कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष के चुनाव के संदर्भ में जयपुर से उठी चिन्गारी से बहुत से सवाल उठते हैं। पार्टी में संवादहीनता, मजबूत निर्णयों का अभाव, स्थितियों का आकलन न कर पाना, बचकाने तौर-तरीके, फलत: लगातार वरिष्ठ नेताओं का पलायन बताता है कि हाईकमान का रसूख घटता जा रहा है।
कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष के चुनाव की प्रक्रिया अभी ठीक से शुरू भी नहीं हुई है कि पार्टी के अंतर्विरोध उभर आए हैं। कहना मुश्किल है कि चुनाव में क्या होगा। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक अशोक गहलोत ने अध्यक्ष पद के चुनाव से अपने कदम खींच लिये हैं और कहा है कि मुख्यमंत्री पद पर मैं रहूं या नहीं, इसका फैसला सोनिया गांधी करें। संभवत: दिग्विजय सिंह अब अध्यक्ष पद के लिए ऐसे उम्मीदवार होंगे, जिन्हें हाईकमान का आशीर्वाद प्राप्त होगा। अटकलें मुकुल वासनिक और कमलनाथ जैसे नामों की भी हैं।
इस चुनाव का सबसे महत्वपूर्ण पहलू है ‘हाईकमान से आशीर्वाद प्राप्त प्रत्याशी’ का होना। अब दूसरे सवाल हैं। सबसे बड़ा सवाल कि क्या वास्तव में कोई हाईकमान है? पिछले कुछ वर्षों के घटनाक्रम से यह बात रेखांकित हो रही है कि वस्तुत: पार्टी में कोई धुरी नहीं है। है भी तो कमजोर है। अगला सवाल कि पार्टी में अध्यक्ष की भूमिका क्या होगी, कितनी उसकी चलेगी और कितनी परिवार की? और अध्यक्ष के रहते क्या कोई हाईकमान भी होगी? गैर-गांधी अध्यक्ष खुद कब तक चलेगा? हो सकता है कि इन सभी सवालों पर पार्टी के भीतर गहराई से विचार किया गया हो, पर राजस्थान से अकस्मात उठी चिंगारी से लगता है कि होमवर्क में कमी है। जयपुर-विवाद हालांकि ठंडा पड़ता नजर आ रहा है, पर कहना मुश्किल है कि यह पूरी तरह ठंडा पड़ जाएगा।
ऐसा नहीं कि हाईकमान को नेतृत्व से जुड़े टकराव की जानकारी नहीं रही होगी। पर जिस तरह से उसे निपटाने का प्रयास किया गया, उससे शंकाएं जन्म लेती हैं। कुछ ऐसा ही मामला छत्तीसगढ़ का है, जहां ‘ढाई-ढाई साल’ मुख्यमंत्री बनने का फॉर्मूला लागू नहीं हुआ, जिससे टीएस सिंहदेव नाराज हैं। राज्य में अगले साल विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। पार्टी की दीर्घकालीन तार्किक परिणति से जुड़े सवाल अलग से हैं।
नए अध्यक्ष की मुसीबतें
पार्टी के शिखर पर परिवार का वर्चस्व रहने के बावजूद संकट खड़े होते रहे हैं, तब नए अध्यक्ष से कैसे उम्मीद करें कि वह इन मसलों के हल कर पाएगा? तमाम विवाद बिखरे पड़े हैं, जिन्हें निपटाने की जिम्मेदारी उसके सिर पर होगी। एक बात स्पष्ट है कि अशोक गहलोत अनिच्छा से अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ने के लिए तैयार हुए थे। इसकी वजह यह थी कि उन्हें लगा था कि राजस्थान से हटाने और सचिन पायलट को लाने की यह प्रक्रिया है।
हालांकि हाईकमान ने चुनाव में निष्पक्ष रहने की घोषणा की है, पर सब जानते थे कि अशोक गहलोत हाईकमान के कहने पर चुनाव लड़ने को तैयार हुए थे। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक कोई नामांकन नहीं हुआ था, पर शशि थरूर और दिग्विजय सिंह का मुकाबला होता नजर आ रहा है। लगता यह भी है कि थरूर हाईकमान की इच्छा के प्रत्याशी नहीं हैं। दिग्विजय सिंह भी अकस्मात दिल्ली नहीं आए हैं, शायद बुलाए गए हैं।
जयपुर की चिंगारी
राजस्थान में लगी आग से दो बातें स्पष्ट हैं। एक, गांधी परिवार का रसूख कम हो रहा है और दूसरे पार्टी के भीतर संवादहीनता है। नेतृत्व ने गहलोत और पायलट से अलग-अलग वायदे कर लिये और ज्यादा दूर तक सोचा नहीं। शायद एक तीर से दो निशाने लगाने का इरादा था। पर तीर ने उलट-वार कर दिया। 25 सितंबर को हाईकमान के निर्देश पर कांग्रेस विधानमंडल दल की बैठक बुलाई गई थी, ताकि नए मुख्यमंत्री के नाम पर ठप्पा लग जाए।
वह बैठक तो नहीं हुई, उल्टे गहलोत समर्थकों ने बागी तेवर अपना लिए। आधिकारिक बैठक नहीं हो पाई, बल्कि विधायकों ने एक और बैठक की। पार्टी के 90 विधायकों ने इस्तीफा लिख दिया। गहलोत-खेमे का कहना है कि सीएम का नाम तय करने के लिए कांग्रेस विधायक दल की बैठक बुलाने का फैसला चौंकाने वाला था। गहलोत ने अध्यक्ष पद के लिए अपना नामांकन पत्र दाखिल भी नहीं किया था। उसके पहले ही नए मुख्यमंत्री का नाम तय करने की जल्दी क्यों?
गहलोत बनाम हाईकमान
इस घटना के बाद मसला अशोक गहलोत बनाम सचिन पायलट का नहीं रह गया, बल्कि हाईकमान बनाम गहलोत बन गया। मामले को सुलझाने के लिए दिल्ली से अजय माकन और मल्लिकार्जुन खड़गे भेजे गए थे। गहलोत गुट ने अजय माकन के मार्फत हाईकमान के सामने तीन शर्तें रख दीं। पहली, गहलोत गुट से ही सीएम बने। दूसरी- सीएम तब घोषित हो, जब अध्यक्ष का चुनाव हो जाए। तीसरी- नया मुख्यमंत्री गहलोत की पसंद का हो।
अजय माकन ने सोनिया गांधी को इस प्रसंग से जुड़ी रिपोर्ट सौंपी है, जिसमें रविवार की बैठक को अनुशासनहीनता माना गया है और कुछ नेताओं को दोषी। गहलोत-खेमा मानता है कि अजय माकन का झुकाव सचिन पायलट की तरफ है। ऐसा इसलिए भी होगा, क्योंकि राहुल गांधी सचिन के पक्ष में नजर आते हैं। पर हाईकमान को अशोक गहलोत के कद और अनुभव का अंदाज भी है। उनके मुख्यमंत्री पद पर जारी रहने का मतलब है कि सचिन पायलट के लिए अभी रास्ता खुला नहीं है। यदि सचिन को मुख्यमंत्री बनाने पर जोर दिया जाएगा, तो गहलोत जैसे नेता को हाशिए पर डालने का जोखिम उठाना होगा।
गहलोत का नाम लेने से नेतृत्व बच रहा है, पर नाराजगी तो गहलोत से ही थी। गतिरोध का हल निकल भी जाएगा, पर पार्टी का आंतरिक आलोड़न-विलोड़न कम होने वाला नहीं है। गहलोत का वर्चस्व बना रहे या पायलट को मुख्यमंत्री बना दिया जाए, नेतृत्व के रसूख में आ रही कमी को रोकना अब और मुश्किल होगा। बचकाना तौर-तरीकों से वोटर के बीच संदेश गलत जा रहा है। पार्टी से वरिष्ठ नेताओं का लगातार पलायन हो रहा है। नया नेतृत्व कहीं दिखाई नहीं पड़ रहा है। समस्याओं के हल देने वाला और मजबूत फैसले करने वाला नेतृत्व नजर नहीं आ रहा है।
बातें इशारों में
जयपुर में जो हुआ, उसका पूवार्नुमान शायद शीर्ष नेतृत्व को नहीं था। अशोक गहलोत जिस बात को पहले इशारों में कह रहे थे, उसे उन्होंने उस दिन राजनीतिक भाषा में जता दिया। वे राजस्थान छोड़ना नहीं चाहते हैं। छोड़ेंगे भी तो मुख्यमंत्री के रूप में पायलट को बर्दाश्त नहीं करेंगे। उन्होंने इशारा किया था कि कांग्रेस का अध्यक्ष चुने जाने तक वे राज्य का मुख्यमंत्री बने रहना चाहते हैं। लेकिन कांग्रेस नेतृत्व उनके इशारे समझ न सका।
इस बीच राहुल गांधी ने सार्वजनिक रूप से कहा कि कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव में उदयपुर में किया गया ‘एक व्यक्ति, एक पद’ का संकल्प लागू किया जाएगा। यह गहलोत के लिए इशारा था, जो उनके कद के नेता के लिए शर्मिंदगी भरा था। ऐसे नेता को नसीहत जिसे पार्टी अध्यक्ष बनाया जा रहा है। खबरें यह भी थीं कि सचिन पायलट ने विधायकों को फोन किए हैं कि विधायक दल के नेता के रूप में उनके नाम पर मोहर लगेगी। यानी साफ था कि परिवार ने सचिन पायलट को सिग्नल दे दिया।
आ बैल मुझे मार…
राजस्थान के संकट से एक बार फिर यह बात साबित हुई है कि बचकाना तौर-तरीकों से पार्टी संकट खड़े करती है। यह पहला मौका नहीं है। इसके पहले गोवा, अरुणाचल प्रदेश, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, पंजाब, मेघालय और छत्तीसगढ़ में पार्टी ने अपने पैर गलत जगह फंसाए। पार्टी के भीतर आपसी राग-द्वेष और प्रतिस्पधार्ओं का समाधान सही तरीके से नहीं हो पाया। कई बार ऐसा लगता है कि अपने ऊपर लगे ‘कमजोर-नेतृत्व’ के विशेषण को हटाने के प्रयास में हाईकमान बचकाने फैसले करती है। कहीं तो ‘फैसला’ करने की सामर्थ्य का प्रदर्शन करने के लिए फैसला हुआ और जहां फैसला होना चाहिए, वहां नेतृत्व सोता रह गया।
2015-16 में अरुणाचल प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री नबम टुकी और उनके चचेरे भाई नबम रेबिया को लेकर पार्टी के भीतर असंतोष था। हाईकमान ने टुकी की जगह कालिको पुल को मुख्यमंत्री बना दिया, पर संकट खत्म नहीं हुआ। अंतत: करीब-करीब सभी विधायक पार्टी छोड़कर चले गए। इनके कांग्रेस छोड़ने की एक बड़ी वजह यह थी कि दिल्ली में उनकी सुनवाई नहीं हो रही थी। ऐसा ही पिछले साल मेघालय में हुआ, जहां पार्टी के 17 में से 12 विधायक टूटकर तृणमूल कांग्रेस में चले गए।
गोवा में सन 2017 के विधानसभा चुनाव के बाद कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी, पर पार्टी ने सरकार बनाने में देर कर दी। ऐसा तब हुआ, जब दिग्विजय सिंह जैसे अनुभवी राजनेता के पास राज्य का प्रभार था। बाद में पूर्व मुख्यमंत्री लुईजिÞन्हो फलेरो ने कहा कि हम सरकार बनाने का पत्र राज्यपाल को देने वाले थे, जिसे देने से दिग्विजय सिंह ने रोक दिया। पार्टी में विभाजन हो गया। बाद में फलेरो ने भी पार्टी छोड़ दी।
मध्य प्रदेश में कांग्रेस के विधायकों ने पार्टी छोड़ी। 2019 में कर्नाटक में भगदड़ मची। कांग्रेस के संकट को दो सतहों पर देखा जा सकता है। राज्यों में उसके कार्यकर्ता पार्टी छोड़कर भाग रहे हैं। वहीं पार्टी केंद्र में अपने नेतृत्व का फैसला नहीं कर पाई। मई 2019 में राहुल गांधी ने जब पार्टी अध्यक्ष पद से इस्तीफा दिया, उसका असर कर्नाटक में दिखाई पड़ा। कर्नाटक में पार्टी छोड़ने वाले ज्यादातर बहुत सीनियर नेता थे, जो अपनी उपेक्षा से नाराज थे। यह कहना सही नहीं कि वे पैसे के लिए भागे। ज्यादातर के पास काफी पैसा है। रोशन बेग जैसे कद्दावर नेताओं मन में संशय पैदा क्यों हुआ? उनके मन में पार्टी नेतृत्व को लेकर खलिश थी।
पंजाब में कांग्रेस ने अपनी बनी-बनाई सरकार में पलीता लगा दिया। वहां नवजोत सिद्धू को किसने भेजा? जिस तरह से रविवार को जयपुर में कांग्रेस विधायक दल की बैठक बुलाई गई, वैसी ही बैठक पंजाब में भी बुलाई गई थी। फर्क इतना है कि अमरिंदर के साथ विधायक नहीं थे, गहलोत के साथ थे। तब अमरिंदर ने सोनिया गांधी को अपनी पीड़ा बताकर इस्तीफा दे दिया था।
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हो सकता है कि गहलोत की पुनर्प्रतिष्ठा हो जाए, वे मुख्यमंत्री बने रहें। सुनाई पड़ा है कि मुख्यमंत्री के बारे में फैसला पार्टी अध्यक्ष के चुनाव के बाद होगा। यह विवाद ऐसे समय में पैदा हुआ है, जब राहुल गांधी भारत-जोड़ो यात्रा पर हैं, जिससे उनके समर्थकों को काफी उम्मीदें हैं। राहुल को अब पार्टी के बजाय राष्ट्रीय नेता बनाने का प्रयास है, जैसे महात्मा गांधी थे। क्या ऐसा संभव है, क्या ऐसा होगा? परिणाम जानने के लिए कुछ महीने इंतजार करना होगा, अलबत्ता राहुल की अपरिपक्वता का जब भी जिक्र होता है, तब अध्यादेश की प्रति फाड़ने का उल्लेख भी होता है।
राहुल गांधी ने सार्वजनिक रूप से कहा कि कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव में उदयपुर में किया गया ‘एक व्यक्ति, एक पद’ का संकल्प लागू किया जाएगा। यह गहलोत के लिए इशारा था, जो उनके कद के नेता के लिए शर्मिंदगी भरा था। ऐसे नेता को नसीहत जिसे पार्टी अध्यक्ष बनाया जा रहा है। खबरें यह भी थीं कि सचिन पायलट ने विधायकों को फोन किए हैं कि विधायक दल के नेता के रूप में उनके नाम पर मोहर लगेगी। यानी साफ था कि परिवार ने सचिन पायलट को सिग्नल दे दिया।
राहुल कह रहे हैं – जो जाना चाहें, वे जाएं। अपनी पार्टी छोड़कर जाने की ललकार देने वाले नेता को क्या कहेंगे? देखें कि कौन लोग हैं, जो जाना चाहते हैं? वे क्यों जाना चाहते हैं? ऐसा क्यों लग रहा है कि पार्टी के भीतर ‘दुश्मन’ बैठे हैं? ज्यादातर ‘दुश्मन’ पुराने नेता है। राहुल-समर्थक मानते हैं कि यह पार्टी के परिमार्जन-काल है। यह कैसा परिमार्जन और सुधार है, जिसमें संगठन की ताकत कमजोर पड़ती जा रही है?
परिमार्जन की प्रक्रिया में उतार-चढ़ाव विस्मयकारी नहीं है, पर सवाल धुरी का है। धुरी कितनी मजबूत है। धुरी से आशय नेतृत्व की शक्ति, दृढ़ता विश्वास के अलावा संगठनात्मक शक्ति और वैचारिक स्पष्टता से है। मई 2019 में राहुल के इस्तीफे के बाद पार्टी नया अध्यक्ष चुनने में विफल रही। इससे पार्टी की संगठनात्मक सामर्थ्य का पता लगता है। इस दौरान ग्रुप-23 ने कुछ सवाल पूछे, जिनका जवाब देने के बजाय उल्टे उनपर हमले हुए।
संयोग से कुछ सवालों की प्रतिच्छाया जयपुर में देखने को मिली। चुनाव, चयन और मनोनयन जैसे सवाल पार्टी की आंतरिक योजना से जुड़े हैं। वहीं चुनावी रणनीति और नैरेटिव के सवाल शीर्ष नेतृत्व से। लोकसभा चुनाव करीब हैं। उसके पहले ऐसे झंझटों के खड़े होने से इतना तो लगता ही है कि पार्टी की दशा और दिशा में कोई खराबी है।
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