बांके बिहारी के मंदिर में 56 प्रकार के व्यंजन सजा कर, भक्तजन गीत गाते हैं, आओ भोग लगाओ मेरे श्याम जी…। अब किसने देखा कि बालगोपाल ने क्या खाया! अपने कन्हैया को द्वारिका, पुरी, और इंफाल में भी इसी तरह का भोग लगता है।
आपने रात को सोते समय अपनी दादी, नानी या मां से कहानियां जरूर सुनी होंगी। उन्होंने कभी बताया होगा, अपने गणेश जी को लड्डू बहुत पसंद थे। आपको भी ध्यान आया होगा कि गणेशोत्सव पर लालबाग के राजा को कितने ही तरह के मोदक भेंट में चढ़ते हैं। लेकिन क्या आपने कभी लंबोदर को लड्डू खाते देखा?
आपने देखा होगा कि बांके बिहारी के मंदिर में 56 प्रकार के व्यंजन सजा कर, भक्तजन गीत गाते हैं, आओ भोग लगाओ मेरे श्याम जी…। अब किसने देखा कि बालगोपाल ने क्या खाया! अपने कन्हैया को द्वारिका, पुरी, और इंफाल में भी इसी तरह का भोग लगता है। लेकिन कभी किसी ने उन्हें नौवेद्य का सेवन करते नहीं देखा होगा। राजस्थान में सालासर बालाजी को भी चूरमा खाते नहीं देखा होगा, न ही खाटू श्याम जी में। लेकिन सभी ने उपभोग में संयम सिखाया व त्याग की शिक्षा भी दी। इन सबने खाद्य सुरक्षा के साथ समाज की पोषण सुरक्षा का भी ध्यान रखा।
इन सबके पीछे का ‘क्यों’ उतना ही महत्वपूर्ण होता था। उस जिज्ञासा का समाधान रोचक तरीके से करने के लिए कहानी-किस्से, किवदंतियां, लोकगीत आदि, ताकि आने वाली पीढ़ियों को यह ज्ञान सहजता से मिलता रहे। लेकिन उन सबसे भी महत्वपूर्ण, मंदिरों, गुरुद्वारों में प्रसाद की परंपरा।
समृद्ध संस्कृति, प्राचीन परंपरा
राजस्थान सूखा प्रदेश है। वहां फल-सब्जी से ज्यादा पोषण दूध-घी के माध्यम से होता है। चूरमा-बाटी घी के माध्यम से पोषण प्रदान करती हैं। दूध के उत्पाद सारे समाज को उपलब्ध रहें, इसलिए लोक देवता गोगा जी को प्रसाद दूध के उत्पादों के माध्यम से चढ़ता है। समृद्ध घरों में मनों दूध होता है। गोगा जी के मेले के दौरान किसी घर में घी के लिए दूध जमाया नहीं जाता। जिनके नहीं होता, गोगा जी को भेंट कर आसपास बांट दिया जाता है। यही परंपरा गुजरात के द्वारिका में निभाई जाती है।
… ताकि नई पीढ़ी संरक्षण सीखे
भारत के मंदिरों में भगवान को चढ़ाए जाने वाले भोग
भारत के मंदिरों में भगवान को चढ़ाए जाने वाले भोग के पीछे एक ही उद्देश्य है- समाज का पोषण। इसमें खाद्य सुरक्षा के साथ-साथ समाज की पोषण सुरक्षा का भी ध्यान रखा जाता है
जगन्नाथ पुरी के महाप्रसाद में बनने वाले 56 भोग दो तरह के होते हैं- शंकुड़ी (गीला) महाप्रसाद और सुखीला (सूखा) महाप्रसाद। शंकुड़ी में खिचड़ी, शाक-भाजी, सब्जियां, घी-चावल, मीठी दाल व अन्य व्यंजन होते हैं, जबकि सूखे पकवान सुखीला कहलाते हैं। संक्षेप में यह भोग संतुलित आहार होते हैं, जिसमें काबोर्हाइड्रेट, प्रोटीन और खनिज मौजूद होते हैं।
पश्चिम बंगाल में दुर्गा पूजा और काली पूजा के अवसर पर माता को बासमती चावल का पुलाव जिसमें काजू-किशमिश होते हैं या मूंग खिचड़ी, कई सब्जियों की कढ़ी, बैंगन, कद्दू आदि की सब्जियां, चटनी और मिठाइयां शामिल होती हैं। भोग में मसाले का प्रयोग बहुत कम होता है, फिर भी ये बहुत स्वादिष्ट होते हैं। ये कार्बोहाइड्रेट और खनिज से भरपूर होते हैं।
आंध्र प्रदेश के प्रसिद्ध तिरुपति बालाजी मंदिर में चढ़ाया जाने वाले लड्डू को श्री वारि लड्डू कहा जाता है। भगवान वेंकटेश्वर को लड्डू चढ़ाने की प्रथा 1715 से चली आ रही है। बेसन, घी, काजू, किशमिश, मक्खन और इलायची से बना लड्डू कई दिनों तक खराब नहीं होता। एक लड्डू 174 ग्राम का होता है।
वृंदावन में बांके बिहारी को जो पहला भोग लगता है, उसे बाल भोग कहा जाता है। इसमें भगवान को कचौड़ी, आलू की सब्जी और बेसन के लड्डू का भोग लगता है। इसके अलावा, श्रद्धालु भगवान को कुल्हड़ में मक्खन-मिस्री भी प्रसाद के रूप में चढ़ाते हैं। मक्खन गाय के दूध का बना होता है।
केरल के शबरीमला मंदिर में भगवान अयप्पा को चढ़ाया जाने वाला प्रसादम् अप्पम और अरावण पायसम कहलाता है। दोनों केरल के प्रसिद्ध व्यंजन हैं। अप्पम कच्चे चावल, सूखे खमीर, नारियल के दूध और चीनी का बना होता है, जबकि अरावण पायसम खीर होती है, जिसमें चावल, गुड़ और नारियल का प्रयोग होता है।
जम्मू में कटरा स्थित माता वैष्णो देवी मंदिर में तो प्रसाद जूट के दो थैले में मिलता है। एक थैले में मुरमुरे, सूखे सेब, सूखा नारियल, इलायची के बीज, जबकि दूसरे थैले में मिस्री, विशेष प्रकार के सिक्के होते हैं, जिन पर देवी-देवता अंकित होते हैं।
दक्षिण के मंदिरों में जाएं तो कहीं मुरुगन को चावल और नारियल का पुट्टू चढ़ते देखा जा सकता है। और तिरुपति के बालाजी के सामने चढ़े लड्डू की महिमा तो पूरे जगत में प्रसिद्ध है। माता वैष्णो देवी के दरबार के बाहर कंजकें ही नहीं, बल्कि आम श्रद्धालु भी चना-पूरी-हलवा का प्रसाद पाने के लिए आतुर रहते हैं। अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में रोजाना हजारों की संगत लंगर छकते देखी जा सकती है।
कड़ाह प्रसाद पाने के लिए कितने ही धनी से धनी लोग रोजाना देशभर के गुरुद्वारों में हाथ फैलाए दिखते हैं। जगन्नाथ पुरी के महाप्रसाद की गाथा तो दुनियाभर में निराली है। जगन्नाथ जी को दिन में पांच बार भोग लगता है, इसलिए नहीं कि उन्हें बार-बार भूख लगती है, बल्कि इसलिए कि सुबह से देर रात तक उनके द्वार आया कोई भक्त भूखा न जाए। उन्हें भोग लगा प्रसाद सभी भक्तों को मिल जाए। जो आए, तृप्त होकर जाए। आनंद के साथ भोजन के सभी रस प्राप्त करे। ओडिशा कोई बहुत धनी लोगों का प्रांत नहीं है, लेकिन समृद्ध है वहां की संस्कृति, वहां की परंपराएं। ये परंपराएं इतने सारे आयामों को लिये होती थीं कि आज का आधुनिक ज्ञान-विज्ञान उनकी कल्पना भी नहीं कर सकता।
पांच भोग की महत्ता
भोजन सामग्री की शुद्धता, उसकी विविधता, सभी पांच भोग में कोई भी अक्षत सालभर में दोहराया न जाए, उसके माध्यम से उस क्षेत्र की जैव विविधता, उसकी आपूर्ति। आपूर्ति के माध्यम से आसपास के क्षेत्र की अर्थव्यवस्था। भोजन पकाने की विधि और उसके लिए प्रयोग होने वाले बर्तनों की विशिष्टता। इनके माध्यम से क्षेत्र का स्वरोजगार। र्इंधन की उपलब्धता के लिए पूरे क्षेत्र में हरियाली बनी रहे, पेड़ों की कटाई का अनुशासन बना रहे, नए पेड़ लगाने की व्यवस्था बनी रहे।
सभी मंदिरों में भोजन पकाने का दायित्व आमतौर पर पारिवारिक होता है, जो पीढ़ी दर पीढ़ी चलता है। बारह साल की उम्र से ही बच्चा अपनी शिक्षा के अलावा खाली समय में पाकशाला में पिता का हाथ बंटाने जाता है। वह उसके प्रशिक्षण का हिस्सा होता है। जगन्नाथ जी की पाकशाला में जाकर देखिए, घनघोर तापमान में उन्हें मेहनत करने का जो प्रशिक्षण मिलता है, वह किसी कौशल विकास की कक्षा में नहीं मिल सकता। साफ-सफाई की व्यवस्था ऐसे ही प्रसाद बनाते वक्त आदत में बदल जाती है।
पंजाब में लंगर या दक्षिण भारत के अनेक मंदिरों के अन्नक्षेत्र का मुख्य उद्देश्य श्रद्धालुओं को पेटभर भोजन उपलब्ध कराना ही होता था। लेकिन कड़ाह प्रसाद और लड्डू भोजन के पूरक के रूप में भेंट किए जाते रहे। इसके साथ ही एक और उद्देश्य भी रहा कि उस काल में जब तीर्थ यात्री दूर-दूर से दर्शन के लिए आते थे, तब न तो आने-जाने के बहुत से साधन थे, न ही हाइवे वाले ढाबे। ऐसे में वापसी यात्रा के लिए जो गठरी बंधती थी, उसे पत्तल, पल्ला, शिदोरी, वगैरह कहा जाता था। लंबे समय तक खराब न होने वाला ऊजार्दायक भोजन ही प्रसाद बन गया।
हर प्रांत में, हरेक अराध्य की पसंद अलग है। लेकिन इन सबके पीछे सूत्र एकसार है। सबके लिए भोजन, और उससे भी अधिक महत्वपूर्ण, पोषण। किसी भी पंथ में पूजा-अर्चना की थाली देखिए – पोषण से भरपूर मिलेगी। पांच फल रखने की परंपरा तो आपने भी निभाई होगी। पूजा के अंत में ये फल आमतौर पर पंडित को भेंट कर दिए जाते हैं। बचपन में हम सब टकटकी लगाए देखते थे कि इसमें से हमें भी कुछ मिलेगा। बाद में प्रसाद के रूप में सभी को कुछ न कुछ मिल ही जाता है। यही तो पोषण है। कश्मीर, हिमाचल को छोड़ दें तो ऐन एप्पल ए डे, कीप्स द डॉक्टर अवे’ की कहावत बेमानी थी। स्थानीय फल ही थाली की शोभा बढ़ाते थे।
प्रसाद यानी भोजन का पूरक
मतलब प्रसाद हो तो स्थानीय, मौसमी, जलवायु के अनुकूल यानी आबोहवा से सरोकार रखने वाला। डीएनए से मेल खाता हुआ। कई मामलों में यह प्रसाद आम भोजन का पूरक होता है। यानी जिन पोषक तत्वों की शरीर को जरूरत होती है और वे आमतौर पर उपलब्ध नहीं होते, तो उन्हें प्रसाद के तौर पर ग्रहण किया जा सकता है।
पंजाब में लंगर या दक्षिण भारत के अनेक मंदिरों के अन्नक्षेत्र का मुख्य उद्देश्य श्रद्धालुओं को पेटभर भोजन उपलब्ध कराना ही होता था। लेकिन कड़ाह प्रसाद और लड्डू भोजन के पूरक के रूप में भेंट किए जाते रहे। इसके साथ ही एक और उद्देश्य भी रहा कि उस काल में जब तीर्थ यात्री दूर-दूर से दर्शन के लिए आते थे, तब न तो आने-जाने के बहुत से साधन थे, न ही हाइवे वाले ढाबे। ऐसे में वापसी यात्रा के लिए जो गठरी बंधती थी, उसे पत्तल, पल्ला, शिदोरी, वगैरह कहा जाता था। लंबे समय तक खराब न होने वाला ऊजार्दायक भोजन ही प्रसाद बन गया।
लेकिन आमतौर पर यह प्रसाद उस क्षेत्र विशेष की भोजन संबंधी रुचि और आदतों का प्रतिनिधित्व करता है या उन्हें प्रभावित करता है। अधिकांश शाकाहारी भोजन व व्यंजन आसपास के किसी पूजास्थल से ही प्रभावित होते हैं। ब्रज में बांके बिहारी मंदिर में प्रसाद वाली कचौड़ी कब वहां का नियमित नाश्ता बन गई, ध्यान भी नहीं होगा।
इसी तरह द्वारिका का कढ़ी-फाफड़ा भी गुजरात का नियमित नाश्ता बन गया। कोल्हापुर में महालक्ष्मी मंदिर में मिलने वाली थाली पीठ पूरे महाराष्ट्र में पोषण का पर्याय बन गई। और राजस्थान के मंदिरों में चढ़ने वाला चूरमा प्रसाद देशभर में राजस्थानी व्यंजनों की शान बन गया।
पौष्टिकता से भरपूर भोग
राजस्थान की मरुभूमि में काठा (मरुभूमि में उपजा हुआ) गेहूं बहुत कम होता है, लेकिन यह खाने में स्वादिष्ट होने के साथ-साथ पौष्टिक भी होता है। इसे यहां प्रसाद स्वरूप ही खाया जाता था। इसकी मीठी लापसी को देशी गाय के घी के साथ कासी के कचोले में डालकर भोग लगाया जाता है। सेढ़ल माता की पूजा के लिए बनने वाला प्रसाद बच्चों में बांटा जाता है। गुड़-गेहूं आटा एवं घी या तेल से बने पांच सेर गुलगुलों से माता को भोग लगाया जाता है-
करूं कढ़ाई गुलगुला सेढल माता धोकन जाय।
इब म्हारी सेढल माता राज्जी होय।
दादी दायला फूल्या नहीं समाय।
अपने देश के मंदिर, गुरुद्वारों, और बहुत से अन्य पूजास्थलों में प्रसाद आदि के वितरण की एक बहुत समृद्ध परंपरा अनंतकाल से चली आ रही है। ये परंपराएं अब हमारी संस्कृति का अनन्य हिस्सा बन चुकी हैं। कभी अकाल पड़ा हो, बाढ़ आ जाए, कोई भी प्राकृतिक विपदा रही हो या हाल का कोरोना संकट हो, ये पूजास्थल लोगों के पेट भरने का स्वाभाविक स्थान रहे हैं। लेकिन ये सब तो असाधारण परिस्थितियों की बात है।
ऐसा कैसे हो पाया, उनके पीछे की परंपराओं को खोजना होगा… किताबों में नहीं, शायद, दिमाग में भी नहीं। बस, मन में, दिल में, स्वभाव में। अध्यात्म से अधिक तो इनके पीछे समाज नाम का विराट पुरुष खड़ा था। अर्थतंत्र को चलाने वाली समाज की अपनी व्यवस्थाएं थीं। स्थानीय संसाधनों, स्थानीय हुनर, पाक कला, जैव विविधता, स्वाद, मान्यताएं, रीति रिवाज, तीज-त्यौहार, इन सबको समेटने वाली मंदिरों की पाकशालाएं रहीं।
(लेखक दीनदयाल शोध संस्थान के महासचिव हैं।)
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