भारत में, जो दुनिया का सबसे प्राचीन राष्ट्र है और जहां का समाज सबसे समृद्ध रहा है, इस सबके बाद भी, हमारी इस विषय पर सहमति नहीं है। इसका एकमात्र कारण यही दिखता है कि हम एक समाज और एक राष्ट्र के नाते अपने ‘स्व’ को पहचानना और उसे आत्मसात करना नहीं चाहते।
भारत के सिवाय दुनिया में शायद ही कोई ऐसा देश होगा जहां के समाज के मन में ऐसे प्रश्नों को लेकर कोई संभ्रम या मत-भिन्नता होगी कि ‘हम कौन हैं? हमारे पुरखे कौन थे? हमारा इतिहास क्या रहा है?’ लेकिन भारत में, जो दुनिया का सबसे प्राचीन राष्ट्र है और जहां का समाज सबसे समृद्ध रहा है, इस सबके बाद भी, हमारी इस विषय पर सहमति नहीं है। इसका एकमात्र कारण यही दिखता है कि हम एक समाज और एक राष्ट्र के नाते अपने ‘स्व’ को पहचानना और उसे आत्मसात करना नहीं चाहते। इस संदर्भ में कुछ उदाहरण देखें।
द्वितीय विश्वयुद्ध के विनाश के उपरांत (1945) ब्रिटेन, जर्मनी और जापान ने नई शुरुआत की थी। सैकड़ों वर्षों के संघर्ष के बाद, 1948 में इस्राएल ने अपने राष्ट्र को पुन: प्राप्त किया था। भारत ने भी शतकों की गुलामी और शोषण के उपरांत और देश विभाजन के बाद, 1947 में स्वाधीनता प्राप्त की थी। लगभग एक साथ नए सिरे से शुरुआत करने वाले इन देशों को आज हम देखें तो भारत की तुलना में उपरोक्त चारों देशों की स्थिति बहुत अच्छी दिखती है। इसका क्या कारण रहा होगा?
एक सामाजिक चिंतक के अनुसार, ‘जब तक हम यह तय नहीं करते कि ‘एक समाज के नाते हम कौन हैं’, तब तक हम अपनी दिशा और प्राथमिकताएं तय नहीं कर सकते।’ यही अंतर है भारत और इन देशों की विकास यात्रा में, जो करीब-करीब एक साथ ही शुरू हुई थी।
‘स्वदेशी समाज’ शीर्षक से अपने ऐतिहासिक निबंध में गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर लिखते हैं, ‘‘हमें सबसे पहले हम जो हैं वह बनना पड़ेगा।’ यह अद्भुत संयोग ही है कि आज जब हमारा देश स्वतंत्रता का अमृत महोत्सव मनाने जा रहा है तब एक ऐसा कालखंड आया है, जब एक राष्ट्र के नाते भारत अपने ‘स्व’ के आधार पर अपनी एक नई पहचान बनाने के लिए प्रयासरत है। परंतु इसका भी विरोध क्यों होता है? नि:संदेह, इस पर विचार होना चाहिए।
कहां अटकी विकास यात्रा
भारत के आधुनिक इतिहास में हमें दिखता है कि भारत की यह पहचान, भारत का यह ‘स्व’, जो सदियों पुराना है, सर्वविदित है, सुस्पष्ट है, उसे ही नकारा गया। इसे नकारने को ‘लिबरल’, ‘इंटलेक्चुअल’ और ‘प्रोग्रेसिव’ कहलाने का फैशन चल पड़ा। स्पष्ट दिखता है कि भारत ने चूंकि अपनी विकास यात्रा की दिशा अपने ‘स्व’ के आलोक में तय नहीं की इसलिए भारत का उसकी क्षमता के आधार पर जितना विकास अब तक होना चाहिए था, वह हम नहीं कर सके। भारत के इस ‘स्व’ के प्रकट होने के कई अवसर आए, परंतु दुर्भाग्य से उन्हें लगातार नकारा ही गया।
हम जानते हैं कि 1905 में बंगाल विभाजन के विरुद्ध हुए जनांदोलन का उद्घोष ‘वन्देमातरम्’ गीत बना था। ‘वन्देमातरम्’ ने हजारों युवकों, क्रांतिकारियों को स्वाधीनता आंदोलन में शामिल होने और देश पर मर-मिटने की प्रेरणा दी। ‘वन्देमातरम्’ भारत के ‘स्व’ का सहज प्रस्फुटन था। कांग्रेस के अखिल भारतीय अधिवेशनों में इसका गौरवपूर्ण गान होता था। पंडित ओंकारनाथ ठाकुर, पंडित विष्णु दिगम्बर पलुस्कर जैसे दिग्गज गायक इसे स्वरबद्ध कर कांग्रेस के अधिवेशनों में गाते थे। हिंदू-मुसलमान, सभी इससे समान रूप से प्रेरणा पाते थे। फिर अचानक 1921 से यह केवल ‘हिंदुओं का गीत’ और ‘साम्प्रदायिक’ कैसे हो गया? इसके पीछे की मानसिकता को समझना आवश्यक है। 1905 के बाद 15 वर्ष तक जो देशभक्ति का स्वाभाविक प्रस्फुटन था, उसे अचानक साम्प्रदायिक कहकर कैसे और क्यों नकारा गया, यह समझना आवश्यक है।
एक और उदाहरण देखें। स्वतंत्र भारत के ध्वज का सर्वप्रथम नमूना स्वामी विवेकानंद की शिष्या भगिनी निवेदिता ने 1905 में बनाया था। उन्होंने ऋषि दधीचि के तपस्वी देहत्याग से बने वज्र के चिह्न वाला ध्वज बनाया था। लेकिन एक जगह वे लिखती हैं, ‘‘दुर्भाग्य से हमारे सामने नमूने के तौर पर चीनी युद्ध का ध्वज रखा गया था, अत: हमने इसे लाल की जगह काले रंग से बनाया। लेकिन ये भारतीयों को रास नहीं आया। इसलिए नया वाला भगवा रंग पर पीले रंग का होगा।’’ 1906 के कांग्रेस अधिवेशन में भगवा कपड़े पर पीले रंग में वज्र के चिह्न वाला ध्वज प्रदर्शित हुआ था।
इसके पश्चात विभिन्न ध्वजों के अनेक नमूने प्रस्तावित हुए। 1921 में भारत के सभी समुदायों का प्रातिनिधिक चरखांकित तिरंगा ध्वज बनाया गया। 1929 में मास्टर तारासिंह के नेतृत्व में एक सिख प्रतिनिधिमण्डल महात्मा गांधी जी से मिला और उन्होंने अलग-अलग समुदायों के प्रातिनिधिक ध्वज की कल्पना का विरोध किया और सब भारतीयों में एकता को दर्शाने वाला राष्ट्र ध्वज बनाने पर जोर दिया। उसने कहा, ‘‘यदि अलग-अलग समुदायों के प्रतिनिधित्व का ही विचार करना है तो सिख समुदाय का पीला रंग ध्वज में जोड़ा जाए’’। इस पर समग्र विचार कर सुझाव देने के लिए कांग्रेस कार्यकारी समिति ने एक ध्वज समिति का गठन किया। इसमें पंडित जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल, मौलाना अबुल कलाम आजाद, मास्टर तारासिंह, पट्टाभि सीतारामैया (संयोजक), काका कालेलकर और डॉक्टर हार्डीकर थे। ध्वज समिति ने राज्य कांग्रेस समिति और सामान्य व्यक्तियों से प्रचलित राष्ट्र ध्वज के लिए आपत्ति और सुझाव मांगे।
सब की बातें सुनकर ध्वज समिति का सर्वसम्मत निर्णय रहा कि ‘भारत का ध्वज विशिष्ट, कलात्मक और गैर-सांप्रदायिक हो। सवार्नुमति से तय किया गया कि वह एक ही रंग का हो और अगर कोई एक रंग सबसे विशिष्ट, भारतवासियों में समान रूप से स्वीकार्य है, जो भारत जैसे प्राचीन राष्ट्र के साथ दीर्घकाल से जुड़ा है वह भगवा या केसरिया रंग ही है। इसलिए ध्वज समिति ने सवार्नुमति से निर्णय लिया कि आयताकार भगवा कपड़े पर नीले रंग में चरखा अंकित ध्वज भारत का ध्वज होगा। लेकिन आखिर यह निर्णय स्वीकार क्यों नहीं हुआ? वह कौन-सी मानसिकता थी, जिसने भारत के इस स्वाभाविक और सुविचारित ‘स्व’ को नकारा? यह तथ्य भी विचार करने योग्य है।
1947 में स्वाधीनता के पश्चात संविधान द्वारा समृद्धि, शांति और पराक्रम को दर्शाता धर्मचक्र अंकित तिरंगा हमारे राष्ट्र ध्वज के नाते स्वीकारा गया। यह हमारा राष्ट्रध्वज है। उसका सम्मान तथा संरक्षण करना और अपने कर्तृत्व से उसका गौरव बढ़ाना हम सभी भारतीयों का कर्तव्य है। यह निर्विवाद सत्य है।
इसी तरह स्वाधीनता के पश्चात भारत की शिक्षा में जो मूलभूत सुधार अपेक्षित था, वह भी नहीं किया गया। 1948 में डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन की अध्यक्षता में गठित शिक्षा आयोग की रिपोर्ट में ‘शिक्षा के अभारतीय चरित्र’ के बारे में स्पष्ट कहा गया है कि-
‘One of the serious complaints against the system of education which has prevailed in this country for over a century is that it neglected India’s past, that it did not provide the Indian students with a knowledge of their own culture- It has produced in some cases the feeling that we are without roots, in others, what is worse, that our roots bind us to a world very different from that which surrounds us.’
‘The chief source of spiritual nourishment for any people must be its own past perpetually rediscovered and renewed- A society without a knowledge of the past which has made it would be lacking in depth and dignity.’
‘It was assumed that education should not stop with the development of intellectual powers but must provide the student, for the regulation of his personal and social life, a code of behavior based on fundamental principles of ethics and religion- Where conscious purpose is lacking, personal integrity and consistent behavior are not possible.’
इससे सिद्ध होता है कि आध्यात्मिकता ही भारतीय चिंतन का आधार है। उसी के प्रकाश में शिक्षा की व्यवस्था होनी चाहिए। परंतु कांग्रेस के शासन काल में, उन्हीं के द्वारा नियुक्त शिक्षा आयोगों की अनुशंसाओं को लागू नहीं किया गया। शिक्षा आयोग का गठन करने वाले कांग्रेस के ही नेता थे। फिर भी उस आयोग की अनुशंसा को लागू करने से रोकने वाले वे कौन लोग थे, कौन सी मानसिकता थी? आज भी उस दिशा में जब प्रयास होते हैं तो उसे ‘शिक्षा का भगवाकरण’ कहकर उसका विरोध किया जाता है। इसके पीछे कौन-सी मानसिकता है, इसका विश्लेषण होना आवश्यक है।
संस्कृत सब भाषाओं की जननी
भारत की सभी भाषाओं की जननी संस्कृत है, यह निर्विवाद तथ्य है और संस्कृत ही है जो सभी भारतीय भाषा-भाषियों को सरलता से समझ में आती है। जैसे, मलेशिया में तमिल भाषी भारतीय बड़ी संख्या में हैं। वहां के हिंदू स्वयंसेवक संघ के प्रचारक श्री रामचन्द्रन तमिल भाषी हैं। संघ शिक्षा वर्ग के दोनों वर्षों का उनका प्रशिक्षण तमिलनाडु प्रांत में हुआ। तृतीय वर्ष (25 दिन) के लिए वे नागपुर गए। वहां सभी बौद्धिक हिंदी में ही होते थे, जो उन्हें बिल्कुल भी समझ नहीं आते थे। बाद में जब तमिल भाषी शिक्षार्थियों के लिए तमिल में उनका अनुवाद होता था तभी वे उन्हें समझ पाते थे। उन्होंने मुझे बताया कि 25 में से केवल एक ही बौद्धिक उद्बोधन वे सीधा (बिना अनुवाद के) समझ सके, क्योंकि वह संस्कृत में हुआ था। संस्कृत भाषा सभी भाषाओं के निकट है, इसका यह ज्वलंत प्रमाण है। भारत रत्न डॉक्टर बाबासाहेब आम्बेडकर समेत अनेक तत्कालीन नेताओं का यह स्पष्ट मत था कि भारत में सभी को संस्कृत की शिक्षा दी जाए। भारत के ज्ञान का सारा खजाना संस्कृत में है और सभी भारतीय भाषाएं संस्कृत के निकट हैं, संस्कृत से ही निकली हैं। यह भारतीय एकात्मकता के बोध के लिए भी सर्वथा उपयुक्त है। परंतु किस मानसिकता के कारण इस महत्वपूर्ण सुझाव को नहीं स्वीकारा गया?
दुनिया के सभी शिक्षाविद् मानते हैं कि बालक की प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में होनी चाहिए। नए विषय समझने के लिए और बालक के मानसिक, बौद्धिक विकास के लिए आवश्यक है कि शिक्षा मातृभाषा में दी जाए। अच्छी अंग्रेजी भाषा सीखने के लिए सभी विषय अंग्रेजी में पढ़ने आवश्यक नहीं हैं। दुनिया के केवल 9 प्रतिशत लोग ही अपनी मातृभाषा से अलग अन्य भाषा में शिक्षा प्राप्त करते हैं। भारत ऐसे ही कुछ देशों में आता है। सभी विषयों की शिक्षा अंग्रेजी में देने के नाम पर अपने यहां अंग्रेजी का वर्चस्व इतना बढ़ा दिया गया कि मातृभाषा में शिक्षा प्राप्त करने वालों के मन में एक हीनता का भाव निर्माण होता दिखता है। यह भारत के ‘स्व’ भाव के विपरीत है। महात्मा गांधी जी समेत अनेक चिंतकों द्वारा प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में ही देने पर बल देने के बावजूद ऐसा क्या हुआ कि इस बात की अनदेखी की गई?
एक लंबे समय तक भारत सुसम्पन्न था। विश्व व्यापार में भारत का सहभाग सर्वाधिक था। हम अनाज नहीं बेचते थे। चमड़ा, धातु, लकड़ी, पत्थर की बनी वस्तुएं, कपड़ा, मसाले, हीरे आदि के व्यापार के लिए भारतीय दुनियाभर में जाते रहे हैं। इसलिए भारत कृषि प्रधान देश था, ऐसा कहने के स्थान पर भारत उद्योग प्रधान देश था, यह कहना अधिक उचित होगा। ये सारे उद्योग घर-परिवार में होते थे और ये परिवार ग्रामीण भारत में रहते थे। भारत के ग्राम समृद्ध होते थे। लेकिन यूरोप के प्रभाव के कारण भारत ने स्वाधीनता के पश्चात शहर केंद्रित विकास की दिशा पकड़ी। शहरों में भीड़, स्पर्धा, अपराध और आपसी सम्बन्धों में बिखराव बढ़ता गया। ग्राम उपेक्षित, पिछड़े, सुविधाविहीन होने लगे। शहर में बसना प्रतिष्ठा का और ग्रामीण भाग में बसना पिछड़ेपन का लक्षण माना गया। यांत्रिक युग के कारण अधिकाधिक लाभ कमाने के मोह के मकड़जाल में मनुष्य फंसता चला गया।
भारतीय जीवन की विशेषता यह रही है कि भारत ने भौतिक समृद्धि और आध्यात्मिक विकास, दोनों को समान महत्व दिया है, किसी एक को नहीं। ईशोवास्य उपनिषद् में एक श्लोक में स्पष्ट कहा है कि, जो केवल भौतिक समृद्धि के पीछे दौड़ता है वह गहरे अंधकार में प्रवेश करता है। उसी श्लोक में आगे कहा है कि, जो केवल आध्यात्मिक साधना में रत रहता है वह और गहरे अंधकार में प्रवेश करता है। उपनिषद् आगे कहता है कि, भौतिक समृद्धि और आध्यात्मिक उन्नति, दोनों को साथ-साथ साधना ही जीवन है। इन दोनों को साथ साधने का योग्य परिवेश ग्रामीण जीवन में है। ग्राम में आय कम है, पर व्यय भी कम है। इसलिए अच्छा जीवन जीने तथा कमाने के लिए बहुत दौड़भाग नहीं करनी पड़ती है। कमाने के साथ-साथ आध्यात्मिक साधना के लिए पर्याप्त समय और योग्य परिवेश, वातावरण ग्रामीण जीवन में है। इसलिए महात्मा गांधी भी चाहते थे कि स्वाधीन भारत की विकास यात्रा की दिशा ग्रामीण विकास की हो। उनका ‘हिंद स्वराज’ मुख्यत: इसी पर केंद्रित है।
संविधान को अंगीकार करते समय भी, 19-22 नवंबर, 1948 की चर्चा में संविधान सभा ने यही अपेक्षा व्यक्त की थी कि, जल्द ही हम ग्राम स्वराज के पथ पर अग्रसर होंगे। परंतु पश्चिम के समाजवाद और पूंजीवाद के द्वंद्व में फंसकर हम अपना समावेशी और पर्यावरण पूरक विकास का रास्ता भूल गए। ग्रामीण भारत में शहरों की सभी सुविधाएं दिए जाने का आग्रह पूर्व राष्ट्रपति डॉक्टर अब्दुल कलाम का भी था। भारत का विशिष्ट विचार रहा है कि समृद्ध, सुखी, निरामय और आध्यात्मिक साधना में रत जीवन ही वस्तुत: जीवन है। यही भारत की पहचान भी है। यही भारत के ‘स्व’ की अभिव्यक्ति है। यह दिशा हमने क्यों नहीं ली?
स्वदेशी समाज की अवधारणा
स्वदेशी समाज में गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर कहते हैं कि ‘‘कल्याणकारी राज्य पश्चिमी कल्पना है, भारतीय नहीं। परम्परा से भारतीय समाज राज्यशक्ति पर कभी अवलम्बित नहीं था। जो समाज अपनी आवश्यकताओं के लिए राज्य पर कम से कम अवलम्बित है, वह स्वदेशी समाज है। परम्परा से केवल न्याय, विदेश सम्बंध और सुरक्षा जैसे विषय ही राज्य के अधीन होते थे। बाकी सभी विषय यथा शिक्षा, स्वास्थ्य, व्यापार, अर्थोत्पादन, संगीत, कला, मंदिर, कथा, मेले आदि समाज के अधीन रहते थे’।
स्वामी विवेकानंद की शिष्या भगिनी निवेदिता ने कहा था, ‘जिस समाज में लोग अपने परिश्रम का पारिश्रमिक अपने ही पास न रखकर समाज को भी देते हैं उस समाज में, ऐसी एकत्रित पारिश्रमिक की पूंजी के आधार पर समाज सम्पन्न- समृद्ध बनता है और समाज सम्पन्न-समृद्ध बनता है तो समाज का हर व्यक्ति सम्पन्न-समृद्ध बनता है। परंतु जिस समाज में लोग अपने परिश्रम का पारिश्रमिक समाज को न देकर अपने ही पास रखते हैं, उस समाज में कुछ व्यक्ति तो सम्पन्न-समृद्ध बनते हैं, पर समाज दरिद्र रहता है’।
हमारे यहां माना गया है कि समाज को अपनेपन के भाव से देना, यह समाज का ही है, उसे लौटाना यानी जीवन सार्थक होना। इसीलिए विवेकानंद केंद्र की प्रार्थना में कहा गया है-
जीवने यावदादानं स्यात् प्रदानं ततौधिकम्।
इत्येषा प्रार्थनास्माकं भगवन् परिपूर्यताम्।।
(अर्थात्-जीवन में हम जितना स्वीकार करते हैं उससे अधिक लौटा सकें, हे भगवन्! आप हमारी ये प्रार्थना पूर्ण करो।)
समाज से हमें बहुत मिलता है, उसे वह वापस लौटाने को ही धर्म कहा गया है। रिलिजन या उपासना इससे अलग है। उपासना धर्म के लिए होती है। धर्म का अर्थ है, प्रत्यक्ष आचरण करना, समाज को लौटाना। समाज को देना, यह धर्मादा है और समाज को लौटाना, यह धर्म है। भगिनी निवेदिता के अनुसार, सामाजिक पूंजी को समृद्ध करना ही धर्म है। और धर्म भेदभाव नहीं करता है, वह सभी को जोड़े रखता है, सहायता करता है, साथ बांधे रखता है। यही स्वदेशी समाज का आधार है।
स्वाधीनता के समय भारत के निर्माताओं के मन में यह ‘धर्म’ भाव स्पष्ट रहा होगा। इसीलिए भारत की लोकसभा में ‘धर्मचक्र प्रवर्तनाय’ लिखा है। राज्यसभा में ’सत्यं वद धर्मं चर’, उच्चतम न्यायालय का बोधवाक्य ‘यतो धर्मस्ततो जय:’ और भारत के राष्ट्रध्वज पर जो चक्र अंकित है, वह है ‘धर्मचक्र’। चक्र घूमने के लिए ही होता है। समाज को लौटाने का प्रत्येक छोटे से छोटा प्रयास धर्मकार्य है और ऐसे छोटे-छोटे प्रयासों से धर्मचक्र चलता है, गतिमान होता है, प्रवर्तमान रहता है।
लोकसभा, राज्यसभा, उच्चतम न्यायालय और राष्ट्रध्वज जैसे प्रमुख स्थानों पर जिस ‘धर्म’ का स्पष्ट महत्वपूर्ण उल्लेख है उस ‘धर्म’ की कहीं कोई चर्चा नहीं है। बल्कि धर्म की बात करना साम्प्रदायिक (कम्युनल) माना जाने लगा है। और जिस सेक्युलरिज्म को चर्चा करने के पश्चात भारतीय संविधान में स्थान न देने का सर्वानुमति से निर्णय लिया गया, उसे चुपके से, किसी भी प्रकार की चर्चा-बहस किए बिना संविधान की प्रस्तावना में (जो संविधान के अनुसार, अपरिवर्तनीय है) जबरदस्ती समाविष्ट किया गया। उस सेक्युलरिज्म जैसे अभारतीय शब्द के अर्थ को परिभाषित किए बिना ही उसका खुलकर उपयोग किया जा रहा है।
ये सब किस मानसिकता की उपज है, इसका विचार करना होगा। उस अभारतीय मानसिकता से उबरकर शुद्ध भारतीय विचार को प्रतिष्ठित करने से ही अब तक नकारा गया भारत का ‘स्व’ पूर्णार्थ से, अपने पुरुषार्थ से पूर्ण प्रकाशमान होगा। तभी भारत अपने स्व-गौरव के साथ मजबूती से अपना वैश्विक कर्तव्य पूर्ण करने के लिए तत्पर होगा।
टिप्पणियाँ