अखिलेश्वरी ही शक्ति
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अखिलेश्वरी ही शक्ति

‘लोक परंपरा में शक्ति की अवधारणा’ सत्र को संबोधित करते हुए प्रसिद्ध नृत्यांगना सोनल मानसिंह ने कहा कि अर्द्धनारीश्वर को केवल शिव के स्वरूप में माना जाता है, यह गलत व्याख्या है, क्योंकि वह शिव जिनका अर्द्ध रूप नर है और अर्द्ध रूप नारी यानी शक्ति

by WEB DESK
Oct 7, 2022, 12:15 pm IST
in भारत, विश्लेषण, मत अभिमत, संस्कृति, दिल्ली
सत्र के दौरान एक अतिथि को सम्मानित करतीं सोनल मानसिंह। साथ में मनोज श्रीवास्तव, महामंडलेश्वर पवित्रानन्द गिरिजी एवं अन्य अतिथि

सत्र के दौरान एक अतिथि को सम्मानित करतीं सोनल मानसिंह। साथ में मनोज श्रीवास्तव, महामंडलेश्वर पवित्रानन्द गिरिजी एवं अन्य अतिथि

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हमारी संस्कृति  मूल रूप से जमीन से जुड़ी है, यह किसी आकाशीय घटना की उपज नहीं है, जनजातीय जीवन इसकी भावभूमि भी है और आधारशिला भी। एक समय उपरांत इन जनजातीय परम्पराओं का शुद्धिकरण होता गया जिसे बाद में ब्राह्मणीकरण कहा गया है।

लोकमंथन मेें ‘लोक परंपरा में शक्ति की अवधारणा’ सत्र को संबोधित करते हुए प्रसिद्ध नृत्यांगना सोनल मानसिंह ने कहा कि अर्द्धनारीश्वर को केवल शिव के स्वरूप में माना जाता है, यह गलत व्याख्या है, क्योंकि वह शिव जिनका अर्द्ध रूप नर है और अर्द्ध रूप नारी यानी शक्ति। यह बराबरी यानी समानता ही हमारे सनातन का वैशिष्ट्य है। शक्ति की जब बात होती है तो हमें समाज की विविध धाराओं में शक्ति की अवधारणाएं नजर आती हैं, लेकिन मूल रूप से यह सभी अलग-अलग प्रस्थान बिंदु से निकलकर एक स्थान पर आकर अन्तरसमाहित हो जाती हैं।

प्राकृत परम्परा में जो वास्तविक है वही बोला जाता है। इसे लोक ने अपने-अपने स्वभाव में ढाला है। हमारी संस्कृति  मूल रूप से जमीन से जुड़ी है, यह किसी आकाशीय घटना की उपज नहीं है, जनजातीय जीवन इसकी भावभूमि भी है और आधारशिला भी। एक समय उपरांत इन जनजातीय परम्पराओं का शुद्धिकरण होता गया जिसे बाद में ब्राह्मणीकरण कहा गया है। महिषासुर वध की जो कहानी आज हमारे लोकजीवन में प्रचलित है वह गुजरात की बागरी जनजाति के मध्य भी एक अलग दृष्टि और मान्यता के साथ हजारों साल से चली आ रही है।

सत्र
लोक परंपरा में शक्ति की अवधारणा

गरबा मूल रूप से शक्ति और चेतना की उपासना का मंगल पर्व है। इसे मूल अर्थ के साथ आत्मसात करने की आवश्यकता है। गरबा का असली शब्द गर्भ है। बालक प्रसूति से पूर्व मां के गर्व से ही संसार मे आता है। मिट्टी के छेदयुक्त घड़े में एक दीप्त दीपक रखकर उसके चारों तरफ  चक्र में गरबा नृत्य किया जाता है। सचाई यह है कि हमारा शरीर भी एक मिट्टी का घड़ा ही है और चेतना के रूप में एक दीप उसके साथ सार्थकता के लिए संयुक्त रहता है। गरबा ताली और डांडिया से खेला जाता है। ताली महज एक क्रिया नहीं है, बल्कि यह एक गूढ़ संदेश देने वाली प्रक्रिया भी है। शास्त्रों में कहा गया है कि पूजा के समय  ताली से विघ्न का नाश होता है। यह वातावरण को शुद्ध करती है। वस्तुत ताली मर्यादा सिखाती है। इसलिए गरबा एक आध्यात्कि प्रक्रिया है, यह कोई मनोरंजन का माध्यम नहीं है।

इस सत्र को संबोधित करते हुए मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्य सचिव मनोज श्रीवास्तव ने कहा कि शक्ति समानता के उस उच्चतम बोध तक ले जाती है जिसकी कल्पना तक दूसरी सभ्यताओं में नहीं हुई। लोक शब्द का भारतीय संदर्भ केवल देशज का प्रतिनिधित्व ही नहीं करता है, अपितु यह वैश्विक प्रतिनिधित्व भी सुनिश्चित करता है। शक्ति की व्याप्ति लोक में भी है और सकल विश्व में भी। शक्ति तीनों लोक की अखिलेश्वरी हैं। वह जब प्रकट होती हैं तो अपनी प्रभा से तीनों लोकों को प्रकाशित कर देती हैं। जब वह महिषासुर मर्दनी होती हैं, तो भी इसी लोक को याद करती हैं। जब वह शुंभ-निशुंभ को पराजित करती हैं तो देवता उनकी प्रार्थना करते हैं। इस तरह उनकी लोकव्याप्ति चहुंओर है। जब वह अवतार लेती हैं तो किसी वैश्विक संकट के समय ही लेती हैं। जब लोक पर संकट आता है, जब कोई वैश्विक त्रासदी खड़ी होती है तब वह प्रकट होती हैं।

महिषासुर के सताए हुए देवता जब शक्ति की शरण मे जाते हैं तब वे कहते हैं, ‘‘सूर्य, चंद्र, वरुण, अग्नि, वायु, इंद्र समेत हम सभी देवताओं के अधिकार महिषासुर ने छीन लिए हैं।’’ यही बात शुंभ-निशुंभ के समय भी आती है। इसका मतलब यह है कि कहीं कोई अधिनायकवादी है जिसके विरुद्ध शक्ति को सक्रिय होना पड़ता है। जब यह स्थिति निर्मित होती है तब लोक शब्द के दोनों तात्पर्य भारतीय एवं वैश्विक में शक्ति का प्रकटीकरण सुनिश्चित होता है। शक्ति एकाधिकार और अधिनायकवाद के विरुद्ध लोक की विविधता और बहुलता को सुस्थापित करने का काम करती हैं। शक्ति जब एकाधिकार से संघर्ष करती है तो ब्राह्मणी, रुद्राणी, नसिंगी, अम्बिका, काली, वाराही वैष्णवी, शिवदूती के रूप वस्तुत: लोक विविधता का सामूहिकीकरण ही होता है। आज जो आसुरी शक्तियां संसार के संसाधनों पर एकाधिकार करती जा रही हैं उनके विरुद्ध देशजता का वैविध्य सक्रिय होना अवश्यंभावी है।

महामंडलेश्वर पवित्रान्द गिरि जी ने कहा कि सनातनी बनने के साथ ही हमें एक प्रामाणिक पहचान हासिल हुई है। मुगल काल से किन्नर समाज को इस्लाम की ओर उन्मुख होने पर विवश किया गया, जबकि मूल रूप से भारतीय लोक परम्परा में किन्नर सनातन के साथ समानान्तर रूप से अवस्थित है। शास्त्रों से लेकर लोककथाओं में इनका जिक्र है। भगवान राम ने किन्नरों की उनके प्रति आस्था को देखकर ही कलयुग में किन्नरों के स्वर्णिम दौर का आशीर्वाद दिया था। मुगलों ने अपने हरम में महिलाओं की सुरक्षा के लिए किन्नरों का उपयोग किया। सत्ता और भय ने भारतीय लोक परम्परा की इस धारा को परिस्थितिवश इस्लाम के साथ बहने के लिए विवश कर दिया।

नतीजतन देश के अधिकांश किन्नर इस्लामी व्यवहार और जीवनचर्या से जुड़ गए। आज इतिहास का यह पृष्ठ बदल गया है। लोक परम्परा उस मूल बिंदु पर पुन: सुस्थापित हो रही है जो सनातन की भावधारा के साथ थी। इतिहास बदलता है और अतीत की भूलों को वक्त का पहिया दुरुस्त भी करता है। भारत में मुगलिया अत्याचार से पीड़ित किन्नर समाज को सरकार-संत-और समाज आत्मीयता के साथ अपना रहा है। 2014 में पहली बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किन्नर समाज को उसकी स्वाभाविक और नैसर्गिक पहचान को विधिक रूप से अधिमान्यता देने का काम किया। प्रधानमंत्री जी को शायद इसका अहसास न हो कि उनके इस कदम ने किन्नर बिरादरी के लिए कितना बड़ा काम कर दिया है। यह एक युगांतरकारी निर्णय था।

वस्तुत: यह शाश्वत सनातन की विधिक रूप में भी पुनर्स्थापना जैसा है, क्योंकि 2014 से पूर्व भारत मे भी दो ही लिंग थे लेकिन आज तीसरी पहचान हमें मिली है। उन्होंने कहा कि एक ओर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हमें सम्मानपूर्वक नागरिक जीवन का अधिकार प्रदान किया, तो दूसरी तरफ जूना अखाड़े ने हमें सनातन संस्कृति में उस मूल स्थान पर प्रतिष्ठित किया है जिसका यह समाज स्वाभाविक हकदार रहा है। पिछले उज्जैन सिंहस्थ में हमें विधिवत किन्नर अखाड़े के निर्माण का प्रस्ताव मिला और यह केवल सनातन संस्कृति में ही संभव था। आज अखाड़ा परंपरा में हम भी एक अखाड़े का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। हमें सनातन ने मानो पुन: आत्मसात कर जीवन को नई दिशा दे दी है। शास्त्र और लोककथाओं में उल्लेखित वास्तविक भूमिका आज हम समाज में महसूस करने लगे हैं। मानवीय सभ्यता और संस्कृति के चिर इतिहास में सनातन सरीखी मानवीयता और उदारता अन्यत्र संभव नहीं है।

2014 के बाद विधिक एवं धार्मिक अधिमान्यता की नवीन परिस्थितियों ने समाज की मानसिकता में भी बड़ा बदलाव लाने का काम किया है। अब किन्नर अखाड़े में लोग उसी मनोभाव के साथ आ रहे हैं जैसा अन्य अखाड़ों एवं उनके महंत, महामंडलेश्वर के पास जाते हैं। किन्नर समाज में भी इस पारस्परिक परिवर्तन को स्पष्टतया देखा जा सकता है। वे भी हमारी सनातन लोक परंपराओं को गंभीरता से समझ रहे हैं। भारतीय ज्ञान परंपरा के साथ खुद को संयुक्त कर रहे हैं।

अखाड़ा परंपरा की शुरुआत बहुत ही सुखद रही, क्योंकि उज्जैन में पहली ही बैठक में करीब 5,000 किन्नरों ने अपनी उपस्थिति दी थी। जाहिर है यह समाज भी अपनी जड़ों से जुड़ना और उसके संपोषण में भरोसा रखता है। इतिहास का क्रम उलट रहा है और तथ्य यह कि किन्नर समाज को लेकर प्रभु राम ने जो घोषणा रावण विजय के बाद अयोध्या आगमन पर की थी वह साकार हो रही है।

Topics: हमारी संस्कृति
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