जनसंख्या असंतुलन: सरसंघचालक जी द्वारा जनसंख्या असंतुलन का विषय उठाना अत्यंत सामयिक है। यह राष्ट्रीय सुरक्षा के साथ जुड़ा मसला तो है ही, इसमें अवैध घुसपैठ की बात भी निहित है। भारत के लिए यह विषय इसलिए भी महत्व का है क्योंकि इसमें उन्माद से उपजे अतीत के सबक और उनसे उत्पन्न पीड़ा को इंगित करने का प्रयास भी है।
विजयादशमी के अवसर पर सरसंघचालक जी ने अपने विशद् उद्बोधन में देश की दशा और दिशा तय करने वाले विभिन्न विषयों को उठाया। उनके इस उद्बोधन ने तमाम अटकलों की धुंध छांट दी है। वास्तव में सरसंघचालक जी का उद्बोधन यह बताता है कि समाज के रूप में भारत की साझा चिंताएं क्या हैं और आगे की राह हमें कैसे तय करनी है।
जनसंख्या असंतुलन: सरसंघचालक जी द्वारा जनसंख्या असंतुलन का विषय उठाना अत्यंत सामयिक है। यह राष्ट्रीय सुरक्षा के साथ जुड़ा मसला तो है ही, इसमें अवैध घुसपैठ की बात भी निहित है। भारत के लिए यह विषय इसलिए भी महत्व का है क्योंकि इसमें उन्माद से उपजे अतीत के सबक और उनसे उत्पन्न पीड़ा को इंगित करने का प्रयास भी है। जनसंख्या असंतुलन एक ऐसा विषय है जिससे राष्ट्रीय सुरक्षा को और विविधता को संजोने वाली संस्कृति, दोनों को खतरा होता है। उन्होंने उसी दिशा में इशारा किया है।
जनसंख्या का संतुलन दो कसौटियों पर होना चाहिए। एक तो संस्कृति जिस विविधता का पालना बनी हुई है, वह संस्कृति बनी रहे। अगर वह बहुलता कमजोर पड़ती है, तो सहिष्णुता का आधार भी धसकने लगेगा। दूसरे, जनसंख्या यानी मानव संसाधन, यह राष्ट्रीय विकास का वाहन बना रहे। युवा पीढ़ी विकास को गति एवं उछाल दे सकती है, परंतु यह गति केवल एक पीढ़ी तक न रहे बल्कि सतत बनी रहे। विकास को टिकाऊ बनाने के लिए कार्यशील जनसंख्या और अन्य संसाधन का अनुकूलतम उपयोग, यह सन्तुलन बनाए रखना आवश्यक है। इस दृष्टि से भारत को राष्ट्रीय जनसंख्या नीति बनानी होगी। सीमांत क्षेत्रों में में घुसपैठ भी जनसंख्या असन्तुलन का बड़ा कारण है। यह रुकना चाहिए। इससे एक तो सीमाएं असुरक्षित नहीं होंगी, दूसरे, देश में सृजित रोजगार देश के नागरिकों के लिए संरक्षित होंगे।
भय का कारण नहीं: संघ से मुस्लिम समुदाय को भयभीत नहीं होना चाहिए-यह बात संघचालक जी ने कही है। यहां देखने वाली बात है कि कुछ लोग संघ के बारे में भ्रम और मुसलमानों में भय फैलाने में जुटे हैं। भ्रम और भय फैलाने के लिए कट्टरवाद के प्रसार का एक पूरा तंत्र है। उनके अपने-अपने हित हैं। विदेशी पैसे के बूते भारत विखंडन की चालें बिछाने में सिद्धहस्त कई एनजीओ, आंदोलनजीवी हैं, जो राष्ट्रीय चिंताओं की राह में रोड़े अटकाने का काम करते हैं। विकास में पर्यावरण को आड़े लाते हैं। सामाजिक वैमनस्य के मुद्दों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आड़ में बढ़ाते हैं। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की छवि खराब करने वाले छोटे से छोटे मुद्दे पर तिल का ताड़ बनाते हैं। भारत की उन्नति न हो, इसके लिए एजेंडाधारी आंदोलनजीवी और विदेशी पैसे से पोषित अलगाववादी और उग्रवादी एक तन्त्र के रूप में काम करते हैं।
नए भारत की विकास यात्रा इसी सांस्कृतिक आवधारणा के बूते लिखी जाएगी कि पुरुष और स्त्री में कोई अंतर नहीं है। समाज के तौर पर हमें यह अच्छे से आत्मसात करने और जो लोग मिथ्यारोपण करते हैं, उनके तर्कों का निर्मूलन करने की आवश्यकता है। भारत के लिए महिला-पुरुष समानता जीवनशैली का विषय है, सुविधानुसार की जाने वाली नारेबाजी का नहीं।
ये सारे लोग राष्ट्रीय चिंताओं को मजहबी खांचे में कसकर दिखाते हैं और एक वर्ग में भय भरते हैं। इस उद्बोधन ने इस भय के निस्तारण और राष्ट्रीय चिंताओं को वास्तविक परिप्रेक्ष्य में सामने रखने का काम किया है। संघ से डरने की कोई जरूरत नहीं है। हमारी संस्कृति साझी है, हमारी पुरखे साझे हैं तो एक-दूसरे से भयभीत होने का कारण क्या है? समाज को वर्गों में बांटकर मोहरे की तरह हमें इस्तेमाल किया जाए, एक-दूसरे से लड़ाया जाए-क्या हम इसे सहन कर सकते हैं? या विशेषकर पिछले एक दशक में जो देश की तस्वीर बदलनी शुरू हुई है, उसमें विकास यात्रा के सहयात्री और साक्षी हो सकते हैं? यह उद्बोधन इसी दिशा में है और इसका स्वागत होना चाहिए।
महिला-पुरुष समानता: दूसरा महत्वपूर्ण विषय लैंगिक समानता का है।
भारतीय समाज में महिलाओं की जो स्थिति और संकल्पना है, उसे कुछ लोग अन्य देशों या अन्य मान्यताओं की तरह बांधने की कोशिश करते हैं, जो इस देश की संस्कृति के अनुरूप नहीं है, या उन मान्यताओं को हम पर आरोपित करने की कोशिश यह कह कर करते हैं कि यहां महिलाओं को बराबर का दर्जा नहीं है – ऐसे में सरसंघचालक जी का उद्बोधन विशेष रूप से महत्वपूर्ण है। उन्होंने कहा कि हमें पूरे समाज का संगठन करना है। हमारे समाज में महिला, पुरुष दोनों हैं। एकांगी विकास हो ही नहीं सकता और खासकर भारत में महिलाओं के बिना विकास की बात हम सोच ही नहीं सकते। इस समारोह में विश्वविख्यात पर्वतारोही संतोष यादव जी की उपस्थिति इसे रेखांकित भी करती है कि संघ इस विषय पर कितना गंभीर, संवेदनशील है।
हमारे यहां नीति निर्माताओं में, प्रशासन में, वैज्ञानिकों में, खेलों में, खेतों में महिलाएं हैं। हमारे भारत की उन्नति का आधार, हमारी मातृशक्ति है और हम इसे कभी नकारते नहीं, ये हमारे लिए गौरव की बात है। बाकी दुनिया के मुकाबले भारत की शक्ति ज्यादा इसीलिए है क्योंकि हम महिलाओं को कभी निचले पायदान पर नहीं रखते। लेकिन इस दिशा में हमें और आगे बढ़कर ऐसी स्थिति तक पहुंचना है, जिसमें समाज के किसी नागरिक की पहचान में किसी तरह का विभेद ही न रहे-यह संकल्प सरसंघचालक जी के उद्बोधन में यह विषय रखे जाने से स्वत: ही रेखांकित हो जाता है।
महिला-पुरुष समानता के प्रति भारत की दृष्टि का परिचय इसी से मिल जाता है कि भारत ने स्वतंत्र होने के तत्काल बाद महिलाओं को मताधिकार दिया। परंतु पश्चिमी जगत के देशों कनाडा और जर्मनी ने अपनी स्वतंत्रता के करीब 5 दशक बाद महिला मताधिकार दिया तो 1776 में स्वतंत्र हुए अमेरिका ने 1920 में महिला मताधिकार दिया। विभिन्न देशों पर राज करने वाले ब्रिटेन ने तो इसके भी बाद 1928 में महिला मताधिकार दिया। यह स्वयं को प्रगतिशील बताने वाले पश्चिम की स्थिति है। इस्लामी जगत में तो महिलाओं की स्थिति और भी पिछड़ी है, इस सत्य को कोई नकार नहीं सकता।
नए भारत की विकास यात्रा इसी सांस्कृतिक आवधारणा के बूते लिखी जाएगी कि पुरुष और स्त्री में कोई अंतर नहीं है। समाज के तौर पर हमें यह अच्छे से आत्मसात करने और जो लोग मिथ्यारोपण करते हैं, उनके तर्कों का निर्मूलन करने की आवश्यकता है। भारत के लिए महिला-पुरुष समानता जीवनशैली का विषय है, सुविधानुसार की जाने वाली नारेबाजी का नहीं।
@hiteshshankar
टिप्पणियाँ