आग पर चलकर क्या संदेश दे रहा है। तो लोगों ने कहा कि डिप्टी पीएम से मिलो। मैं इस्तीफा लेकर डिप्टी पीएम से मिला। उन्होंने कहा कि छवि खराब हुई है, पीएम से मिलिए। अटल जी से मिला तो उन्होंने पूछा कि तुम्हारी जाति में यह कई सौ साल से परंपरा है। मैंने बताया कि लोग मुझे इस्तीफा देने के लिए कहा है। अटल जी ने मना कर दिया। विज्ञान और परंपरा को अटल जी ने जोड़ा।
अटल का ए-अंबेडकर, टी यानी ठेंगरी जी, पुन: ए यानी अबुल कलाम आजाद और एल से लोहिया-इनका पूरा भाव था तो कुल मिलाकर अभ्युदय, सर्वोदय, अंत्योदय और पुनरोदय का सम्मिश्रण थे। अटल का अ ओंकार है, ट टंकार है। आ भारत की बात हो रही है। पहले बात इंडिया की हो रही थी। अटल जी के समय से ही भारत की बात शुरू हुई। जो अपने भाव को राग और ताल में रखे, वही भारत है।
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