एक वास्तविक ‘धर्मनिरपेक्ष’ समाज बनाने का कार्य तभी पूरा होगा, जब भारतीयत्व स्वयं को प्रभावी रूप में प्रकट करेगा ताकि हम संकीर्ण आस्थाओं से ऊपर उठकर यह अनुभव कर सकें कि हम एक राष्ट्र हैं
सांप्रदायिक कौन है? सांप्रदायिकता क्या है? ये प्रश्न इस देश में बीसियों साल से पूछे जा रहे हैं। अभी तक इन प्रश्नों का ठीक-ठीक उत्तर नहीं मिला। मुस्लिम लीग केरल में संप्रदायवादी नहीं है, क्योंकि केरल में वह सत्तारूढ़ दल के साथ सरकार में शामिल है। मुस्लिम लीग केरल के बाहर संप्रदायवादी है, क्योंकि वह सत्तारूढ़ दल के खिलाफ है। … मुझे जमाते इस्लामी और जमीयते उलेमा में कोई फर्क नहीं दिखाई देता, सिवाय इसके कि जमीयते उलेमा कांग्रेस की पिछलग्गू है, सत्तारूढ़ दल के साथ संबंधित है और इसलिए वह संप्रदायवादी नहीं है, केवल जमाते इस्लामी संप्रदायवादी है।
हमें रिलीजन की जगह सांप्रदायिकता उपयोग करना चाहिए। सांप्रदायिकता को राजनीति का हथियार नहीं बनाया जाना चाहिए।
– अटल बिहारी वाजपेयी
बांग्लादेश कहता है कि वह एक सेकुलर स्टेट है। … अगर बांग्लादेश मुस्लिम देश होते हुए भी सेकुलर देश हो सकता है तो हिंदुस्थान हिंदू देश होते हुए भी सेकुलर क्यों नहीं हो सकता? सांप्रदायिकता को मापने के अलग-अलग गज नहीं हो सकते। इसलिए तय होना चाहिए कि संप्रदायवाद क्या है? सांप्रदायिक कौन है? केवल राजनीतिक आधार पर यह तय नहीं हो सकता। …आज शादी-विवाह के कानून सबके लिए बने हुए हैं। मेरे मित्र श्री मोहसिन चार शादियां कर सकते हैं, लेकिन मैं नहीं कर सकता। क्या यह सांप्रदायिकता को बढ़ाने वाली बात नहीं है? (कांग्रेस सांसद इंदर मल्होत्रा द्वारा ‘सांप्रदायिक अर्द्धसैनिक संगठन’ पर प्रतिबंध लगाने के प्रस्ताव के विरोध में 21 अप्रैल, 1972 के वक्तव्य के अंश)
भारत के ब्रिटिश शासन से मुक्त होने पर हमने अपनी संविधान निर्मात्री सभा में अपने लिए युगों से चली आ रही हमारी परंपरा और विरासत के अनुरूप ही ऐसा संविधान स्वीकृत और लागू किया जिसका लक्ष्य भारत के सभी नागरिकों को न्याय, समता व भ्रातृत्व के साथ विचार, अभिव्यक्ति, आस्था, धर्म व उपासना का स्वातंत्र्य उपलब्ध कराना था। हमारी परंपरा धर्मतांत्रिक राज्य की नहीं रही है। राज्य स्वयं को किसी विशेष धर्म के साथ नहीं जोड़ता था और न ही विभिन्न मत-पंथों के अनुयायियों के बीच भेद-भाव बरतता था। …शताब्दियों तक ऋषियों, मुनियों द्वारा पोषित इस दृष्टिकोण के कारण ही सभी धर्मों के अनुयायियों के प्रति समान व्यवहार पर आधारित विधान स्थापित करने का फैसला किया जा सका।
विभाजन व विभाजन के पहले और बाद में दृष्टिगोचर मजहबी उन्माद के बावजूद यह फैसला लिया गया था। यह बात भी कम महत्वपूर्ण नहीं है कि हमारे संविधान के निर्माताओं ने प्रस्तावना में ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द का उल्लेख करना जरूरी नहीं समझा। यद्यपि उसके पहले दी गई स्वातंत्र्य की व्यवस्था में उन्होंने एक ‘धर्मनिरपेक्ष’ राज्य के आधारभूत सिद्धांतों को सम्मिलित किया था। …कोई राज्य लोकतंत्र होने का दावा कैसे कर सकता है और विभिन्न मत-पंथों के अनुयायियों के बीच भेदभाव बरत सकता है? यह तो सभी नागरिकों को समान मानने की लोकतांत्रिक आधारभूत मान्यता के ही विपरीत है। इसलिए यह कहा जा सकता है कि लोकतंत्र का भविष्य और ‘धर्मनिरपेक्ष’ राज्य का भविष्य परस्पर संबंधित है।
…‘धर्मनिरपेक्षता’ को केवल नारा नहीं समझना चाहिए। यह कुछ मूल्यों का नाम है, एक जीवन पद्धति का नाम है। …‘धर्मनिरपेक्ष’ दृष्टिकोण का एक दूसरा तत्व है उन्माद का अभाव। यदि ‘धर्मनिरपेक्षता’ को जिंदा रहना है और फलना-फूलना है तो मजहबी पागलपन को रोकना होगा। व्यक्ति व समूह, दोनों स्तरों पर रोकना होगा। …मजहबी पागलपन की सार्वजनिक अभिव्यक्ति रोकने में राज्य की असफलता ‘धर्मनिरपेक्षता’ के लक्ष्य को पर्याप्त क्षति पहुंचा सकती है। मजहबी अल्पसंख्यकों के हितों को सुरक्षा प्रदान करने को ही ‘धर्मनिरपेक्षता’ नहीं माना जा सकता। भारत जैसे देश में, जहां मत-पंथ की इतनी विविधता है, जीवन पद्धति और भाषा की विविधता है, एकता और समरसता लाने का एकमेव मार्ग ‘धर्मनिरपेक्षता’ ही है।
(श्री अटल बिहारी वाजपेयी के 24 अगस्त, 1980 को प्रकाशित लेख के अंश)
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