अमेरिका इस खेल का एक खिलाड़ी बन चुका है। क्यों? अमेरिका के लिए यह खेल कम से कम आर्थिक तौर पर तो बहुत छोटा नहीं है। अमेरिका के लिए मंदी के बावजूद, ताइवान मामले की जितनी लागत है, उससे कहीं ज्यादा उसका दांव पर भी लगा हुआ है। इस बार पैलोसी की यात्रा पर चीन के शोर-शराबे में धमाकों की आवाजें भी शामिल रही हैं। चीन ने इस यात्रा पर धमकी, चेतावनी, कार्रवाई- कोई कसर नहीं छोड़ी है। वास्तव में पैलोसी की यात्रा चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग की आक्रामक विदेश नीति को मुंह चिढ़ाने वाली है।
अमेरिकी प्रतिनिधि सभा की स्पीकर नैंसी पैलोसी और कांग्रेस के प्रतिनिधिमंडल के सदस्यों ने ताइवान पहुंचने पर एक बयान जारी किया। औपचारिक तौर पर नैंसी पैलोसी का कहना था कि ‘दुनिया के सामने दो विकल्प हैं- निरंकुशता और लोकतंत्र।’ माने नैंसी पैलोसी की ताइवान यात्रा अमेरिका के ‘लोकतंत्र-परक’ नारे के अनुरूप थी। परोक्ष, बल्कि उतना परोक्ष भी नहीं, इशारा चीन पर था।
लेकिन परोक्ष अर्थ महत्वपूर्ण है। नैंसी पैलोसी ने ताइवान जाकर एक बहुत बड़ा संकेत दे दिया। इसे न तो चीन-ताइवान के संदर्भ में समझना पर्याप्त होगा, न लोकतंत्र और एक पार्टी शासन के संदर्भ में। वास्तव में इसका एक अतिरिक्त और अंतर्निहित अर्थ है- चीन के सतत विस्तारवाद को दी गई एक बड़ी चुनौती। अमेरिका यह दर्ज कराने में सफल रहा कि चीनी विस्तारवाद को लेकर उसका दृष्टिकोण क्या है। चीन दुनिया का एकमात्र ऐसा देश है, जिसका अपने हर पड़ोसी देश के साथ सीमा विवाद है। सीमा विवाद ही नहीं, सीमा से परे जाकर भी विवाद और उसे आसपास के हर द्वीप और देश को सिर्फ नक्शा बदलकर हड़प लेने की कोशिश करते लगातार देखा जा रहा है।
सिर्फ ताइवान की बात करें, तो प्रश्न सिर्फ यह नहीं है कि ‘वन चाइना’ नीति को कौन मानता है, कितना मानता है और कैसे मानता है? इस नीति का दबाव बनाकर चीन ने दुनिया भर के सभी प्रमुख देशों को ताइवान को मान्यता देने से, या ऐसा कुछ भी करने से, जो ताइवान को परोक्ष मान्यता देता हो, रोक रखा है। जिसके भी, ताइवान के साथ जो भी संबंध हैं, लगभग सारे ‘गैर-आधिकारिक’ स्तर के हैं।
अधिकांश देशों के ताइवान के साथ गहरे व्यापारिक संबंध हैं, आखिर दुनिया भर के अधिकांश इलेक्ट्रॉनिक उपकरण, लैपटॉप, कम्प्यूटर, घड़ियां, सभी में ताइवान में बने कंप्यूटर चिप्स प्रयुक्त होते हैं। लेकिन औपचारिक तौर पर ताइवान के साथ कूटनीतिक संबंध एक-दो देशों को छोड़कर किसी के भी नहीं हैं। सब ऐसे ही चलता आ रहा था।
चीन-अमेरिका आमने-सामने
खेल कैसे बिगड़ा? कोई भी कूटनीतिक-रणनीतिक घटना अचानक नहीं घटती। यह इबारत काफी समय से दीवारों पर लिखी हुई थी कि नई वैश्विक एकमात्र महाशक्ति की पदवी प्राप्त करने के लिए आने वाले समय में चीन और अमेरिका आमने-सामने होंगे। शीत युद्ध की समाप्ति के बाद अमेरिका के नेतृत्व वाला जो एकध्रुवीय विश्व निर्मित हुआ था, वह 2008 की आर्थिक मंदी के बाद से चटकने लगा था।
चीन अमेरिका के लिए चुनौती बनकर उभर चुका है। उसका एक-एक कदम बहुत नाप-तौल पर इसी दिशा में है। लेकिन चीन साथ ही दुनिया भर के कई देशों के लिए एख खतरा भी बनता चला गया। उसकी ‘वन बेल्ट-वन रोड’ नीति अंतत: सिर्फ एक साम्राज्यवादी हथकंडा साबित हुई। जिस देश ने चीन पर विश्वास किया, उसका पतन हुआ और चीन उसकी धरती, संसाधनों और राजनीति पर कुंडली मार कर बैठ गया।
इसके अगले चरण के तौर पर चीन ‘दुनिया का आर्थिक पॉवर-हाउस’ बन कर उभरा। यह वास्तविकता उतनी सरल नहीं है, जितनी कुछ वाक्यों में नजर आ सकती है। चीन को विश्व भर के लिए अंधाधुंध उत्पादन करने, लागत से कम दामों पर उसे दुनिया में ठिकाने लगाने की बहुत बड़ी कीमत अदा करनी पड़ रही है, जो स्वाभाविक है। हालांकि अभी वह इस्पात के परदों में कैद है। इसके बाद चीन बहुआयामी ढंग से अपना वर्चस्व फैलाने में लग गया। दुनिया भर में कन्फ्यूशियस सेंटर खोल कर एक चीन समर्थक लॉबी खड़ी करना, शिक्षा केन्द्रों पर, मीडिया पर, महत्वपूर्ण आर्थिक धमनियों पर कब्जा करना और जहां फिर भी कोई कसर रह जाए, वहां के भ्रष्ट नेताओं को खरीदकर अपने पाले में करना- चीनी हथकंडों ने एक भी मौका नहीं चूका।
तीसरा पहलू रूस। चीन ने दक्षिणी चीन सागर पर अपनी संप्रभुता का लंबा-चौड़ा दावा ठोक दिया। इसके लिए कृत्रिम द्वीप बनाए गए, और फिर अंतरराष्ट्रीय कानूनों का हवाला देकर समुद्र में मौजूद अनुमानित 11 अरब बैरल अप्रयुक्त तेल और 190 ट्रिलियन क्यूबिक फीट प्राकृतिक गैस वाले इस सागर को अपनी घरेलू झील जैसा दर्जा दे दिया। इससे ब्रुनेई, इंडोनेशिया, मलेशिया, फिलीपींस, ताइवान और वियतनाम के न केवल हित, बल्कि उनकी संप्रभुता का भी हनन हुआ। आज चीन का 17 देशों के साथ संप्रभुता को लेकर विवाद चल रहा है।
चीन ने दांव खेला कि इनमें से जिस देश को जो समस्या है, चीन उससे एक-एक करके बात करेगा। छोटे-छोटे देश एक महाशक्ति का क्या मुकाबला करेंगे? इस बीच चीन ने यहां बंदरगाहों, सैन्य प्रतिष्ठानों और हवाई पट्टियों का निर्माण कर डाला। विशेष तौर से पैरासेल और स्प्रैटली द्वीप समूह में। यहां से अमेरिका और जापान ने चीन के लगातार बढ़ते जा रहे क्षेत्रीय दावों और भूमि पर कब्जा करने प्रयासों को चुनौती देना शुरू किया और उधर रूस ने चीन का प्रत्यक्ष-परोक्ष समर्थन करना शुरू कर दिया।
थिएटर बनता ताइवान
अब अगला थिएटर ताइवान बनता जा रहा है, जो तय करेगा कि दुनिया में वर्चस्व किसका है। पैलोसी की यात्रा से एक राजनयिक टकराव शुरू हो गया है। जवाब में बीजिंग ने द्वीप के चारों ओर सैन्य अभ्यास की घोषणा कर दी और चेतावनी दी कि ‘आग से खेलने वाले नष्ट हो जाएंगे’। पैलोसी के ताइवान दौरे के बाद रूस ने भी अमेरिका को चेतावनी जारी कर दी।
एक दृष्टि से इतिहास खुद को दोहरा रहा है। चीनी गृहयुद्ध के समय भी अमेरिका राष्ट्रवादियों के समर्थन में था, जबकि रूस के पूर्वज सोवियत संघ ने कम्युनिस्टों का समर्थन किया था। अमेरिका ने ताइवान का जमकर साथ दिया था, और ताइवान की अर्थव्यवस्था के यहां तक पहुंचने के पीछे अमेरिकी मदद निर्णायक थी। लेकिन फिर जब सोवियत संघ और चीन में दूरियां बढ़ गई थीं, तो अमेरिका के भी चीन से संबंधों में सुधार हो गया था, और ताइवान से अमेरिका के संबंध अनौपचारिक रह गए थे।
लेकिन इस बार ताइवान के लिए यह अस्तित्व का प्रश्न है, या हो सकता है। यह जाहिर है कि पैलोसी की यात्रा भर से ताइवान सुरक्षित नहीं हो जाता है। लेकिन यह भी जाहिर है कि अब अमेरिका इस खेल का एक खिलाड़ी बन चुका है। क्यों? अमेरिका के लिए यह खेल कम से कम आर्थिक तौर पर तो बहुत छोटा नहीं है। अमेरिका के लिए मंदी के बावजूद, ताइवान मामले की जितनी लागत है, उससे कहीं ज्यादा उसका दांव पर भी लगा हुआ है। इस बार पैलोसी की यात्रा पर चीन के शोर-शराबे में धमाकों की आवाजें भी शामिल रही हैं। चीन ने इस यात्रा पर धमकी, चेतावनी, कार्रवाई- कोई कसर नहीं छोड़ी है। वास्तव में पैलोसी की यात्रा चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग की आक्रामक विदेश नीति को मुंह चिढ़ाने वाली है।
मनोवैज्ञानिक युद्ध
अभी की स्थिति में यह एक मनोवैज्ञानिक युद्ध या प्रचार युद्ध है। जिसका पहला राउंड अमेरिका ने तब जीत लिया था, जब तमाम चीनी प्रचार के बावजूद पैलोसी का विमान ताइवानी हवाई अड्ढे पर उतरा था। उससे यह संदेश गया था कि चीनी धमकियां गीदड़-भभकी से ज्यादा महत्व नहीं रखतीं । दूसरे राउंड में चीन उसकी भरपाई करने की कोशिश कर रहा है। साइबर युद्ध और बाकी हथकंडे सारे लागू हैं।
चीन की असली दिक्कतें। एक ताइवान उसकी विस्तारवादी नीति की अग्नि परीक्षा है। दूसरा ताइवान एक खुला समाज है और चीन के लिए उसे हांगकांग के दमन की तरह पचाना बहुत सरल नहीं होगा। तीसरे ताइवान आर्थिक रूप से बहुत मजबूत है, और इस कारण दुनिया भर के लिए महत्वपूर्ण है। बाहरी चक्र का पहलू यह है कि अगर रूस और चीन के बीच सामरिक गठबंधन पुन: उभरता है, तो पश्चिम उसे आसानी से स्वीकार नहीं कर सकेगा।
माने यह मनोवैज्ञानिक युद्ध – प्रचार युद्ध – साइबर युद्ध अभी जारी रहेगा। कहा जा सकता है कि अभी सिर्फ पहला राउंड हुआ है।
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