भारत में ऐसे कई स्थानों को खोजने का श्रेय अंग्रेजों को है, पर देश की अद्वितीय विरासत भीम बैठका को खोजकर सामने लाए डॉ. विष्णु श्रीधर वाकणकर।
भारत में कुल 27 विश्व विरासत स्मारक हैं। इनमें से तीन मध्यप्रदेश में हैं। खजुराहो, सांची और भीम बैठका। सांची की खोज 1818 में जनरल टेलर ने की थी। पंचमढ़ी को भी एक अंग्रेज ने ढूंढा था। भारत में ऐसे कई स्थानों को खोजने का श्रेय अंग्रेजों को है, पर देश की अद्वितीय विरासत भीम बैठका को खोजकर सामने लाए डॉ. विष्णु श्रीधर वाकणकर।
यहां प्रागैतिहासिक काल की करीब 700 गुफाएं हैं। इन गुफाओं में जनजीवन के चित्र हैं। यह भारत का सबसे बड़ा प्रागैतिहासिक कला संग्रह है। खजुराहो को 1968, सांची को 1989 और भीम बैठका को 2003 में यूनेस्को विश्व स्मारक का दर्जा मिला।
विवेकानंद पुस्तकालय की सदस्यता कई बार काम आती है, जहां उन विषयों पर पुस्तकें मिल जाती हैं जिनके बारे में आप विस्तार से जानना चाहते हैं। डॉ. लवकुश मिश्रा की ‘वर्ल्ड हेरीटैज साइट्स आफ इंडिया’ ऐसी ही पुस्तक है। इसमें मुख्य रूप से भारत की 27 विरासतों के बारे में विस्तृत विवरण है।
भारत के महान पुरातत्ववेत्ताओं में से एक डॉ. वाकणकर ने गोवा के मुक्ति संग्राम में उस जत्थे का नेतृत्व किया था, जिसमें जिद करके उज्जैन के राजाभाऊ महाकाल गए और तिरंगा हाथ में लेकर, गोली खाकर अपना बलिदान दिया। ये दोनों राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक थे।
खजुराहो चंदेलों के स्थापत्य का अद्भुत नमूना है। यह मिथुन मूर्तियों के कारण प्रसिद्ध है, पर वे सब मंदिर हैं। कन्दरिया महादेव में आज भी पूजा की जाती है। इसके अलावा, जैन मंदिरों की एक अलग शृंखला है। सांची को सम्राट अशोक के विदिशा के साथ सुखद संबंधों के कारण स्तूपों के लिए चुना गया। उनकी पत्नी देवी विदिशा से थीं।
इन स्तूपों की असल अवनति 13वीं शताब्दी से शुरू हुई, जब बौद्धों ने इसे त्याग दिया। यह स्थान जंगल जैसा हो गया। जनरल टेलर द्वारा इसकी खोज किए जाने के बाद वर्षों तक यह उपेक्षा का शिकार रहा। शिकारी और स्थानीय लोग इसे नुकसान पहुंचाते रहे। जॉन मार्शल जब पुरातत्व महानिदेशक बने तो उन्होंने ने इन स्तूपों के संरक्षण के लिए काफी काम किए।
उपरोक्त पुस्तक में अन्य विश्व विरासतों के संबंध में कई अल्पज्ञात जानकारियां भी मिलती हैं। जैसे- नंदादेवी राष्ट्रीय उद्यान और फूलों की घाटी के स्मारक का नाम संजय गांधी के नाम पर किया गया तो उसका जबरदस्त विरोध हुआ। अंत में उसे पुन: देवी के नाम पर किया गया। दार्जिलिंग की टॉय ट्रेन विश्व की दूसरी ट्रेन है, जिसे विश्व विरासत का दर्जा मिला है। इसका इतिहास और समयसीमा में पूरा होने के तथ्य रोचक हैं।
प्रसंगवश भारत के महान पुरातत्ववेत्ताओं में से एक डॉ. वाकणकर ने गोवा के मुक्ति संग्राम में उस जत्थे का नेतृत्व किया था, जिसमें जिद करके उज्जैन के राजाभाऊ महाकाल गए और तिरंगा हाथ में लेकर, गोली खाकर अपना बलिदान दिया। ये दोनों राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक थे।
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