1857 का प्रथम स्वातंत्र्य समर 11 मई को मेरठ से प्रारम्भ हुआ। दिल्ली इस समर के प्रमुख केंद्रों में से एक था। जब दिल्ली स्वतंत्र हुई उसके बाद ब्रिटिश सेना का भरसक प्रयास रहा कि वह पुनः अंग्रेजों के अधीन हो जाएं और क्रांतिकारियों के विशेष प्रयास रहा कि दिल्ली स्वतंत्र रहे। इससे अनुमान लगा सकते हैं कि उस समय दिल्ली की क्या महत्ता रही होगी। दिल्ली कैसे स्वतंत्र हुई? आइए विचार करते हैं।
10 मई को मेरठ की गुप्त समिति की ओर से दिल्ली की गुप्त समिति को संदेश आता है कि “हम कल आ रहे हैं, तैयारी रखो!” यह पूर्व और आकस्मिक सन्देश पहुंचते-न-पहुंचते 11 मई को मेरठ से दो हजार सैनिक ‘दिल्ली! दिल्ली!!’ की गर्जना करते हुए निकल गए। मेरठ से दिल्ली 32 मिल दूर है। प्रातः के आठ बजे सेना के प्रमुख भाग को दिल्ली की सीमा पर यमुना जी के दर्शन हुए। मेरठ से सैनिक दिल्ली आ रहे हैं यह भनक लगते ही 54वीं पलटन को लेकर कर्नल रिप्ले विद्रोहियों के सामना करने निकला। मेरठ की सेना ने ‘फिरंगी का नाश हो’ ‘बादशाह की जय हो’ के नारे लगाए। ये नारे सुनते ही दिल्ली की सेना ने ‘मारो फिरंगी को’ की प्रति गर्जना की। यह क्या है? कहने वाला कर्नल रिप्ले क्षण में गोलियों की बौछार से भूमि पर गिर गया और उस रेजिमेंट के सारे अंग्रेज सैनिकों का कत्ल कर दिया गया। यह समाचार सुनते ही दिल्ली का कश्मीरी दरवाजा खुल गया और इस इतिहास-प्रसिद्ध दरवाजे से स्वतंत्रता योद्धा दिल्ली में प्रवेश कर गए। मेरठ सेना की दूसरी टुकड़ी ने कलकत्ता दरवाजे से दिल्ली में प्रवेश किया।
दिल्ली के राजमहल में पहुंचकर भारतीय सैनिकों के नेता ने बादशाह बहादुरशाह जफर के सामने कहा- “मेरठ अंग्रेजों से मुक्त हो गया है। दिल्ली अपने हाथ में है और पेशावर से कलकत्ता तक के सारे सिपाही आपके आदेश की राह देख रहे हैं।” आगे बादशाह ने कहा, “मेरे पास खजाना नहीं है और तुम्हें वेतन भी नहीं मिलेगा”। तब सैनिक बोले- “हम अंग्रेजों का खजाना लूटेंगे और आपके खजाने में भरेंगे”। “तो फिर आपका नेतृत्व मैं स्वीकार करता हूं”। ऐसा अभिवचन सुनकर उस वृद्ध बादशाह से मिलते ही उस राजभवन में जमा उस प्रचंड जनसमूह ने बड़े जोर से गर्जना की। दिन के बारह बजे के आसपास दिल्ली के बैंक पर सैनिकों ने हमला किया। बैंक मैनेजर और उसके परिवार को मार दिया गया। वह भवन भी नष्ट कर दिया गया। फिर ‘दिल्ली गजट’ के छापेखाने को निशाना बनाया गया। कुछ ही देर में छापेखाने का हर ईसाई चीर दिया गया। वहां की सभी मशीनें नष्ट कर दी गई। साथ खड़ी चर्च पर हमला हुआ। चर्च के सारे घंटे टूटकर नीचे गिरने के बाद उनके गिरने की आवाज के साथ वे सैनिक भी विकट हास्य करते हुए एक-दूसरे को कहने लगे – “कैसा तमाशा है! क्या मजा है!!”
राजमहल के एक ओर अंग्रेजी सेना के लिए तैयार किया हुआ एक बारुदखाना था। इस बारुदखाने में लड़ाई में आवश्यक सारा सामान ठूस-ठूस कर भरा हुआ था। उसमें कम से कम नौ लाख कारतूस, आठ-दस हजार बंदूकें, तोपें और सीजन ट्रेन भरी हुई थीं। क्रांतिवीरों ने यह बारुदखाना अपने कब्जे में लेने का दृढ़ संकल्प किया। बारुदखाने के अंदर नौ अंग्रेज और कुछ भारतीय लोग थे। जब भारतीय सैनिक हमला करने लगे तो अंग्रेज सैनिकों ने बारुदखाने को स्वयं सुलग दिया और उस एक आवाज के साथ पच्चीस सिपाही व आसपास के तीन सौ व्यक्ति आकाश में उड़ गए। क्रांतिपक्ष वालों ने उस बारुदखाने की आग में जान-बूझकर जो अपना नाश करवा लिया वह यों ही नहीं था। इस बारूद के विस्फोट में जो लोग बलि हुए उनके आत्मयज्ञ से इस क्रांति को अपूर्व शक्ति मिली। जब तक यह प्रचंड बारुदखाना अंग्रेजों के अधीन था तब तक मुख्य केंद्र के नेटिव सैनिक अंग्रेज अधिकारियों की अधीनता में थे। अपराह्न चार बजे दिल्ली शहर हिलाने वाले विस्फोट की आवाज सुनते ही केंटोनमेंट के सैनिक एकत्र हुए और ‘मारो फिरंगी को’ की गर्जना करते हुए अंग्रेजों पर टूट पड़े। मुख्य रक्षक गार्डन को किसी ने उड़ा दिया। स्मिथ और रेह्वले को मार डाला और गोरा रंग दिखते ही ‘टूट पड़ो-मार डालो’ की ध्वनि होने लगी।
क्रांतिकारियों को जहां-जहां ब्रिटिश सैनिक, लोग या उनसे संबंधित जो भी दिखा, उसे मार दिया गया। दिल्ली के सैंकड़ों लोग घर में जो शस्त्र मिले वही लेकर विद्रोहियों सैनिकों से मिल रहे थे और यूरोपीय लोगों को काट डालने के लिए यहां-वहां घूम रहे थे। 11 मई को अंग्रेजों के कत्लेआम का आरंभ होकर उसकी पूर्णाहुति 16 मई को हुई। इस बीच सैकड़ों अंग्रेज अपनी जान बचाकर दिल्ली से भाग गए। किसी ने मुंह काला कर नेटिव होने का स्वांग रचा, कोई जंगल-जंगल भागता धूप के कारण मर गया। मेरठ की महिलाओं से दिल्ली के बादशाह तक सबके हृदय में स्वतंत्रता और स्वधर्म-रक्षण की इच्छा होने से तथा उस इच्छा को गुप्त संगठन के द्वारा व्यवस्था प्राप्त होने से केवल पांच दिनों के अंदर हिंदुस्थान की इतिहास-प्रसिद्ध राजधानी में स्वराज्य की प्राण प्रतिष्ठा हो पाई। 16 मई 1857 को दिल्ली में फिरंगी सत्ता का एक भी चिन्ह शेष नहीं रहा था।
इन पांच दिनों में हिंदुस्तान में लोकशक्ति का प्रथमोदय हुआ। अपने पर कौन राज्य करे, इस प्रश्न का निर्णय करने का कार्य लोकपक्ष का था। लोकपक्ष ने ही उस राज सिंहासन पर स्वसम्मत पुरुषार्थ की योजना की। ये पांच दिन हिन्दुस्थान के इतिहास में हमेशा चिरस्मरणीय रहें।
(लेखक विद्या भारती हरियाणा प्रान्त के संगठन मंत्री और विद्या भारती प्रचार विभाग की केन्द्रीय टोली के सदस्य हैं।)
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