न भूलने वाला पल
बंटवारे के बाद परिवार एक-एक रोटी मांगता फिर रहा था। बड़ा दुख होता था ये सब देखकर।
भगवान दास
यारू, डेरा गाजीखान
बंटवारे के समय मैं 12 साल का था। सातवीं कक्षा में पढ़ता था। मेरा घर डेरा गाजीखान स्थित यारू में था। मेरी तीन बहनें और तीन भाई थे। मेरा घर पक्का था, जहां हम सब माता-पिताजी के साथ रहते थे। बड़ा खुशनुमां माहौल था उन दिनों। हमारा इलाका हिन्दू बहुल था। पिताजी किराने की दुकान करते थे। मुझे आज भी अपने स्कूल के दिन याद हैं, जहां मैं दोस्तों के साथ खूब खेलता था। मेरे दोस्त धर्मचंद्र, सेवाराम और गंगा राम थे, जिनके साथ पूरा दिन अलग-अलग खेल खेलता रहता था। स्कूल में उर्दू सफी मोहम्मद पढ़ाते थे तो अन्य विषय अहमद खान पढ़ाते थे।
मुझे याद है कि विभाजन के एक साल पहले से ही तनाव होने लगा था। आए दिन जगह-जगह से अराजकता की खबरें आनी शुरू हो गई थीं। इसी बीच 1947 की शुरुआत में हमारे इलाके में भी मुसलमानों ने हमला कर दिया। घरों को आग लगाई, लूट-मार की। ऐसी घटनाएं आए दिन होने लगीं। मैं अपने घर की छत से आग की लपटों को देखा करता था।
मुझे याद है उन दिनों अचानक से ‘अल्लाह-हू-अकबर’ के नारे लगाता झुंड किसी के भी घर में घुस आता था और लूटमार करने लग जाता था। इनके हाथों में तलवारें और धारदार हथियार होते थे। यह सब मैंने अपनी आंखों से देखा है। यहां हमारी सुरक्षा को कोई नहीं था। पुलिस भी उनसे मिल गई थी। एक तरीके से कहें तो पुलिस जिहादियों को संरक्षण देती थी और हिन्दुओं को पलायन के लिए मजबूर करती थी। भय से व्याकुल हिन्दू परिवार डेरा गाजीखान के शिविरों में रहने को मजबूर हो रहे थे। एक दिन हमारे घर भी डाका पड़ा।
सब कुछ लूट लिया जिहादियों ने। डरकर फिर हम सभी पलायन कर गए। डेरा गाजीखान के शिविर में हम कुछ दिन रहे। हम पूरी बस्ती के साथ थे। किसी तरह से गोरखा रेजिमेंट के जवान हमें बचाकर अमृतसर लाए। इस दौरान रास्ते में जवान बराबर हमें चेतावनी दे रहे थे कि ट्रेन की सभी खिड़कियां बंद रखें। किसी तरीके से हम अमृतसर आ पाए। कुछ दिन यहां रहने के बाद परिवार सहित हिसार, गुड़गांव, पलवल, फरीदाबाद और फिर महरौली में भटकते रहे। इस दौरान दर-दर की ठोकरें खार्इं। एक-एक दाने को तरसकर रह गए।
सरकार की ओर से शिविरों में जो खाने को दिया जाता, उसी से पेट भरता था। कहां अपने घर के समृद्ध थे। लेकिन बंटवारे के बाद कहां परिवार एक-एक रोटी मांगता फिर रहा था। बड़ा दुख होता था ये सब देखकर। मैंने एक सेठ के यहां मजदूरी की। कुछ रुपए मिल जाते थे, उससे घर का गुजारा चलता था। यही सोचकर मन शांत कर लेता था कि सबके साथ ऐसा हुआ है, तो हमारे साथ भी ऐसा हुआ है। सबका दर्द, अपना दर्द और अपना दर्द, सबका समझकर मन शांत कर लेता था।
मुझे अपनी माटी से आज भी प्रेम है। लेकिन अब वहां जाने का कभी मन नहीं करता, क्योंकि मुसलमानों ने हमारा सब उजाड़ दिया। इतना दुख-दर्द दिया, जिसे शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता। हमारा पूरा जीवन ही बदल गया। मैं जीते जी इस त्रासदी को भला कैसे भूल सकता हूं।
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