जलवायु परिवर्तन से संबद्ध वैश्विक चिंताओं पर संयुक्त राष्ट्र का वैश्विक सम्मेलन प्रारंभ। परंतु क्या अमीर देश जहरीली गैसों के उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार तेल एवं गैस कंपनियों पर शुल्क की मांग मानेंगे या दुनिया को तबाही से बचाने के लिए वैश्विक उत्सर्जन को क्रमश: कम करते हुए खत्म करने की व्यावहारिक योजना बन सकेगी
मिस्र के शर्म-अल-शेख में 6 नवंबर से शुरू हुए संयुक्त राष्ट्र के कॉन्फ्रेंस आफ द पार्टीज (कॉप27) सम्मेलन में जलवायु परिवर्तन से संबद्ध वैश्विक चिंताएं जुड़ी हैं। जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से लड़ने के लिए संयुक्त राष्ट्र का यह सबसे बड़ा सालाना कार्यक्रम है। इस खतरे का सामना करने में व्यावहारिक दुश्वारियां ज्यादा बड़ी चुनौती बनकर सामने आ रही हैं।
जहरीली गैसों का उत्सर्जन रोकने के लिए दुनिया को हर साल बीस खरब (दो ट्रिलियन) डॉलर खर्च करने होंगे। कौन उठाएगा इतना बड़ा खर्च? सम्मेलन में शामिल अधिकांश ने साफ कहा कि बातें बहुत हो चुकीं, अब कड़ी कार्रवाई का वक्त है। ग्रीन हाउस गैसों (कार्बन) के लिए जिम्मेदार बड़ी तेल एवं गैस कंपनियों पर शुल्क लगाने की मांग भी तेज हुई है। सवाल है कि क्या अमीर देश इस मांग को मान लेंगे। अभी तक का अनुभव है कि वे 100 अरब डॉलर सालाना के वादे को पूरा करके नहीं दे रहे।
सकारात्मक बात यह है कि ‘लॉस एंड डैमेज फंडिंग’ को वार्ता के एजेंडे में शामिल कर लिया गया है। जाहिर है कि क्लाइमेट-फाइनेंस और क्षति की भरपाई के लिए अमीर देशों पर दबाव बढ़ने लगा है, पर जितनी देर होगी, लागत उतनी बढ़ती जाएगी।
इस सम्मेलन का केंद्रीय विषय उत्सर्जन को कम करने और वैश्विक-सहयोग के रास्ते खोजना है, कॉप-25 और कॉप-26 में जिन मुद्दों पर सहमति नहीं बन पाई, उनके हल निकालने की कोशिश करना भी है। 2015 के पेरिस समझौते के तहत दुनिया के सभी देश पहली बार ग्लोबल वॉर्मिंग से निपटने और ग्रीनहाउस-गैस उत्सर्जन में कटौती पर सहमत हुए थे।
भारतीय पहल
सवाल है कि कैसे होगा यह काम? अमीर देशों की सहायता अभी मृगतृष्णा है, फिर भी आशा है कि 18 नवंबर को इस सम्मेलन के समापन के पहले कुछ सकारात्मक बातों पर सहमति हो जाएगी। सम्मेलन में भारत का प्रतिनिधित्व पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव कर रहे हैं।
भारत की दिलचस्पी वित्तीय साधनों और पारदर्शिता में है। भारत चाहता है कि जलवायु-वित्तपोषण की प्रणाली को मजबूत बनाया जाए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ग्लासगो में हुए कॉप-26 सम्मेलन में भारत की सरल जीवनशैली पर जोर देते हुए ‘लाइफ’ (लाइफ स्टाइल फॉर एनवायरनमेंट) का उल्लेख किया था। अब भारत दूसरे देशों को उससे जुड़ने के लिए आमंत्रित करेगा।
प्रधानमंत्री ने ग्लासगो में कहा था कि परंपरागत भारतीय समाज का सरल जीवन-दर्शन पर्यावरण-हितैषी है। विकसित देशों की विलासिता-पूर्ण जीवनशैली ने संसाधनों के अत्यधिक दोहन और बिजली के इस्तेमाल (जिससे कार्बन उत्सर्जन होता है) को बढ़ावा दिया है। भारत ने शर्म-अल-शेख सम्मेलन में सरल जीवनशैली को आधार बनाकर ही अपना मंडप (पैवेलियन) तैयार किया है।
चेतावनी-प्रणाली
संयुक्त राष्ट्र ने शर्म-अल-शेख में विनाशकारी प्राकृतिक आपदाओं के पूवार्नुमान की चेतावनी-प्रणाली बनाने की पंचवर्षीय योजना जारी की है। उद्घाटन समारोह में संरा महासचिव एंटोनियो गुटेरेश ने कहा कि इस चेतावनी प्रणाली पर लगभग 3.1 अरब डॉलर का खर्च आएगा। यह प्रणाली लाखों लोगों की जान बचा सकती है। गरीब देशों के पास ऐसी प्रणाली नहीं है। प्राकृतिक आपदाओं के कारण अफ्रीका, दक्षिण एशिया, दक्षिण व मध्य अमेरिका एवं छोटे द्वीपों के निवासियों के मरने की आशंका विकसित देशों के निवासियों से 15 गुना ज्यादा होती है।
पिछले साल संरा पर्यावरण कार्यक्रम की एक रिपोर्ट ने चेतावनी दी कि महामारी के कारण उत्सर्जन में अस्थायी गिरावट के बावजूद दुनिया 2100 तक औद्योगिक-पूर्व स्तर से कम से कम तीन डिग्री सेल्सियस ज्यादा गर्म होने की राह पर है। यह पेरिस समझौते में 1.5 डिग्री सेल्सियस की चेतावनी से दुगुना है। उस स्तर को बनाए रखने के लिए 2030 तक वैश्विक उत्सर्जन को 45 प्रतिशत कम करना होगा और 2050 तक नेट-जीरो।’
अप्रैल 2017 में, जलवायु परिवर्तन से जुड़ी एक संस्था-क्लाइमेट सेंट्रल के वैज्ञानिकों ने 1880 के बाद से वैश्विक-तापमान की मासिक-वृद्धि को दर्ज करते हुए एक पत्र जारी कर कहा, ‘628 महीनों में एक भी महीना ठंडा नहीं रहा है।’ जो दुनिया पिछले बारह हजार साल की मानव-सभ्यता से अप्रभावित चली आ रही थी, वह अचानक तबाही की ओर बढ़ चली है।
भारत की भूमिका
प्राकृतिक आपदाओं की पूर्व सूचना देने से लेकर ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोतों के विकास में भारत बढ़चढ़कर भागीदारी कर रहा है। साथ ही विकासशील देशों के हितों की रक्षा के लिए भी प्रयत्नशील है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले साल अक्तूबर में स्कॉटलैंड के ग्लासगो में हुए कॉप 26 में कहा था कि हम 2070 तक नेट-जीरो के लक्ष्य को प्राप्त कर लेंगे। इसके अलावा भारत, 2030 तक ऊर्जा की अपनी 50 प्रतिशत जरूरत अक्षय ऊर्जा से पूरी करेगा। उन्होंने इन्फ्रास्ट्रक्चर फॉर रेसिलिएंट आइलैंड स्टेट्स के बारे में भी बताया, जो छोटे द्वीप वाले देशों के जीवन और आजीविका दोनों को लाभ पहुंचाएगा।
पूर्व चेतावनी प्रणाली
मौसम संबंधी खतरों के लिए भारत पूर्व चेतावनी प्रणाली को मजबूत करने पर काम कर रहा है। इसके ठोस परिणाम सामने आए हैं। पिछले 15 वर्षों में चक्रवाती तूफानों से होने वाली मृत्यु दर में 90 प्रतिशत तक की कमी आई है। पूर्व और पश्चिम दोनों तटों पर, हमारे पास चक्रवाती तूफानों के लिए पूर्व चेतावनी प्रणालियों का लगभग 100 प्रतिशत कवरेज है। इसी तरह अन्य खतरों-जैसे कि लू के लिए हम तेजी से प्रगति कर रहे हैं।
भारत के पास वैब-डीसीआरए (डायनैमिक कम्पोजिट रिस्क एटलस) विकसित करने के लिए विस्तृत जानकारी है। भारतीय मौसम विभाग का चक्रवात चेतावनी प्रभाग (सीडब्ल्यूडी) हिंद महासागर के उत्तर में (विश्व के छह केंद्रों में से एक) बनने वाले उष्णकटिबंधीय चक्रवातों पर निगरानी, भविष्यवाणी और चेतावनी सेवाएं जारी करने के लिए एक बहुपक्षीय क्षेत्रीय विशिष्ट मौसम विज्ञान केंद्र के रूप में भी कार्य करता है। इससे बंगाल की खाड़ी और अरब सागर के देशों से आंकड़ों के आदान-प्रदान और बेहतर निगरानी व पूर्वानुमान में मदद मिली है।
जन-धन की रक्षा
उपग्रह और रडार के मौसम संबंधी डेटा, और उष्णकटिबंधीय चक्रवात परामर्श बुलेटिन के साथ आईएमडी के मॉडल मार्गदर्शन ने क्षति को कम करने में दूसरे देशों की मदद की है। पिछले 10 वर्षों के दौरान उष्णकटिबंधीय चक्रवात के कारण केवल 100 लोगों की जान गई। बंगाल की खाड़ी और अरब सागर क्षेत्र के उन सभी देशों को इसका लाभ मिला, जिन्हें चक्रवाती तूफान का पूर्वानुमान और सलाह भारत प्रदान करता है। भारत ने आपदा रोधी आधारभूत सुविधाओं (सीडीआरआई) का विकास किया है।
टिप्पणियाँ