विख्यात साहित्यकार, शिक्षाविद् और संस्कृतिकर्मी डॉ. देवेन्द्र दीपक ने समान नागरिक संहिता पर एक नए दृष्टिकोण से आलेख लिखा है, जिसे यहां प्रकाशित किया जा रहा है।
समानता की चाहत
- स्त्री और पुरुष का वेतन समान हो।
- बालक-बालिकाओं की शिक्षा सुविधाएँ समान हों।
- नगर निकायों की परिषदों में स्त्री-पुरुषों की संख्या समान हो।
- किसी भी मुआवज़ेे के भुगतान में स्त्री और पुरुष की राशि समान हो।
लोकतंत्र का पहला पाठ
- संविधान के सामने सब समान।
- लिंग के आधार पर कोई भेद नहीं।
- मत—पंथ के आधार पर कोई भेद नहीं।
- जाति के आधार पर कोई भेद नहीं।
- भाषा के आधार पर कोई भेद नहीं।
कैफियत
- संवैधानिक पदों के निर्वाचन में मत के आधार पर कोई भेद नहीं।
- प्रशासनिक पदों के चयन में पंथ के आधारा पर कोई भेद नहीं।
- सुरक्षा सेवाओं के चयन में मत के आधार पर कोई भेद नहीं।
- आयकर की दरें सभी मत—पंथ के नागरिकों के लिए समान।
- उभोक्ता संरक्षण सभी मत—पंथ के नागरिकों के लिए समान।
- बैंक की ब्याज दरें सबके लिए समान।
- शासकीय अनुदान सबके लिए समान।
- रेलवे के किराए में सभी मत—पंथ के नागरिकों के लिए समान छूट।
- सभी मत—पंथ के नागरिकों के लिए वोट की महत्ता एक समान।
- स्वास्थ्य सेवाएं सभी मत—पंथ के नागरिकों के लिए एक समान।
समान नागरिक संहिता
समानता का घोड़ा एक जगह आकर रुक जाता है और वह बिन्दु है समान नागरिक संहिता- कभी दो कदम, तो कभी चार कदम पीछे। जब से भारत स्वतंत्र हुआ, संविधान निर्माण के समय से आज तक समान नागरिक संहिता का घोड़ा उसी स्थान पर खड़ा है। पूरा देश एक है। हम सब एक जन हैं। हमारे संविधान का प्रारम्भिक पद है ‘हम भारत के लोग।’ सबके लिए एक जैसी दण्ड व्यवस्था, तो समान नागरिक संहिता क्यों एक नहीं। संविधान का “हम ” बहुत व्यापक है। सभी भारत के लोग बिना किसी भेद के इस ‘हम” में शामिल हैं।
यदि ऐसा है तो
- पंथनिरपेक्षता का तकाजा है कि सभी मत—पंथ के नागरिकों की समान संहिता हो। ऐसे में सभी पंथनिरपेक्ष शक्तियों को मुक्त कंठ से समान नागरिक संहिता का समर्थन करना चाहिए।
- हम रोज सुनते हैं- सर्व धर्म सम्भाव! सर्व धर्म सम्भाव में विश्वास रखने वाले तत्व, जो भी हों, कहीं भी हों, ऐसे सभी तत्व समान नागरिक संहिता के पक्ष में खड़े हों, यही उनकी सोच-समझ का प्रमाण होगा।
- समाजवाद का लक्ष्य है समतावादी समाज की रचना। इस समाज रचना में मजहब के आधार पर भेद क्यों। सभी समाजवादी और वामपंथी शक्तियों को समान नागरिक संहिता के समर्थन में आगे आना चाहिए।
- गांधीवादी दर्शन का लक्ष्य है सर्वोदय। सभी नागरिकों का उत्थान और विकास। बात-बात में गांधी के नाम पर राजनीति करने वाले लोग यदि समान नागरिक संहिता के पक्ष में खड़े नहीं होते तो यह उनका पाखण्ड है।
- लैंगिक समानता हमारी सोच-समझ का एक नया दायरा है। इस विषय को लेकर अनेक स्तरों पर नित्य चर्चा होती है। न्याय के क्षेत्र में भी यह एक विचारणीय विषय है। लैंगिक समानता का प्रश्न केवल स्त्री-पुरुष के बीच की समानता का ही विषय नहीं है, अन्त:धार्मिकता भी उसमें शमिल है। हिन्दू ही नहीं, मुस्लिम समाज के लिए भी लैंगिक समानता दिखनी चाहिए। इन सारी शकियों को भारत की सभी महिलाओं को सामने रखकर समान नागरिक संहिता के लिए आगे आना चाहिए।
- नारी मुक्ति और नारी सशक्तिकरण,नारी-विमर्श आज के साहित्य और समाज की चर्चाओं के मुख्य विषय हैं। यह एक स्वतंत्र विषय है। और समान नागरिक संहिता नारी मुक्ति और नारी सशक्तिकरण से पृथक कहां है? नारी मुक्ति आंदोलन से जुड़ी संस्थाओं और संगठनों को खुलकर समान नागरिक संहिता की वकालत में पहली पंक्ति में खड़ा होना चाहिए।
- दलित-विमर्श और दलितों का विकास हमारी सामाजिक चिंताओं का एक प्रमुख पक्ष है। बाबा साहब आंबेडकर ने सब दलितों के विकास और उनके अधिकारों की चर्चा की, तब अनुसूचित जातियों-जनजातियों के साथ भारतीय नारी भी उनकी चिंता और चिन्तन में शमिल थी। और इसमें भी उन्होंने हिन्दू ही नहीं, मुस्लिम महिलाओं की दयनीय स्थिति पर भी विचार किया। अतः दलित-विकास के क्षेत्र में कार्यरत सभी समूहों को समान नागरिक संहिता के पक्ष में खड़ा होना चाहिए। ऐसा करके वे बाबा साहब के शोषण मुक्त भारत के सपने को पूरा करने में सहायक होंगे।
प्रश्न केवल वैचारिक सच्चाई और ईमानदारी का है। यदि हम ईमानदार पंथनिरपेक्ष हैं, ईमानदारी से सर्वधर्म सम्भाव में विश्वास रखते हैं, यदि हम ईमानदार समाजवादी और वामपंथी हैं, यदि हम सच्चे अर्थों में गांधीवादी हैं, यदि हम लैंगिक समानता के ईमानदार प्रवक्ता हैं, यदि नारी-मुक्ति के प्रति हम ईमानदार हैं, यदि हमारा दलित-विमर्श केवल दलित जातियों तक सीमित नहीं है तो सबको समान नागरिक संहिता के लिए निर्विकल्प संकल्प के साथ आगे बढ़ना चाहिए।
आज आप सबकी ईमानदारी कसौटी पर है। समाज आपको देख रहा है, सुन रहा है- वह आपकी वैचारिक ईमादारी को प्रत्यक्ष देखना चाहता है। हम जानते हैं कि समान नागरिक संहिता के मार्ग में अनेक कठिनाइयां हैं। इसके लिए जरूरी है कि नागरिक संहिता के ब्यौरे को लेकर व्यापक चर्चा हो। इस चर्चा में न्यायविदों के साथ समाजशास्त्री, शिक्षाशास्त्री मनोविज्ञानी भी शामिल हों। सरकार जो प्रारूप तैयार करे, उसे संसद में लाने से पहले उसे सार्वजानिक करे। ऐसा करने से सभी पक्षों को अपना पक्ष रखने का अवसर मिलेगा। याद रखिए सह चिंतन से ही अच्छे परिणाम मिलते हैं!
टिप्पणियाँ