ना कोई मौका था, ना कोई मुद्दा था, बस दस्तूर था। दस्तूर ये कि जब भी चुनाव आये वीर सावरकर का नाम लेकर मुस्लिम तुष्टिकरण के लिये माहौल तैयार कर लो या फिर अगर प्रचार की लड़ाई में पिछड़ रहे हो तो जनता का ध्यान अपनी तरफ खींच लो। लगता है कि कांग्रेस की इसी पुरानी “मॉडस ऑपरेंडी” के तहत ही राहुल गांधी ने गुजरात चुनाव के ठीक पहले वीर सावरकर को अपमानित करने की कोशिश की है। ध्यान से देखने पर ये पूरा मामला प्री-प्लान्ड लगता है। पत्रकार ने राहुल गांधी से सवाल पूछा और राहुल ने पास में रखा वीर सावरकर का तथाकथित माफीनामा कैमरे के सामने दिखा दिया। और तो और इस कथित माफीनामे की कुछ लाइनें राहुल ने हाइलाइट भी करके रखी हुई थीं। सवाल उठता है कि क्या राहुल गांधी हमेशा अपनी जेब में रुमाल की जगह वीर सावरकर का कथित माफीनामा लेकर चलते हैं? राहुल गांधी के इस चुनावी प्रपंच का सच जो भी हो लेकिन राहुल को सबसे पहले वीर सावरकर से जुड़े इस विवादित प्रकरण को समझने के लिए महात्मा गांधी के उन कोशिशों के बारे में पढ़ना चाहिए जो उन्होंने वीर सावरकर की रिहाई के लिये की थी। साथ ही राहुल को बापू के उन विचारों के बारे में भी पढ़ना चाहिए जो उन्होंने वीर सावरकर के लिये प्रकट किये थे। अगर राहुल गांधी ये पढ़ लेते हैं – वैसे इसकी संभावना कम ही है – तो शायद आगे से वो ऐसे बयान देने से बचेंगे। राहुल जी और उन जैसी सोच रखने वालों को वीर सावरकर पर गांधीजी के विचार तथ्यों, तर्कों और सबूतों के साथ बताने की ज़रूरत है।
तो ये जनवरी 1920 की बात है। उन दिनों वीर सावरकर और उनके बड़े भाई गणेश सावरकर पिछले नौ साल से अंडमान की सेल्युलर जेल में कैद थे, जिसे कालापानी की सज़ा कहा जाता था। उस समय देश के कई राजनीतिक कैदियों को ब्रिटेन के राजा की तरफ से शाही माफी मिल रही थी और इनमें कई क्रांतिकारी भी शामिल थे। लेकिन अंग्रेज सरकार की तरफ से माफी पाने वालों की इस लिस्ट में वीर सावरकर और गणेश सावरकर का नाम शामिल नहीं था, क्योंकि इन दोनों सावरकर बंधुओं को सरकार अपने लिए खतरनाक मानती थी। ठीक इसी समय वीर सावरकर और गणेश सावरकर के सबसे छोटे भाई डॉ. नारायण सावरकर मुंबई में रहते थे। उन्होंने अपने दोनों भाइयों को जेल से छुड़ाने के लिए मुहिम छेड़ रखी थी। और अपनी इसी मुहिम के चलते उन्होंने 18 जनवरी 1920 को गांधीजी को एक पत्र लिखा और उनसे मदद मांगी। जवाब में गांधीजी ने डॉ. नारायण सावरकर को 25 जनवरी 1920 को एक पत्र लिखा जो संपूर्ण गांधीजी वांग्मय के खंड 19 में प्रकाशित हुआ है। इस पत्र में गांधीजी ने लिखा है कि
“प्रिय डॉ. नारायण सावरकर,
मुझे आपका पत्र मिला। आपको सलाह देना कठिन लग रहा है, फिर भी मेरी राय है कि आप एक याचिका तैयार करायें। जिसमें इन तथ्यों का जिक्र हो कि आपके भाइयों (गणेश और विनायक सावरकर) ने जो अपराध किया है वो पूरी तरह से राजनीतिक था। मैं यह सलाह इसलिए दे रहा हूं कि इससे इस मामले पर आम जनता का ध्यान जाएगा। इस बीच मैं इस मामले को अपने स्तर पर उठा रहा हूं।”
यानी इस तरह ये साफ हो जाता है गांधीजी ने वीर सावरकर और गणेश सावरकर तरफ से उनके तीसरे भाई नारायण सावरकर को याचिका दायर करने की सलाह दी थी। पेशे से वकील रहे गांधीजी ने इस बात पर भी ज़ोर देने के लिए कहा था कि इस याचिका में इस बात का खास उल्लेख हो कि दोनों सावरकर बंधुओं को जिस अपराध में जेल में रखा गया है वो राजनीतिक अपराधी की श्रेणी में आते हैं। इतना ही नहीं वीर सावरकर की कालापानी की सज़ा को माफ करवाने के लिए गांधीजी ने अपने अखबार ‘यंग इंडिया’ में 26 मई, 1920 को एक लेख भी लिखा जिसका शीर्षक था ‘सावरकर ब्रदर्स’, जिसमें गांधीजी साफ-साफ बताते हैं कि कैसे सावरकर बंधुओं के साथ अन्याय हो रहा है, जबकि ज्यादातर राजनीतिक कैदियों को ‘शाही क्षमादान’ का लाभ मिला था। गांधीजी ने इस लेख में लिखा था
“भारत सरकार और प्रांतीय सरकारों की कार्रवाई के चलते कारावास काट रहे बहुत से लोगों को शाही क्षमादान का लाभ मिला है। लेकिन कुछ उल्लेखनीय ‘राजनीतिक अपराधी’ हैं, जिन्हें अभी तक नहीं छोड़ा गया है, इनमें मैं सावरकर बंधुओं को गिनता हूं। जिस तरह के पंजाब के बहुत से लोगों को कैद से छोड़ा जा चुका है। सावरकर बंधु भी उसी तरह के ‘राजनीतिक अपराधी’ हैं। लेकिन शाही क्षमादान घोषणा के पांच महीने बीत चुके हैं फिर भी इन दोनों भाइयों को स्वतंत्र नहीं किया जा रहा है।”
वीर सावरकर को शाही माफी दिलवाने के लिए गांधीजी ने एक लंबा अभियान चलाया था। दरअसल गांधीजी ये जानते थे कि वो वीर सावरकर पूरे देश के साथ-साथ महाराष्ट्र में सबसे ज्यादा लोकप्रिय हैं, इसीलिए वीर सावरकर की आवाज़ उठाने से गांधीजी को महाराष्ट्र में समर्थन मिल सकता है। दरअसल उस दौर में महाराष्ट्र में गांधीजी को लोकमान्य तिलक का राजनीतिक विरोधी समझा जाता था, लिहाज़ा तिलक के समर्थक गांधीजी को पसंद नहीं करते थे। वहीं वीर सावरकर लोकमान्य तिलक के शिष्य थे। लिहाज़ा वीर सावरकर का समर्थन कर गांधीजी “तिलक-वादियों” का समर्थन हासिल करना भी चाह रहे थे। अपनी इस मुहिम में वो बार-बार ब्रिटिश सरकार को ये समझाने की कोशिश कर रहे थे कि वीर सावरकर क्षमादान के हकदार हैं। इसीलिए वो अपने लेख में आगे लिखते हैं कि –
“सावरकर बंधुओं को रिहा ना करने का इकलौता कारण यह हो सकता है कि वे ‘सार्वजनिक सुरक्षा के लिए खतरा हों’ क्योंकि सम्राट ने वायसराय को जिम्मेदारी दी है कि उनकी निगाह में जिन राजनीतिक कैदियों से सार्वजनिक सुरक्षा को खतरा न हो, उनके मामले में सभी प्रकार से शाही क्षमादान की कार्रवाई की जाए। इसलिए वायसराय को सार्वजनिक सुरक्षा की शर्त पूरी करने पर सावरकर बंधुओं को रिहा करना ही चाहिए।”
इसी दौर में वीर सावरकर के साथ कालापानी की सजा भुगत रहे महान क्रांतिकारी भाई परमानंद को भी ब्रिटिश सरकार ने क्षमा दे दी थी। गांधीजी अपने लेख में इसी का उल्लेख करते हुए आगे लिखते हैं-
“सावरकर बंधु हो या भाई परमानंद… जहां तक सरकार का सवाल है, उसके लिए सभी एक जैसे दोषी हैं क्योंकि सभी को सजा सुनाई गई थी। क्षमादान लागू करने का नियम सिर्फ इतना है कि अपराध राजनीतिक होना चाहिए और वायसराय की नजर में क्षमादान पाने वाले व्यक्ति से सार्वजनिक सुरक्षा को कोई खतरा नहीं होना चाहिए। सावरकर बंधु राजनीतिक अपराधी हैं और जनता भी जानती है कि वे सार्वजनिक सुरक्षा के लिए कोई खतरा नहीं हैं। जनता को उन आधारों को जानने का अधिकार है, जिनके आधार पर शाही घोषणा के बावजूद दोनों सावरकर बंधुओं की रिहाई पर रोक लगाई जा रही है?”
अपने इस लेख में गांधीजी ने वीर सावरकर के लिए शाही माफी की ही मांग नहीं कि बल्कि उनकी शान में जमकर कसीदे भी पढ़े। यहां तक कि गांधीजी ने वीर सावरकर को अपने से भी ज्यादा देशभक्त बताया। रोज़ सुबह-शाम पानी पी-पी कर वीर सावरकर को कोसने वाले राहुल गांधी जैसे लोगों को अपने बापू के वो शब्द सुनना चाहिए जो उन्होने वीर सावरकर के लिए कहे थे। गांधीजी ने लिखा है कि –
“अगर देश समय पर नहीं जागता है तो भारत पर अपने दो वफादार बेटों को खोने का खतरा है। दोनों भाइयों में से एक विनायक सावरकर को मैं अच्छी तरह से जानता हूं। मेरी उनसे लंदन में मुलाकात हुई थी। वह बहादुर हैं, वह चतुर हैं, वह देशभक्त हैं और स्पष्ट रूप से वे क्रांतिकारी थे। उन्होंने सरकार की वर्तमान व्यवस्था में छिपी बुराई को मुझसे काफी पहले देख लिया था। भारत को बहुत प्यार करने के कारण ही वे काला पानी की सज़ा भुगत रहे हैं। अगर वो किसी न्यायपूर्ण व्यवस्था में होते तो आज किसी उच्च पद पर आसीन होते। मैं उनके और उनके भाई के लिए दुख महसूस करता हूं और इसीलिए ऐसी सरकार से मैं असहयोग करता हूं।”
गांधीजी के इन लेखों और पत्रों से ये साफ हो जाता है कि वो सावरकर बंधुओं को क्षमादान देने की पैरवी कर रहे थे साथ ही उनकी इस बात में भी सहमति थी कि सावरकर बंधु अपने लिए क्षमादान मांगे। गांधीजी ने सावरकर की ‘चतुर’ कहकर उनकी तारीफ की और उनके लिए स्थिति का लाभ उठाते हुए क्षमादान की मांग की थी जो उस दौरान देश के अधिकांश क्रांतिकारियों और राजनीतिक कैदियों को मिल भी गई थी।
दरअसल स्वतंत्रता संग्राम के दौर में राजनैतिक बंदियों द्वारा एक तय फॉरमेट में माफी की अपील करना एक सामान्य प्रक्रिया थी। उन दिनों कई राजनीतिक कैदियों ने क्षमादान के लिए आवेदन किया और ब्रिटिश सरकार यानी सम्राट से माफी पाई। इन्हीं में से एक थे महान क्रांतिकारी शचींद्रनाथ सान्याल, जिन्हें 1916 में कालापानी की सज़ा हुई थी। उस दौर में वीर सावरकर भी कालापानी की सज़ा भुगत रहे थे। क्रांतिकारी सान्याल ने बाद में जाकर अपने कालापानी के संस्मरण “बंदी जीवन” नाम की किताब में लिखे थे। जिसमें उन्होंने बताया था कि वीर सावरकर की सलाह पर ही उन्होंने ब्रिटिश सरकार तक क्षमापत्र पहुंचाया था, जिसके बाद 1920 में उन्हें रिहा कर दिया गया। खास बात है कि, ये वही शचींद्रनाथ सान्याल हैं जिन्हें महान क्रांतिकारी भगत सिंह और चंद्रशेखर आज़ाद का गुरु माना जाता है। अब जानते हैं कि शचींद्रनाथ सान्याल ने अपनी आत्मकथा बंदी जीवन के पेज नंबर 223 पर वीर सावरकर के बारे में क्या लिखा है, वो लिखते हैं
“सावरकर ने भी तो अपनी चिट्ठी में वैसी ही भावना प्रकट की थी जैसे कि मैंने की है। तो फिर सावरकर को क्यों नहीं छोड़ा गया और मुझे क्यों छोड़ा गया? मेरे छूटने और सावरकर के रिहा न होने के पीछे दो वजह थी पहली ये कि बंगाल की जनता ने मुझे रिहा करने के लिए आंदोलन चलाया जबकि महाराष्ट्र में यानी सावरकर के गृह राज्य में ऐसा नहीं हुआ। सावरकर की गिरफ्तारी के बाद महाराष्ट्र में क्रांतिकारी आंदोलन समाप्त हो गया था, इसीलिए सरकार को डर है कि कहीं सावरकर की रिहाई से फिर से महाराष्ट्र में क्रांतिकारी आंदोलन शुरु न हो जाए।”
अगर आप ईमानदारी से वीर सावरकर के इस कथित “माफीकांड” पर अध्ययन करेंगे तो पाएंगे कि वीर सावरकर जब तक जिंदा थे, इस मुद्दे पर कभी चर्चा नहीं हुई। ये माफी वाली बात 90 के दशक में अचानक उठाई गई। ध्यान दीजिएगा, ये वो समय था जब हिंदुत्व और राष्ट्रवाद का प्रभाव तेजी से बढ़ना शुरू हुआ और इसी प्रभाव को रोकने के लिए वामपंथियों ने वीर सावरकर के माफीनामे को हथियार बना कर उन्हें बदनाम करने का षड्यंत्र रचा। अब वामपंथियों के इसी एजेंडा को आगे बढ़ाने का काम राहुल गांधी कर रहे हैं।
(प्रखर श्रीवास्तव दूरदर्शन के वरिष्ठ सलाहकार संपादक हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)
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