कर्णावती में पाञ्चजन्य द्वारा आयोजित साबरमती संवाद में पूज्य श्री रमेश भाई ओझा जी ने कहा कि शासन व्यवस्था में, राजनीति में, यदि धर्म न रहा तो राजनीति सिवा कूड़ा-करकट के कुछ नहीं रह जाएगी और जिस दिन धर्म में राजनीति घुसी, धर्म नहीं बच पाएगा। उन्होंने राष्ट्र के चिंतन, राष्ट्र की अगली पीढ़ी को दी जा रही शिक्षा को अत्यंत महत्वपूर्ण बताया। सत्र का संचालन पाञ्चजन्य के संपादक हितेश शंकर ने किया
पूज्य भाई श्री ने कहा कि विचार से विश्व बनता है। अत: समाज और राष्ट्र में किस प्रकार का चिंतन चल रहा है, ये बड़ा ही महत्वपूर्ण है। उस राष्ट्र, समाज के बच्चों को किस प्रकार की शिक्षा दी जाती है, उन्हें क्या सिखाया जाता है, यह अत्यंत महत्वपूर्ण है।
आक्रमणकारी अपने बलबूते पर या सामने वाले की कमजोरी के चलते विजयी बन जाएं, उनके ऊपर राज भले करें, परंतु उनके दिलोदिमाग पर तब तक राज नहीं कर सकते, जब तक कि उनकी पूरी शिक्षा प्रणाली को अपने कब्जे में ना कर लें। हूण आए, मुगल आए, लेकिन जब अंग्रेज आए तो उन्होंने शिक्षा प्रणाली पर कब्जा किया और इसने बहुत नुकसान पहुंचाया।
परिणाम यह कि हम आजाद तो हो गए, हमने आजादी का अमृत महोत्सव भी मनाया परन्तु कहीं ना कहीं, वो मानसिक गुलामी हमारे भीतर से नहीं गई। कई लोग तो ये भी कहते हैं कि अंग्रेजों ने बहुत गुड गवर्नेंस दिया। उन्हें चाहिए था मिडिल मैनेजमेंट। इसलिए हिंदुस्थान में शिक्षा प्रणाली ही इस तरह की लागू की गई, जिससे पढ़ने वालों में यस बॉस मानसिकता कायम हो जाए। केवल उनका श्रेष्ठ है, यही नहीं, तुम्हारे पास जो है, वो निकृष्ट है – ये भी एक पूर्वाग्रह हमारे लोगों के मन में बिठा दिया गया। विचार बदल गया और भारत का पूरा परिवेश बदल गया। कोई यदि कहे कि श्रीमद्भागवत में केवल मोक्ष संबंधी चर्चा ही है, तो वे लोग भागवत जी के साथ अन्याय कर रहे हैं। मोक्ष परिणाम है। किसका? पहले वाले तीन पुरुषार्थ-धर्म, अर्थ और काम का संपादन आपने सही ढंग से किया है तो मोक्ष तो होना ही है।
‘धर्मात् अर्थश्च कामश्च स किमर्थं न सेव्यते।’ धर्मपूर्वक संपादित किया हुआ अर्थ, धर्मपूर्वक संपादित किया हुआ काम पुरुषार्थ अंत में, अर्थ और धर्म, दोनों के प्रति आपके मन में विरक्ति पैदा करेगा ही। और, तब एक समय आएगा कि आप कहेंगे, संन्यस्तं मया। संन्यास का अर्थ होता है त्याग। ये धर्म है। हम धार्मिक कर्मकांडों की बात नहीं कर रहे हैं। उच्च न्यायालय ने भी कहा, हिंदुत्व जीवन जीने का मार्ग है।
भागवत जी के तीन मूल संदेश
आज के युवाओं को सारांश चाहिए। तो कहा कि आपको केवल तीन वाक्यों में ही भागवत जी का संदेश देना है। तो भागवत जी के तीन ही संदेश हैं। पहला, मनुष्य का व्यवहार इस पृथ्वी के अन्य सभी मनुष्यों के साथ कैसा होना चाहिए, दूसरा मनुष्यों का व्यवहार मनुष्येतर जीव सृष्टि के साथ कैसा होना चाहिए और तीसरा, मनुष्य का व्यवहार प्रकृति के साथ कैसा होना चाहिए।
हमारे ऋषि-मुनियों ने पर्वतों की पूजा कराई, नदियों को माता मानते हैं। हम लोग पीपल, बरगद, तुलसी की पूजा करते हैं। यहां तक कि साल में तीन दिन लोग नदियों में स्नान करते हैं और भीगे हुए वस्त्र से, नदियों से पात्र में पानी भरकर किनारे लगे बरगद, पीपल, अन्यान्य वृक्ष, दर्भ, दुर्बा, यहां तक कि बबूल, सबको पानी पिलाते हैं। मान्यता क्या है? उससे पितरों को तृप्ति मिलती है। किस तरह से हमारे ऋषि-मुनियों ने बड़ी ही कलात्मक रीति से पर्यावरण से हमारा संबंध स्थापित किया है।
तो, ये तीन ही मूल संदेश हैं। यही धर्म है। सेकुलर और सोशलिस्ट, ये दोनों शब्द तो श्रीमती इंदिरा गांधी के समय में संविधान की प्रस्तावना में बाद में डाले गए। ये सेकुलर क्या है? क्या सेकुलरिज्म का अर्थ हम ये करें कि धर्म रहित शासन व्यवस्था? आजकल यही हो रहा है। और इस अर्थ ने ना केवल राष्ट्र का नुकसान किया है, बल्कि राष्ट्र की जनता के आपसी सद्भाव को भी बहुत नुकसान पहुंचाया है। पंथ निरपेक्ष भले ही हो शासन व्यवस्था, धर्मनिरपेक्ष नहीं होनी चाहिए। धर्म शब्द हमारे यहां रिलीजन या मजहब के अर्थ में नहीं है।
इस संदर्भ में मैं श्रीमद्भागवत की एक कथा प्रस्तुत करना चाहूंगा। मैंने कहा कि भागवत का तात्पर्य केवल मोक्ष से नहीं है, मोक्ष तो परिणाम है। तो अर्थव्यवस्था, समाज व्यवस्था, शासन व्यवस्था कैसी होनी चाहिए आदि-आदि, सभी बातों की चर्चा आपको श्रीमद्भागवत में मिलेगी।
श्रीमद्भागवत का पृथु चरित्र अत्यंत महत्वपूर्ण है। चौबीस अवतारों में हम पृथु को भगवान का अवतार मानते हैं। अब इस अवतार की पूर्व भूमिका क्या है, ये समझना बहुत जरूरी है। हकीकत ये है कि इतिहास पुराणानि पंचमो वेद उच्यते, ये कहा गया। पुराणों का भी अपना महत्व है। इतिहास पुराणाभ्यां वेदं समुपबृंहयेत। महाभारत, रामायण ये इतिहास ग्रंथ हैं और पुराण, उन के माध्यम से वेदों का तात्पर्य क्या है, ये समझिए।
ये सेकुलर क्या है? क्या सेकुलरिज्म का अर्थ हम धर्म रहित शासन व्यवस्था है? आजकल तो यही हो रहा है। और इस अर्थ ने ना केवल राष्ट्र का नुकसान किया है, बल्कि राष्ट्र की जनता के आपसी सद्भाव को भी बहुत नुकसान पहुंचाया है। पंथ निरपेक्ष भले ही हो शासन व्यवस्था, धर्मनिरपेक्ष नहीं होनी चाहिए।
तो थोड़ी पूर्व भूमिका देखें भगवान पृथु के अवतार के पहले की। यदि कोई राक्षस या समग्र विश्व को नुकसान पहुंचाने वाला शासक पैदा होता है तो अचानक नहीं होता। वो प्रक्रिया कई सालों से चल रही होती है और तब जाकर एक बार अचानक दुनिया के सामने वो हकीकत आ जाती है।
अंग नाम के एक राजा हुए हैं। बड़े सज्जन थे, भगवद्भक्त थे। एक बार राजा अंग यज्ञ कर रहे थे। अब यज्ञ केवल अग्नि में होम करना नहीं है। यज्ञ को हमारे शास्त्रों ने जिस तरह से परिभाषित किया है, वह बहुत दिलचस्प है। कृष्ण कहते हैं यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धन:। तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसङ्ग: समाचर॥ हम सबका जीवन यज्ञमय होना चाहिए।
व्यवसाय की दृष्टि से आप जो बिजनेस करते हैं, उसमें आप प्रोपराइटर हो सकते हैं। जहां तक जिंदगी का सवाल है, कोई प्रोपराइटर नहीं है। सबका काम पार्टनरशिप में चल रहा है। हम जिन सुविधाओं का उपयोग करते हैं, उसमें किसी और की भूमिका है। हम भी उनमें एक हैं। इसलिए हम जो कुछ पाते हैं, उम्मीद की जाती है कि वह हमारे आस-पास के लोगों के बीच वितरित होना चाहिए। इसलिए, यज्ञ केवल अग्नि होम नहीं है। यह संपत्ति का विकेंद्रीकरण है। जो पाओ, सभी के साथ बांटों, क्योंकि आपकी जेब में हर रुपया किसी दूसरे की जेब से आया है। यदि समाज ना होता, आप व्यवसाय करते कैसे? कमाते क्या?
इंसान को यदि बिना ईश्वर के जीवन चलाना है, चल जाएगा। भगवान को भी कोई समस्या नहीं है। लेकिन इंसान का काम बिना इंसान के नहीं चलेगा। कई रिलीजन हैं, जिसमें ईश्वर की कोई अवधारणा ही नहीं है। लेकिन इंसान को सबसे अधिक जरूरत है इंसान की। और, इसलिए इंसान का व्यवहार इंसानों के साथ, इंसान का व्यवहार मानवेतर जीव सृष्टि के साथ, इंसान का व्यवहार प्रकृति के साथ कैसा होना चाहिए, ये बात सिखाने के लिए ये लम्बी-चौड़ी, अठारह हजार श्लोकों में भागवत की कथा है। इसलिए मैं इसे एक धार्मिक कार्य के रूप में नहीं करता हूं, यह मेरे लिए लोकशिक्षण का एक माध्यम है। हम जो देखते, सुनते हैं, उससे हमारा मन बनता है। इसीलिए वेद कहते हैं-
भद्रं कर्णेभि: शृणुयाम देवा:।
भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्रा:।
‘धर्मनिरपेक्ष’ राज्य की गति
तो अंग राजा यज्ञ कर रहे थे। राजा का यज्ञ क्या है? राष्ट्र का विकास राजा का यज्ञ है। राजा के पांच यज्ञ है, ये शास्त्रोक्त बात है। पंचयज्ञ राजा को नित्य करने चाहिए। राजा अंग के यज्ञ में ब्राह्मणों ने देवताओं को बुलाया। अब देवता यानी स्वर्ग में रहने वाले। यह सीमित अर्थ नहीं है। दिव्यति इति देव:।। जो प्रकाशमान हो रहे हैं, जिनकी एक प्रसिद्धि है, जिनका कुछ योगदान है राष्ट्र के लिए, जिनको सरकार भी पद्मश्री, पद्मभूषण, पद्मविभूषण इत्यादि से पूजती है।
इंसान को यदि बिना ईश्वर के जीवन चलाना है, काम चल जाएगा। लेकिन इंसान का काम बिना इंसान के नहीं चलेगा। इसलिए इंसान का व्यवहार इंसानों के साथ, इंसान का व्यवहार, मानवेतर जीव सृष्टि के साथ, इंसान का व्यवहार प्रकृति के साथ कैसा होना चाहिए, ये बात सिखाने के लिए ये लम्बी-चौड़ी, अठारह हजार श्लोकों में भागवत की कथा है।
लेकिन बुलाने पर भी देवता नहीं आए। राजा अंग चिंतित हुए। ब्राह्मणों से पूछा कि मेरे भाव में तो कोई कमी नहीं है? तो ब्राह्मणों ने कहा कि महाराज! आप के कोई संतान नहीं है। इस परंपरा को आगे कौन बढ़ाएगा? कल को ये जब नहीं रहेगा, तो ये कौन करेगा। इसलिए पहले पुत्र प्राप्ति का यज्ञ करो। तो राजा ने पुत्र प्राप्ति का यज्ञ किया। इससे पुत्र हुआ जिसका नाम था वैन। वैन बचपन से बहुत दुष्ट था। इसने यज्ञादि बंद करा दिए। बेटे से दुखी राजा अंग सब कुछ छोड़ कर वन चले गए।
अब राष्ट्र बिना राजा के, बिना मुखिया के नहीं रहना चाहिए। वैन दुष्ट था, फिर भी ऋषियों ने मिलकर उसे राजगद्दी पर बिठाया। उसने कानून-व्यवस्था इतनी बढ़िया से कायम की कि कहीं कोई चोरी नहीं होती थी। अपराध चाहे छोटा हो या बड़ा, वैन ने पूरी दंड संहिता बदल दी। एक ही दंड- मृत्युदंड। और, इतनी सख्ती से उसने मृत्युदंड देना शुरू किया कि चोर, लफंगे, उचक्के सब डर गए। वैन की कानून-व्यवस्था इतनी बढ़िया चली कि लोग सराहना करने लगे। लोगों की स्वतंत्रता गई लेकिन काम बढ़िया है, जैसे कुछ लोग आपातकाल का बाद में बखान करते थे। फिर आगे चल कर वैन ने कहा, मैं अपने राज्य को धर्मनिरपेक्ष राज्य घोषित करता हूं। मेरे देश में कोई धर्म नहीं होगा। यदि कोई भगवान है तो राजा ही भगवान है। जिसके लिए देवताओं ने राजा अंग से जबरन पुत्रकामेष्टि यज्ञ करवाया था, उसी ने यज्ञ बंद करा दिए। याद रहे यज्ञ यानी परमार्थ के लिए जीना।
हम जो कुछ पाते हैं, उम्मीद की जाती है कि वह हमारे आस-पास के लोगों के बीच वितरित होना चाहिए। इसलिए, यज्ञ केवल अग्नि होम नहीं है। यह संपत्ति का विकेंद्रीकरण है। जो पाओ, सभी के साथ बांटों क्योंकि आपकी जेब में हर रुपया किसी दूसरे की जेब से आया है। यदि समाज ना होता, आप व्यवसाय करते कैसे?
तो प्रजा फिर दुखी होने लगी। ऋषि-मुनि आए तो लोगों ने उनकी भी आलोचना की कि इन्होंने ही इसे सत्ता में बिठाया। कहते हैं ऋषि-मुनियों ने वैन को समझाया कि धर्म ऐसी चीज है जिसको कानून से न तो लागू किया जा सकता है, न ही धर्माचरण करने से लोगों को रोका जा सकता है। संक्षेप में, धर्म स्वीकार करने की चीज है, लादने की नहीं।
परंतु राजा वैन ने ऋषियों की बात नही मानी। तो ऋषियों ने हुंकार किया, वैन समाप्त। ये हुंकार क्या है? प्रजा की अस्मिता को, प्रजा की शक्ति को जागृत किया और जब वो शक्ति जागृत होती है तो कोई कितना ही बड़ा तानाशाह क्यों ना हो, वो खत्म होता है। वैसे लिखा यह है कि वैन मर गया और वैन के शव को वैन की माता सुनीथा ने तेल की नौका में सुरक्षित रखा। ऐसे लोग सत्ता से जैसे ही बेदखल कर दिए जाते हैं, ये उनकी मृत्यु ही है। तब कहीं ना कहीं, मां के स्नेह, तेल मतलब स्नेह ने सुरक्षित रखा।
राज्य फिर बिना राजा का हो गया। फिर से चोर-लफंगे उपद्रव करने लगे। फिर जनता कहने लगी, कैसा भी था, लेकिन वैन के राज्य में कानून-व्यवस्था तो ठीक थी। फिर से ऋषिमुनि आते हैं। वैन के शव को तेल की नौका से बाहर निकाला जाता है। वैन के शव का मंथन किया जाता है। उसमें वैन के दोष निकल जाते हैं। फिर ऋषियों ने वैन की दाहिनी भुजा का मंथन किया। दाहिनी क्यों? क्योंकि दक्षिणपंथी सरकार चाहिए थी, सेकुलर नहीं। धर्म रहित शासन व्यवस्था नहीं। एक ऐसी शासन व्यवस्था जो पंथनिरपेक्ष निश्चित रूप से हो, लेकिन धर्मनिरपेक्ष ना हो। शासन व्यवस्था में, राजनीति में, यदि धर्म ना रहा तो राजनीति सिवा कूड़ा-करकट के कुछ नहीं रह जाएगी और जिस दिन धर्म में राजनीति घुसी, धर्म नहीं बच पाएगा।
अत: ऋषियों की बताई मर्यादा को सुनिश्चित करना पड़ेगा। हमारी इस वाली शिक्षा प्रणाली को अंग्रेजों द्वारा आघात पहुंचाया गया। उस नुकसान से आजादी के अमृत महोत्सव को हम मना रहे हैं। फिर भी हम पूरे उबर नहीं पा रहे हैं। हमारे आदरणीय प्रधानमंत्री जी नई शिक्षा नीति लागू करने की तैयारी में हैं। हम उम्मीद करते हैं कि भारत को भारत बनाने वाली, भारतीयों को भारतीय होने का गौरव जगाने वाली और भारतीयों की विश्वबंधुत्व की भावना से ना केवल भारतीयों को बल्कि पूरे विश्व को परिचित करने वाली ये शिक्षा प्रणाली फिर से आए और वसुधैवकुटुम्बकम की भावना चरितार्थ करे और इस अर्थ में भारत को पुन: विश्वगुरु बनाए।
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