हिन्दू-धर्म पर बौद्ध-मत के प्रभावों की व्याख्या के सिलसिले में गीता की भी बर-बस याद आ जाती है। बौद्ध मत के प्रसंग में गीता के समझने का मार्ग यह है कि उपनिषदों ने चिन्तनशील हिन्दुओं को यह बताया था कि यज्ञ सिर्फ नश्वर सुख देने वाले हैं, चाहे वे सुख इस लोक में मिलें या परलोक में। इसलिए, मनुष्य को चाहिए कि धर्म वह इन इनामों के लोभ में आकर न करे, बल्कि इसलिए कि उसे जन्म-बन्ध से छुटकारा पाना है। बौद्ध-मत और जैन—मत ने भी, अपने-अपने ढंग पर, जनता को यही समझाया था। गीता में हम वैष्णव-धर्म का जो रूप देखते हैं, वह बौद्ध और जैन पंथों के प्रभावों को अपने भीतर पचाये हुए हैं।
गीता की विशेषता यह है कि उपनिषदों के आध्यात्मिक सिद्धान्त इस ग्रन्थ में सामाजिक जीवन पर लागू किये गये हैं। उपनिषदों ने वैराग्य को मुक्ति का साधन माना है। वहीं बौद्ध और जैन मत ने निर्वाण या मुक्ति का वादा तो सबके लिए किया, किन्तु उन्होंने एक शर्त लगा दी कि श्रमण या संन्यासी हुए बिना मुक्ति किसी को नहीं मिलेगी। लेकिन गीता मुक्ति का दरवाजा सबके लिए खोलती है और यह भी कहती है कि गृहस्थी का काम करते हुए भी आदमी मोक्ष पा सकता है। गीता गृहस्थी का उपनिषद् है।
एक दूसरी दृष्टि से देखने पर ऐसा मालूम होता है कि हिन्दू-धर्म बौद्ध एवं जैन पंथों के द्वारा किये जाने वाले प्रयोगों को ठीक उसी तरह सहानुभूति से देख रहा था, जैसे घर का बूढ़ा घर के नौजवान लड़कों के कामों को चाव से देखता हो, चाहे वे लड़के बूढ़े के कुछ खिलाफ ही क्यों न हों। और लड़कों को जब कोई कामयाबी मिल जाती है, तब घर का मालिक भी उसकी कीमत लगाने लगता है। यही नहीं, लड़के जब गलती करते हैं, तब घर का मालिक उस गलती को सुधार भी देता है। इसी तरह, बौद्ध और जैन मतों के प्रयोग से जो बातें सच पायी गयीं या जिस बात की सचाई और भी साबित हो गयी, उस बात को हिन्दू-धर्म ने अपने ऊँचे-से-ऊँचे विचारों के बीच स्थान दे दिया। साथ ही, एकाध ऐसी बात भी थी जिसका प्रयोग तो ये नये पंथ कर रहे थे, मगर, जिसे ठीक भाषा में वे कह नहीं पाते थे। गीता में हिन्दू-धर्म ने ऐसे सत्यों को भी उचित भाषा में व्यक्त कर दिया।
वैदिक, औपनिषदिक, बौद्ध और जैन, इन चारों मतवादों के बीच विचारों के जो संघर्ष हुए, उनसे, अन्त में जाकर, सत्य का एक अत्यन्त सुलझा हुआ रूप प्रकट हुआ। यही सत्य गीता का ज्ञान है और गीता में ही इन चारों मतवादों का समन्वय भी झलकता है।
गीता का ज्ञान-मार्ग सांख्य-मत के अनुसार है और बौद्ध तथा जैन मतों से उसकी पूरी समानता है, क्योंकि ये मत भी (जैन कुछ अधिक, बौद्ध कुछ कम) निर्वाण या कैवल्य के लिए ज्ञान को आवश्यक बताते हैं। इस ज्ञान-मार्ग का पहला संकेत उपनिषदों ने किया था। बौद्ध और जैन मतों ने उसका वर्षों तक प्रयोग और प्रचार किया, और तब इस निखरे हुए सिद्धान्त को गीता ने अपने हृदय में स्थान दे दिया।
गीता का दूसरा प्रतिपाद्य मार्ग कर्म का मार्ग है। गीता से पहले वेदों के कर्म-काण्ड में कर्म का अर्थ यज्ञ समझा जाता था। उधर बौद्धों और जैनों ने कर्म का अर्थ व्रत, अनुष्ठान, सदाचार, तपस्या और ध्यान बना लिया। फिर, जब गृहस्थों से यह कहा गया कि उनकी मुक्ति संन्यास लिये बिना नहीं हो सकती, तब गृहस्थी के सारे कर्म धार्मिक कर्म के घेरे के बाहर छूट गये। असल में, बौद्ध और जैन महात्मा जितना इस बात का प्रचार करते गये कि मोक्ष के लिए संन्यास लेना जरूरी है, उतना ही, समाज में इस भाव का प्रचार होता गया कि धर्म का असली मार्ग कर्म-न्यास यानी गृहस्थी के सभी कर्मों का त्याग है। इसी घबराहट से आजिज आकर बौद्धों ने महायान-मार्ग के खुलने पर, यह मान लिया कि मुक्ति गृहस्थ रहने पर भी मिल सकती है। लेकिन, असल में, जो बात कहना चाहते थे, उसके उपयुक्त भाषा उन्हें तब भी नहीं मिली थी।
इसीलिए, हमारा विचार है कि कर्म की वास्तविक शिक्षा देने में बौद्ध आचार्य असफल रहे थे। कर्म के क्षेत्र में उन्होंने जो भी प्रयोग किया, उसका लाभ घर के बूढ़े यानी हिन्दू-धर्म ने उठाया। क्योंकि यह खुलासा, अन्त में, गीता में ही आकर हुआ कि कर्म-न्यास का अर्थ कर्म का त्याग (अथवा संन्यास) नहीं, बल्कि, कर्म के फलों में होने वाली आसक्ति का त्याग है। यह भी ध्यान देने की बात है कि गीता के कर्मकाण्ड में केवल संन्यासी ही नहीं, गृहस्थों के कर्म शामिल हैं। यहाँ तक कि उससे युद्ध भी बाहर नहीं है, अगर वह न्याय के लिए लड़ा जाय और लड़ने वाला उसे कर्त्तव्य माने, वासना की वृद्धि का साधन नहीं।
गीता का भक्ति-मार्ग ही एक ऐसी वस्तु है, जिसका बौद्ध मत से कोई सरोकार नहीं मालूम होता। भक्ति के बीज आर्यों के आगमन से पूर्व, इस देश में मौजूद थे, यह बात ऊपर कही जा चुकी है। उपनिषदों में ये बीज, जहाँ-तहाँ, अंकुरित होने लगे थे। गीता में हम इस भक्ति का पुष्पित और पल्लवित रूप देखते हैं। भक्ति ने ठीक इसी समय पर आकर आकार क्यों लिया? इसका कारण यह है कि जिस वस्तु का बहुत अभाव होता है, उसकी कामना लोगों को और जोर से होने लगती है। चूँकि बौद्ध मत ने भक्ति के सभी दरवाजे बन्द कर दिये थे, इसलिए, वह वैदिक धर्म के हृदय में जोरों से बढ़ने लगी। मालूम होता है, जब गीता में प्रतिपादित भक्ति समाज को बहुत आकृष्ट करने लगी, तभी बौद्ध धर्म ने महायान के भीतर से बढ़कर उसे कबूल कर लिया।
उपनिषद् वेद से निकले थे और गीता उपनिषदों से। लेकिन, इस बीच में, पशुहिंसा के खिलाफ देश में जो आन्दोलन चलते रहे, उनका प्रभाव गीता पर खूब पड़ा। गीता में देवता की प्रसन्नता के लिए जीव-हिंसा करने का उपदेश नहीं है, बल्कि वह तो भगवान का पूजन पुष्प और पत्र से करने को कहती है।
गीता हिन्दू-धर्म का सर्वमान्य ग्रन्थ है। गीता की रचना के बाद हिन्दू धर्म के जो भी व्याख्याता और सुधारक भारत में जन्मे, उन्होंने अपनी पक्षसिद्धि के लिए गीता की व्याख्या अवश्य लिखी अथवा गीता को अवश्य उद्धृत किया। यहाँ तक कि अनासक्ति-योग के नाम से गीता की एक व्याख्या गाँधीजी ने भी लिखी है। वेदों और उपनिषदों की विचारधारा स्फटिक के समान उज्ज्वल होकर गीता में प्रकट हुई। कोई आश्चर्य नही कि हिन्दू-मात्र गीता को धर्म का अन्तिम आख्यान मानते हैं।
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