इमरान पर हमला किसी उत्तेजित सिरफिरे की कारिस्तानी नहीं, बल्कि एक व्यापक साजिश की ओर इशारा करती है। इमरान शायद इसे समझ रहे हैं। इसीलिए वे परिणामों से भली-भांति वाकिफ होते हुए भी सेना के विरुद्ध मोर्चा खोले हुए हैं
राजधानी इस्लामाबाद से लगभग 200 किलोमीटर दूर पंजाब प्रांत के गुजरांवाला जिले के वजीराबाद में पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री और तहरीक-ए-इंसाफ पार्टी के नेता, इमरान खान पर हमला हुआ है। हालांकि गुजरांवाला में आपराधिक मामलों का रिकॉर्ड अत्यंत ही खराब रहा है, पर एक पूर्व प्रधानमंत्री पर हमला, जिसकी सरकार सात माह पूर्व ही इस देश के सर्वशक्तिमान रक्षा प्रतिष्ठान का विश्वास खोने के बाद गिर चुकी है और जो तब से ही लगातार सेना और खुफिया एजेंसी आईएसआई के ‘हस्तक्षेप’ के खिलाफ इसलिए भी अभियान चला रहे हैं कि वह एक कठपुतली सरकार स्थापित करके लोकतंत्र को कमजोर करने का प्रयास कर रही है, मात्र कानून और व्यवस्था का प्रश्न नहीं हो सकता।
पूर्व पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान को कदाचार के मामले में, सार्वजनिक पद संभालने के अयोग्य घोषित कर दिया गया है और अगला निर्णय होने तक उनका राजनैतिक भविष्य अधर में लटका हुआ है। पाकिस्तान के चुनाव आयोग के एक फैसले के अनुसार खान पर अवैध रूप से राज्य के उपहार बेचा था।
अप्रैल में प्रधानमंत्री के रूप में अपने पद से हटने के बाद से, इमरान खान ने पाकिस्तान के सबसे शक्तिशाली संस्थान का नेतृत्व करने वाले प्रमुख जनरलों के खिलाफ जनसमर्थन जुटाने के लिए एक जोखिम भरा अभियान शुरू किया है। पद गंवाने के बाद से इमरान खान मौजूदा सरकार के लिए कांटे की तरह हैं। उन्होंने पाकिस्तान के अर्थव्यवस्था संकट, भारी मुद्रास्फीति और इस वर्ष देश के एक तिहाई हिस्से को जलमग्न कर देने वाली विनाशकारी बाढ़ से निपटने में असमर्थता के लिए सरकार और प्रशासन की आलोचना की है।
सामान्य नहीं है हमला
इस हमले का समय भी महत्वपूर्ण है। खान अपने समर्थकों के साथ एक विरोध मार्च में भाग ले रहे थे, जब एक बंदूकधारी ने पूर्व प्रधानमंत्री और उनके दल पर गोलियां चला दीं। खान के एक समर्थक की मौत हो गई, जबकि खान को कथित तौर पर पैर में तीन गोलियां लगी थीं। बंदूकधारी ने तर्क दिया कि उनका मानना है कि इमरान खान लोगों को गुमराह कर रहे थे और इसलिए उसने उनकी की हत्या करने की कोशिश की।
इमरान खान और उनके समर्थकों का मानना है कि मामला इतना सीधा नहीं, जितना बताया जा रहा है। खान ने आरोप लगाया कि प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ, गृह मंत्री राणा सनाउल्लाह और आईएसआई के शीर्ष अधिकारी मेजर जनरल फैसल नसीर, इस हमले की साजिश में शामिल हैं, और अब इस हमले के खिलाफ एफआईआर भी दर्ज नहीं की जा रही है।
इमरान खान ने अपनी पार्टी के नेता के माध्यम से एक संदेश जारी करते हुए कहा, ‘अगर तीनों को नहीं हटाया गया, तो परिणाम के लिए सरकार जिम्मेदार होगी’। इसके प्रत्युत्तर में आंतरिक मामलों के मंत्री राणा सनाउल्लाह ने साजिश के आरोपों को खारिज कर दिया और कहा, ‘हम इमरान खान को अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी के रूप में देखते हैं, दुश्मन के रूप में नहीं। यह इमरान खान हैं जो अपने राजनीतिक विरोधियों को दुश्मन के रूप में देखते हैं।’
इमरान खान की सुरक्षा व्यवस्था में कमजोरी के चलते हुआ यह हमला, इसमें व्यापक षड्यंत्र की तरफ इशारा करता है। पाकिस्तान में राजनैतिक नेतृत्व हत्या, हत्या के प्रयासों और निर्वासन के खतरों से हमेशा घिरा रहा है। देश के पहले ही प्रधानमंत्री लियाकत अली खान की हत्या से इस परंपरा की शुरूआत हुई और आगे जुल्फिकार अली भुट्टो और बेनजीर भुट्टो को इसी संघर्ष में अपनी जान गंवानी पड़ी। क्षेत्रीय स्तर पर देखा जाए तो ये आंकड़े अत्यंत भयोत्पादक हैं।
उपयोगिता खत्म
इमरान खान इस हमले में बच गए हैं पर उन पर खतरा बरकरार है। वे पिछले चुनावों में सेना के पसंदीदा रहे हैं। साथ ही कट्टरपंथी आतंकी संगठनों से उनकी नजदीकी का अंदाजा उनके विशेषण ‘तालिबान खान’ से ही हो जाता है। उनकी सेना से करीबी जुल्फिकार अली भुट्टो के काल की याद दिलाती है, कि किस तरह भुट्टो सेना की आंखों के तारे रहे और सेना ने 1970 के आम चुनावों के बाद खुद को भुट्टो और उनकी पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के प्रतिनिधि के रूप में अवामी लीग के खिलाफ खड़ा किया था, जिसका परिणाम पाकिस्तान के विभाजन और और नए देश बांग्लादेश के जन्म के रूप में देखा गया।
आजादी के पचहत्तरवें वर्ष में भी पाकिस्तान वास्तव में अपने ‘डीप स्टेट’ की गुलामी से मुक्त नहीं हो सका है, जिसने न केवल लोकतंत्र और नागरिकों के मूलभूत अधिकारों को प्रभावित कर रखा है बल्कि देश के मजहबी, सामाजिक सांस्कृतिक और आर्थिक परिदृश्य को अपने लाभ के लिए घातक मात्रा में पुनर्विन्यासित किया है
इस युद्ध और उसके परिणाम ने पाकिस्तान के मूल द्विराष्ट्र सिद्धांत की धज्जियां उड़ा दीं और अपने अधिष्ठान से च्युत होने के बाद पाकिस्तान एक नई नीति की ओर चल पड़ा और उनमें से एक था सेना का राजनीति पर अपना दबदबा स्थापित करने के लिए फिर से नई शक्ति और रणनीति से जुट पड़ना।
और इस नई रणनीति के तहत देश के नए नेता जुल्फिकार अली भुट्टो, जिन्हें सेना ने छद्म लोकतांत्रिक मुखौटे के रूप में प्रस्तुत किया था, ने सेना के साथ कदमताल करते हुए अहमदियों के साथ-साथ 1973 में बल और रोष के साथ बलूच राष्ट्रवादियों का दमन करने में सारी हदें पार कर दीं। और, जब जुल्फिकार अली भुट्टो अपनी महत्वाकांक्षाओं के चलते सेना के रास्ते में आने लगे तो अंत में सेना के हाथों जान से हाथ धोना पड़ा।
भुट्टो की तरह इमरान खान भी अब शायद सेना के लिए अपनी उपयोगिता खो चुके हैं और जिस तरह से सेना के विरुद्ध वह मोर्चा खोले हुए हैं, इसके संभावित परिणामों से वे स्वयं भी भली-भांति परिचित होंगे। साथ ही साथ यह हमला पाकिस्तान में लोकतंत्र की दुर्दशा का प्रमाण है कि यहां अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मात्र मुहावरे के रूप में ही अस्तित्व में है। आजादी के पचहत्तरवें वर्ष में भी पाकिस्तान वास्तव में अपने ‘डीप स्टेट’ की गुलामी से मुक्त नहीं हो सका है, जिसने न केवल लोकतंत्र और नागरिकों के मूलभूत अधिकारों को प्रभावित कर रखा है बल्कि देश के मजहबी, सामाजिक सांस्कृतिक और आर्थिक परिदृश्य को अपने लाभ के लिए घातक मात्रा में पुनर्विन्यासित किया है।
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