शकुंतला बहल घई
रावलपिंडी, पाकिस्तान
जब भारत का बंटवारा हुआ, उस समय मैं 14-15 साल की थी। मेरे पिता कर्नल सर्वप्रकाश बहल सेना में डॉक्टर थे। उन्हें रावलपिंडी में काली रोड पर सैन्य छावनी इलाके में ही सरकारी घर मिला हुआ था। परिवार आर्थिक रूप से संपन्न था। जब बंटवारे की बात चली तो पाकिस्तान में माहौल बिगड़ने लगा। मुसलमानों ने उपद्रव और लूटपाट शुरू कर दी।
हथियारबंद मुसलमानों ने हिंदू कॉलोनियों को निशाना बनाना शुरू किया। वे बार-बार हिंदू कॉलोनियों पर हमले करते थे। उन्मादी मुसलमान जब भी हमले करते, पिताजी मदद के लिए सेना को बुला लेते थे। हालांकि सेना के आने के बाद दहशतगर्द भाग जाते, लेकिन गोलीबारी की आवाजें आती रहती थीं। उन दिनों कहीं आग जल रही होती, कहीं चीख-पुकार की आवाजें सुनाई पड़ती थीं।
मुसलमान झुंड में सड़कों-गलियों में ‘अल्लाह-हू-अकबर’ के नारे लगाते हुए घूमते थे। एक दिन अचानक कुछ मुसलमान हमारे घर में घुस आए। मां उनके पैर पकड़ कर गिड़गिड़ाती रहीं, पर वे खाने-पीने का सामान तक लूट कर ले गए। पिताजी आए तो नजारा देखकर सहम गए। इसी बीच, एक दिन शहर का माहौल बिगड़ गया। हमें और दूसरे बच्चों को एक कमरे में बंद कर दिया गया।
हम 15 दिन तक उसी कमरे में रहे। कमरा केवल भोजन-पानी देने के लिए खुलता था। हर तरफ इतनी दहशत थी कि पिताजी को पाकिस्तान छोड़ने का फैसला लेना पड़ा। जब हमने पलायन किया तो हम रास्ते भर पुरुष, स्त्रियों और बच्चों की लाशें देखते भारत आए। आज भी उन दिनों को याद करके सिहरन होती है। हम सब कुछ वहीं छोड़कर चल पड़े। सेना ने हमें ट्रेन से अमृतसर भेजा। ल्ल
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