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भारतीय सांस्कृतिक चिंतन ही समाधान

कोविड की पिछली तबाही में भारत के इस सांस्कृतिक चिंतन का पक्ष दुनिया ने देखा था

हितेश शंकर by हितेश शंकर
Dec 27, 2022, 12:08 pm IST
in भारत, सम्पादकीय
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https://panchjanya.com/wp-content/uploads/speaker/post-261814.mp3?cb=1672123491.mp3

भारत के इस सांस्कृतिक चिंतन का पक्ष दुनिया ने देखा था। बड़े-बड़े समृद्ध देशों में लोगों की मौतें हुईं परंतु भारत में गरीबों को भी टीका मिला जो दुनिया में कभी कोई सोच नहीं सकता। इतना ही नहीं, दुनिया के और जो गरीब देश थे, उनके लिए भी भारत ने टीके की व्यवस्था की, तमाम अन्य सहयोग दिए। यह जो भारतीय चिंतन है, यही भविष्य की पूंजी है। हमें एक वायरस से नहीं लड़ना, हमें उन सभी वायरस से लड़ना है जो मानवता के लिए खतरा हैं।

येरूशलम में हिब्रू विश्वविद्यालय में इतिहास के प्रोफेसर युवाल नोवा हरारी की मानव के मानव बनने की कहानी बताने वाली पुस्तक ‘सेपिएंस’ ने एक बौद्धिक बहस, या यूं कहें कि एक लहर पैदा की है। सेपिएंस में वे बड़ी बारीकी से मानव जाति के विकास और सामाजिक विमर्शों को रेखांकित करते हैं। उसे दार्शनिक पहलू पर भी ले जाते हैं और उसकी तुलनाएं भी सामने रखते हैं। अगर हम सेपिएंस का संदर्भ लें तो वे मानव जाति के विकास क्रम में अलग-अलग बातें बताते हैं। जैसे निएंडरथल था, इसके बाद सेपिएंस आए। वे कहते हैं कि निएंडरथल के सामने सेपिएंस बल में कुछ भी नहीं था और वह चाहता तो उसे मसल कर रख देता। मगर सेपिएंस के पास बुद्धि थी, कौशल था, कल्पनाएं थीं, और बुद्धिमत्ता थी। निएंडरथल के पास शक्ति थी। तो मानव के विकास की कहानी शक्ति और समझ के बीच में संतुलन साध के कदम-दर-कदम बढ़ने की कहानी है।

युवाल नोवा हरारी ने जो बात कही, आज के संदर्भ में उसके गहरे अर्थ हैं। आज एक छोटा-सा वायरस इस पूरे विकास क्रम पर प्रश्नचिह्न लगा रहा है कि हमारी ये यात्रा कितनी लंबी होगी और हमारी चिंताएं साझी हो गई हैं। इस समय उन बातों को समझने की, पलट कर देखने की जरूरत है। सवाल ये है कि सेपिएंस निएंडरथल से ज्यादा समझदार था, तो दूसरे का अस्तित्व खत्म हो गया होगा, परंतु अपने अस्तित्व के लिए अगर उसने खतरा पैदा कर लिया है तो उसके लिए वह कितना जागरूक है? अब कोविड की जो नई चेतावनियां हैं, चीन की जो हालत है, उससे लग रहा है कि सभी के लिए मिल-बैठ कर सोचने का वक्त आ गया है। और यह इसलिए भी जरूरी है क्योंकि पहली दो थर्राहटों से हम चेते नहीं हैं।

आपकी जो वास्तव में चिंताएं हैं, आप अब तक उनको समझ ही नहीं पाए हैं। और मानवता की साझी चिंताएं क्या हो सकती हैं? एक तो इस वायरस से सामूहिकता से लड़ना। दूसरा, समाजों में और जो वायरस पैदा हो गए हैं, उनको बढ़ावा देने से बाज आना। जो शक्ति के बूते समझते हैं कि खास तरह की लामबंदियां करके दुनिया को घुटनों पर लाया जा सकता है या चौधराहट रखी जा सकती है, वे गलत हैं। वे निएंडरथल की तरह ही खत्म हो जाएंगे। परंतु सेपिएंस के तौर पर कौन बचेगा? वह समझ कौन सी है?

समझने वाली बात यह भी है कि पहले जब मानवता के लिए आपदा आती थी, तो बहुत मुनादी करते हुए आती थी। विश्वयुद्धों के नामकरण होते थे- प्रथम विश्वयुद्ध, द्वितीय विश्वयुद्ध, मित्र राष्ट्र, धुरी राष्ट्र। हम उनके मंसूबे, एजेंडे, लामबंदियां देख पाते थे। मगर अब प्रथम, द्वितीय और जो कहा जा रहा था कि तृतीय विश्वयुद्ध पानी के कारण होगा, उससे पहले ही यह आ गया कि तीसरा नहीं, प्रथम या द्वितीय वेब या लहर ही आपको खत्म कर देगी।आपको सोचने-समझने का मौका भी नहीं मिलेगा। एकाएक लगता है कि बहुत समझदारी की बातें हैं, उन तक भी पहुंचने का सफर मानवता तय करेगी या नहीं, जैसे क्या पानी के लिए तीसरा विश्वयुद्ध होगा?

प्रो. सैम्युअल पी. हैटिंगटन के सभ्यताओं का संघर्ष के सिद्धांत से लगता था कि यह शायद सामाजिक विमर्श को चिह्नित करने वाली है, जो सही खतरे के बारे में बता रही है। परंतु अब लग रहा है कि यह जो वायरस है, उसने यह प्रश्न किया है कि आपकी जो वास्तव में चिंताएं हैं, आप अब तक उनको समझ ही नहीं पाए हैं। और मानवता की साझी चिंताएं क्या हो सकती हैं? एक तो इस वायरस से सामूहिकता से लड़ना। दूसरा, समाजों में और जो वायरस पैदा हो गए हैं, उनको बढ़ावा देने से बाज आना। जो शक्ति के बूते समझते हैं कि खास तरह की लामबंदियां करके दुनिया को घुटनों पर लाया जा सकता है या चौधराहट रखी जा सकती है, वे गलत हैं। वे निएंडरथल की तरह ही खत्म हो जाएंगे। परंतु सेपिएंस के तौर पर कौन बचेगा? वह समझ कौन सी है?

सेपिएंस की जो समझ है, उसे व्यक्तिगत हित तक रखेंगे तो खत्म हो जाएंगे। परंतु इन सबके बीच अगर तालमेल का सूत्र पकड़कर सामूहिकता से साथ चलें तो इस लहर को भी और संकटों की हर लहर को पार कर जाएंगे। समझ की यह कड़ी भारतीय चिंतन से जुड़ती है जिसमें जो कमजोर है, उन्हें भी संभालना है और शक्ति है तो वह संभालने के लिए है, दादागीरी के लिए नहीं। और वह सैन्य आधार पर अपना विस्तार नहीं करती, सांस्कृतिक आधार पर विस्तार करती है। और, सांस्कृतिक आधार का मतलब मूर्ति, पत्थर, वास्तुकला ये ही नहीं है। वह मानवता को दोनों हाथों से सहेजते हुए चलती है और उसके लिए मन में करुणा पैदा करती है।

कोविड की पिछली तबाही में भारत के इस सांस्कृतिक चिंतन का पक्ष दुनिया ने देखा था। बड़े-बड़े समृद्ध देशों में लोगों की मौतें हुईं परंतु भारत में गरीबों को भी
टीका मिला जो दुनिया में कभी कोई सोच नहीं सकता। इतना ही नहीं, दुनिया के और जो गरीब देश थे, उनके लिए भी भारत ने टीके की व्यवस्था की, तमाम अन्य सहयोग दिए। यह जो भारतीय चिंतन है, यही भविष्य की पूंजी है। हमें एक वायरस से नहीं लड़ना, हमें उन सभी वायरस से लड़ना है जो मानवता के लिए खतरा हैं। चाहे वह दानवाधिकारों की पैरवी हो, चाहे कट्टरता हो, चाहे शक्ति के बूते सब पर हनक जमाने की बात हो, इन सभी को खत्म करके साझी वैश्विक चिंताओं पर विचार करने की दस्तक है, यह वायरस नहीं है। इस समय भारतीय चिंतन ही पथ-प्रदर्शन करेगा।

@hiteshshankar

Topics: Second World WarIndia Cultural ThoughtFighting VirusThreat to Humanityसंतुलन साधकदम-दर-कदम बढ़ने की कहानीद्वितीय विश्वयुद्धभारत में गरीबकोविड की तबाहीप्रथम विश्वयुद्धIndian cultural thinking is the only solution First World War
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