प्रथम पूज्य गजानन गणेश भारतीय जनमानस की आस्था के अटूट केंद्र हैं। विश्व का शायद ही कोई कोना हो जहां हिन्दू धर्मावलम्बी गणेश पूजन न करते हों। हिन्दू धर्म में कोई भी शुभ कार्य विघ्नहर्ता व सुख-समृद्धि, वैभव एवं आनंद के अधिष्ठाता गणपति को नमन के बिना शुरू नहीं किया जाता। रिद्धि-सिद्धि के प्रदाता गजानन महराज की अनूठी काया में मानवीय प्रबंधन क अनूठे सूत्र समाहित हैं। उनका विशाल गज मस्तक सर्वोपरि बुद्धिमत्ता व विवेकशीलता, सूंड़ रूपी लंबी नाक विपदाओं को दूर से ही सूंघ लेने वाली कुशाग्र घ्राणशक्ति, छोटी-छोटी गहरी आंखें अगम्य भावों, बड़े-बड़े सूपकर्ण कान का कच्चा न होने तथा लंबा उदर बातों की गोपनीयता, बुराइयों व कमजोरियों को स्वयं में समाविष्ट करने की सीख देते हैं। उनकी स्थूल देह गणनायक की गुरुता की और मूषक वाहन कुतर्क तथा छिद्रान्वेषण की प्रवृत्ति को नियंत्रित करने का प्रतीक है। हमारी सनातन संस्कृति में ‘गज’ शब्द की अत्यंत सारगर्भित तात्विक विवेचना की गयी है। महामनीषी पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य के अनुसार दो व्यंजनों के संयोग से निर्मित ‘गज’ शब्द में ‘ग’ व्यंजन प्रतीक है गंतव्य यानी लक्ष्य का तथा ‘ज’ व्यंजन जन्म अर्थात उद्गम का। इस तरह ‘गज’ शब्द का भावार्थ हुआ एक सुनिश्चित लक्ष्य के लिए सृजित और विसर्जित होने वाली दिव्य विभूति।
शास्त्रीय मान्यता अनुसार गणेश जी का अवतरण भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को मध्याह्न काल में हुआ था; इस कारण देश का सनातनधर्मी समाज भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को इसी समय गणेश जी के सिद्धि विनायक स्वरूप की विधिवत स्थापना व पूजन करता है। तदुपरान्त श्रद्धालु जन चतुर्थी से चतुर्दशी तक प्रथम पूज्य गजानन गणेश जी दस दिवसीय जन्मोत्सव गहन श्रद्धा व हर्षोल्लास से मनाते हैं। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग के अध्यक्ष प्रो. योगेश्वर तिवारी का कहना है कि प्राचीन काल से अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध तक गणपति जन्मोत्सव की यह परम्परा श्रद्धालुओं के घरों तक सीमित थी। मध्ययुग में सातवाहन, राष्ट्रकूट, चालुक्य आदि राजवंशों ने महाराष्ट्र में गणेशोत्सव को बढ़ावा दिया था। उनके बाद महान मराठा शासक छत्रपति शिवाजी महाराज ने गणेशोत्सव को राष्ट्रीयता एवं संस्कृति से जोड़कर एक नई शुरुआत की थी। ऐतिहासिक साक्ष्यों के अनुसार पुणे में ‘कस्बा गणपति’ की स्थापना हिन्दू कुलभूषण छत्रपति शिवाजी महाराज की मां वीर राजमाता जीजाबाई ने ही की थी। कालांतर में पेशवाओं ने भी गणेशोत्सव को लोकप्रिय बनाया था। सन 1892 तक जो गणेशोत्सव एक धार्मिक अनुष्ठान के रूप में हिन्दू धर्मावलम्बियों के घरों तक सीमित था; देश के महान स्वतंत्रता सेनानी लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक उसे अंग्रेजी हुकूमत से मुक्ति के लिए राष्ट्रीय जनजागृति का महापर्व बना दिया था।
यह वह दौर था जब पूरा देश ब्रितानी हुकूमत की यातनाओं से कराह रहा था। ऐसे समय में “स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है – मैं इसे लेकर रहूंगा” का नारा बुलंद करने वाले लोकमान्य तिलक किसी ऐसे उपाय की खोज में थे, जिसे फिरंगियों की क्रूरता के खिलाफ हथियार बनाया जा सके। ऐतिहासिक दस्तावेजों के मुताबिक उसी दौरान महान क्रांतिकारी बंकिम चंद्र चटर्जी ने 1882 में ‘वन्देमातरम’ नामक राष्ट्रीय गीत लिखा था, जिस पर प्रतिबंध लगाकर अंग्रेजों ने उस गीत को गाने वालों को जेल मे डालने का फरमान जारी कर दिया था। साथ ही भारत में ‘धारा 144’ नाम का कानून लागू किया था जो आजादी के इतने वर्षों बाद आज भी लागू है। इस कानून के तहत धार्मिक समारोहों के अलावा किसी भी अन्य कार्यक्रम में पांच से अधिक व्यक्ति इकट्ठे नहीं हो सकते थे और न ही समूह बनाकर कहीं प्रदर्शन कर सकते थे। इन दोनों बातों से देशभक्तों में अंग्रेजों के प्रति नाराजगी बहुत गहरा गयी थी। इन अंग्रेजी अत्याचारों का विरोध करने की वैचारिक उधेड़बुन में एक दिन समुद्रतट पर टहलते समय तिलक के मन में गणेशोत्सव के सार्वजनिक आयोजन के माध्यम से देशवासियों में जनचेतना जगाने का अनूठा विचार कौंधा। उन्होंने विचार किया कि गणेशोत्सव एक धार्मिक उत्सव है और इसमें अंग्रेज शासक दखल नहीं दे सकेंगे। इसी विचार को अमलीजामा पहनाते हुए लोकमान्य तिलक ने 1894 में पुणे के शनिवारवाड़ा में गणपति उत्सव का आयोजन कर सार्वजनिक रूप से गणेशोत्सव मनाने की परंपरा का श्रीगणेश किया। पुणे के उस गणपति उत्सव में हजारों की भीड़ उमड़ी। तिलक ने अपनी बुद्धिमत्ता से इस गणेश जन्मोत्सव को सार्वजनिक रूप देते हुए इस आयोजन को न केवल आजादी की लड़ाई के लिए एक प्रभावशाली माध्यम बनाया वरन छूआछूत जैसी सामाजिक कुरीतियों के उन्मूलन का सशक्त हथियार भी बनाया।
चूंकि तत्कालीन कानून के मुताबिक अंग्रेज पुलिस किसी राजनीतिक कार्यक्रम में एकत्रित भीड़ को ही गिरफ्तार कर सकती थी, धार्मिक समारोह में उमड़ी भीड़ को नहीं। ये बात लोकमान्य तिलक अच्छी तरह जानते थे। 20 अक्तूबर 1894 से 30 अक्तूबर 1894 तक पहली बार 10 दिनों तक पुणे के शनिवारवाड़ा में गणपति उत्सव मनाया गया। इस सार्वजानिक गणेश पूजन के आयोजन के पीछे बाल गंगाधर जी का मकसद सभी जातियो धर्मों को एक साझा मंच देने का था, जहां सब बैठ कर मिलकर कोई राष्ट्रहित में विचार कर सकें। इस आयोजन में पहली बार पेशवाओं के पूज्य देव श्रीगणेश को बाहर लाया गया था। तब भारत में अस्पृश्यता चरम सीमा पर हुआ करती थी। लोकमान्य तिलक वहां भाषण के लिए हर दिन किसी बड़े नेता को आमंत्रित करते। 1904 में आयोजित उस प्रथम सार्वजानिक गणेशोत्सव के मंच से लोकमान्य तिलक ने यहां उपस्थित लोगों से देशहित में एकजुट होकर विदेशी हुकूमत का विरोध करने का आह्वान करते हुए कहा था कि गणपति उत्सव का मुख्य उद्देश्य अंग्रेजों को भारत से भगाकर स्वराज्य हासिल करना है। पहली बार लोगों ने लोकमान्य तिलक के उद्देश्य को गंभीरता से समझा। आजादी की अलख जगाने के साथ लोकमान्य तिलक ने ब्राह्मणों और गैर ब्राह्मणों की दूरी समाप्त करने के लिए यह पर्व प्रारम्भ किया था जो आगे चलकर एकता की मिसाल भी बना। इसके अगले साल 1895 में पुणे के शनिवारवाड़ा में 11 गणपति स्थापित किये गये। उसके अगले साल 31 और अगले साल ये संख्या 100 को पार कर गयी।
उसी दौर में विनायक दामोदर सावरकर और कवि गोविंद; जिन्होंने नासिक में ‘मित्रमेला’ संस्था बनाकर अपने देशभक्तिपूर्ण पोवाडे (मराठी लोकगीतों का एक प्रकार) के माध्यम से देशभक्ति की धूम मचा रखी थी, को इन गणेशोत्सवों ने विस्तृत मंच दिया और बप्पा के आशीर्वाद से उनके पोवाडों ने पूरे पश्चिमी महाराष्ट्र में देशभक्ति का संचार कर दिया। वीर सावरकर ने लिखा है कि कवि गोविंद अपनी कविता की अमर छाप जनमानस पर छोड़ जाते थे। देखते-देखते गणेशोत्सव महाराष्ट्र के अन्य बड़े शहरों नागपुर, वर्धा, अमरावती अहमदनगर, मुंबई व थाणे तक फैलता चला गया। इन गणपति उत्सवों में हर वर्ष हजारों लोग एकत्रित होते और बड़े नेता उसको राष्ट्रीयता का रंग देने का कार्य करते थे। इस तरह लोगो का गणपति उत्सव के प्रति उत्साह बढ़ता गया और राष्ट्र के प्रति चेतना बढ़ती गयी।
गणेशोत्सव की बढ़ती लोकप्रियता से अंग्रेजी हुकूमत परेशान हो गई थे। इस बारे में रोलेट समिति रपट में भी चिंता जतायी गयी थी। रपट में कहा गया था, ‘’गणेशोत्सव के दौरान युवकों की टोलियां सड़कों पर घूम-घूम कर अंग्रेजी शासन विरोधी गीत गाती हैं, स्कूली बच्चे पर्चे बांटते हैं। पर्चे में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ हथियार उठाने और मराठों से शिवाजी की तरह विद्रोह करने का आह्वान होता है। अंग्रेजी सत्ता को उखाड़ फेंकने के लिए धार्मिक संघर्ष को जरूरी बताया जा रहा है।‘’
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