—नरेन्द्र सहगल
तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा 25 जून, 1975 को समूचे देश में थोपा गया आपातकाल एकतरफा सरकारी अत्याचारों का पर्याय बन गया। इस सत्ता प्रायोजित आतंकवाद को समाप्त करने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा संचालित किया गया सफल भूमिगत आन्दोलन इतिहास का एक महत्वपूर्ण पृष्ठ बन गया। सत्ता के इशारे पर बेकसूर जनता पर जुल्म ढा रही पुलिस की नजरों से बचकर भूमिगत आन्दोलन का संचालन करना कितना कठिन हुआ होगा इसका अंदाजा लगाया जा सकता है।
भूमिगत प्रेस
सरकार ने प्रेस की आजादी का गला घोंटकर आपातकाल से सम्बंधित सभी प्रकार की खबरों पर प्रतिबन्ध लगा दिया। जिन अख़बारों तथा पत्रिकाओं ने आपातकाल की घोषणा का समाचार छापा उन पर तुरन्त ताले जड़ दिए गए। राष्ट्रवादी अथवा प्रखर देशभक्त पत्रकारों को घरों से उठाकर जेलों में बंद कर दिया गया। जनता की आवाज पूर्णतया खामोश कर दी गयी। जनसंघर्ष/ सत्याग्रह की सूचनाओं और समाचारों को जनता तक पहुंचाने के लिए संघ के कार्यकर्ताओं ने लोकवाणी, जनवाणी, जनसंघर्ष इत्यादि नामों से भूमिगत पत्र—पत्रिकाएं प्रारंभ कर दीं।
इन पत्र—पत्रिकाओं को देर रात के अंधेरे में छापा जाता था। कहीं-कहीं तो हाथ से लिखकर भी पर्चे बंटे जाते थे। साइक्लो स्टाइल मशीन से छापे गए इन पत्रों को संघ के बाल स्वयंसेवक घर— घर बांटने जाते थे। इन्ही पत्रों में सत्याग्रह की सूचना, संख्या, स्थान इत्यादि की जानकारी होती थी। देशभर में छपने और बंटने वाले इन पत्रों ने तानाशाही की जड़ें हिलाकर रख दीं।
कई स्थानों पर छापे पड़े, कार्यकर्त्ता पकड़े गए, बाल स्वयंसेवक भी पत्र बांटते हुए गिरफ्तार कर लिए गए। देश के विभिन्न स्थानों पर 500 से ज्यादा बाल एवं शिशु स्वयंसेवकों को भी हिरासत में लेकर यातनाएं दी गईं। इन वीभत्स यातनाओं को बर्दाश्त करने वाले इन स्वयंसेवकों ने कहीं भी कोई भी जानकारी पुलिस को नहीं दी। भूमिगत पत्र—पत्रिकाओं द्वारा आपातकाल में हो रहे पुलिसिया कहर की जानकारी आम जनता तक पहुंचा दी जाती थी।
भूमिगत बैठकें
जनांदोलन को संचालित करने से सम्बंधित प्रत्येक प्रकार की व्यवस्था के लिए बैठकों का आयोजन होता था। ये बैठकें मंदिरों की छतों, पार्कों, जेल में जा चुके कार्यकर्ताओं के घरों, श्मशान घाटों इत्यादि स्थानों पर होती थीं। भूमिगत कार्यकर्ताओं ने अपने नाम, वेशभूषा, यहां तक कि अपनी भाषा भी बदल ली थी। एक रोचक अनुभव ऐसे रहा। एक बैठक स्थान के बाहर कार्यकर्ताओं ने अपने जूते पंक्ति में रख दिए। एक सीआईडी वाला समझ गया कि भीतर ‘संघी’ ही होंगे। उसकी सूचना पर सभी गिरफ्तार हो गए। इस घटना के बाद जूते अपने साथ ही रखने की सूचना दी गयी। ये बैठकें ऐसे स्थान पर होती थीं जिसके दो रास्ते हों, ताकि विपत्ति के समय दूसरे रास्ते से निकला जा सके। इन बैठकों में सत्याग्रहियों की सूची, उनके घरों की व्यवस्था, धन इत्यादि का बंदोबस्त और अधिकारीयों के गुप्त प्रवास इत्यदि विषयों पर विचार होता था। बैठकों के स्थानों को भी बार—बार बदलते रहना पड़ता था।
भूमिगत गुप्तचर विभाग
जनांदोलन का प्रत्येक सक्रिय कार्यकर्ता विशेषतया संघ के स्वयंसेवकों की टोह लेने के लिए पुलिस का गुप्तचर विभाग बहुत सक्रिय रहता था। सत्याग्रह से पहले ही गिरफ्तारियां करना, गली मोहल्लें वालों से पूछताछ करना, भूमिगत स्वयंसेवकों के ठहरने का, उठने-बैठने, खाने इत्यादि के स्थानों की जानकारी लेकर सत्याग्रह को किसी भी प्रकार से विफल करने का प्रयास होता था । अतः सरकारी गुप्तचरों की गतिविधियों पर नज़र रखने के लिय संघ ने भी अपना गुप्तचर विभाग बना लिया। वेश बदलकर पुलिस थानों में जाना, पुलिस अफसरों के साथ दोस्ताना सम्बन्ध बनाना और सत्याग्रह के समय पुलिस की तादाद की पूर्ण जानकारी ले ली जाती थी। कई बार तो जानबूझकर सत्याग्रह के स्थान की गलत जानकारी दी जाती थी। संघ के इस गुप्तचर विभाग में ऐसे वृद्ध स्वयंसेवक कार्यरत थे जो शारीरिक दृष्टि से कमजोर होने पर सत्याग्रह नहीं कर सकते थे।
सत्याग्रहियों के परिवारों की देखभाल
पुलिस द्वारा पकडे जाने अथवा सत्याग्रह करके जेलों में जाने वाले अनेक स्वयंसेवकों की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी। परिवार में एक ही कमाने वाला होने के कारण दाल—रोटी, बच्चों की फ़ीस, मकान का किराया इत्यादि संकट आते थे। संघ की ओर से एक सहायता कोष की स्थापना की गयी। संघ के धनाढ्य स्वयंसेवकों ने इस अति महत्वपूर्ण कार्य को संपन्न करने का बीड़ा उठाया। ऐसे परिवार जिनका कमाने वाला सदस्य जेल में चला गया, उस परिवार की सम्मानपूर्वक आर्थिक व्यवस्था कर दी गयी। ऐसे भी परिवार हैं जिनके बच्चों ने स्वयं मेहनत करके पूरे 19 महीने तक घर में पिता की कमी महसूस नहीं होने दी। इधर पुलिस ने ऐसे लोगों को भी पकड़कर जेल में ठूंस दिया जो इन जरूरतमंद परिवारों की मदद करते थे। उल्लेखनीय है कि स्वयंसेवकों ने एक—दूसरे की सहायता अपना राष्ट्रीय एवं संगठात्मक कर्तव्य समझकर की।
रामसेवा समिति
संघ पर प्रतिबन्ध लग चुका था। स्वयंसेवक आपातकाल के विरुद्ध संघर्ष कर रहे थे। पुलिसिया कहर अपने चरम सीमा पर था। ऐसे में संगठन के काम में अनेक प्रकार की बाधाएं आना स्वाभाविक ही थीं। शाखाएं लगाना संभव नहीं था। इस संकट से निपटने के लिए ‘राम सेवा समिति’ (आरएसएस) का गठन किया गया। इसी नाम से पार्कों, मंदिरों इत्यादि स्थानों पर योग कक्षाएं, वॉलीबाल, बैडमिन्टन इत्यादि के कार्यक्रम प्रारंभ हो गए अर्थात संगठन और संघर्ष को एक साथ चलाने की नीति पर संघ सफ़ल हुआ। परिणामस्वरूप सरकार झुकी, आपातकाल हटाया गया और चुनावों की घोषणा हो गयी।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और आपातकाल में 16 महीने जेल में रहे हैं)
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