भारतीय मनीषियों ने योग की महत्ता प्रतिपादित करते हुए इसकी तुलना मृग की नाभि में बसी कस्तूरी से की है। जिस तरह मृग उस दिव्य सुगंध की खोज में पूरे वन में मारा-मारा फिरता है; ठीक वैसे ही योग जैसी अमूल्य विभूति जो हमें हमारे भीतर छुपी अनंत संपदाओं से परिचित करा सकती है; उसे विस्मृत कर तरह तरह की सांसारिक मृगतृष्णाओं में भटकते रहते हैं। भारत की सनातन हिन्दू संस्कृति में ‘’योग’’ की भौतिक व आध्यात्मिक महत्ता को प्रतिपादित करते हुए जाने-माने आध्यात्मिक विचारक जग्गी वसुदेव कहते हैं कि आज ने मानव की स्थिति उस भिक्षुक के समान हो गयी है, जिसके घर के एक कोने में अथाह धन-संपदा छिपी हो लेकिन जानकारी के अभाव में वह भीख मांगता फिरे। सामान्यतया योग का शाब्दिक अर्थ होता है जोड़ना; किन्तु आत्मा से परमात्मा के जुड़ाव की इस अद्भुत जीवनीविद्या का समूचा ज्ञान-विज्ञान अपने आप में अनूठा है।
मृत्युंजय सदाशिव और योगविद्या का तत्वज्ञान
ऋग्वेद के अनुसार योगविद्या का शुभारम्भ आदियोगी मृत्युंजय सदाशिव ने किया था। वैदिक साक्ष्य बताते हैं कि आदिकाल में सर्वप्रथम देवाधिदेव शिव ने हिमालय के पवित्र वातावरण में इस परम ज्ञान की सिद्धि प्राप्त की थी। इसके बाद उन्होंने उस साधनाभूमि में तपस्यारत वैदिक भारत के सात महान ऋषियों (कश्यप, अत्रि, भारद्वाज, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि तथा वसिष्ठ) को केदारनाथ के कांति सरोवर के तट पर योग विद्या में दीक्षित किया था। आदियोगी के निर्देश पर उन सात महान ऋषियों ने आत्मा और परमात्मा के मिलन के उस दिव्य तत्वज्ञान को सम्पूर्ण आर्यावर्त समेत समूची दुनिया में प्रचारित किया था। इन तत्वज्ञ ऋषियों ने यह तथ्य प्रतिपादित किया कि मनुष्य केवल शरीर नहीं, मन भी है और आत्मा भी है। मनुष्य सबसे बड़ी भूल तब करता है जब वह स्वयं को केवल शरीर समझ लेता है। इसी नितांत भौतिकवाद के कारण समाज में स्वार्थ, भ्रष्टाचार, छल -कपट, ईर्ष्या-द्वेष तथा धन के प्रति अनियंत्रित आसक्ति पैदा होती है। हम जीवनभर शरीर के साथ रहते हैं पर उससे सच्चा परिचय नहीं हो पाता।
श्रीमद्भागवद्गीता और योग
श्रीमद्भगवद् गीता को यदि योग का मुख्य ग्रन्थ कहा जाये तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। गीता के अठारह अध्यायों में प्रत्येक अध्याय को योग की संज्ञा दी गयी है। स्वयं महर्षि व्यास महाभारत के शान्तिपर्व में कहते हैं- ‘‘विद्या योगेन रक्षति’’ अर्थात् योग से ज्ञान की रक्षा होती है। योगेश्वर श्रीकृष्ण युद्धभूमि में मोहग्रस्त अर्जुन को योग की महत्ता बताते हुए कहते हैं कि स्वयं उन्होंने ही आदिकाल में इसका उपदेश सूर्य नारायण को दिया था, सूर्य ने अपने पुत्र वैवस्वत मनु को और मनु ने अपने पुत्र राजा इक्ष्वाकु को इसे दिया। गीता के दूसरे अध्याय में श्रीकृष्ण योग को परिभाषित करते हैं- योगः कर्मसु कौशलम्’ अर्थात् योग से कर्म में कुशलता आती है। एक अन्य स्थान पर वे कहते हैं, ‘सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते’ यानी अंतःकरण की शुद्धि से ज्ञान मिले, न मिले-दोनों ही दशाओं में सम रहे, यही योग है। योग की एक अन्य महत्त्वपूर्ण परिभाषा देते हुए गीता के छठे अध्याय में भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं- “दु:खसंयोगवियोगं योगसंज्ञितम्।” अर्थात मनुष्य जीवन पर्यन्त दु:खों से संयोग बना रहता है। दु:खों के इसी संयोग का पूर्णत: वियोग हो जाना, दु:खों की सदा के लिए समाप्ति हो जाना ही योग है। गीता में योग शब्द को अनेक अर्थ में प्रयोग किया गया है परन्तु मुख्य रूप से गीता में ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग इन तीन योग मार्गों का विस्तृत रूप में वर्णन किया गया है। कृष्ण ने अर्जुन को कर्म योग, ज्ञान योग और भक्ति योग की शिक्षा दी। ये तीन ही रास्ते हैं जो जन्म-मरण के चक्र से आत्मा को बाहर निकालकर परमात्मा तक ले जा सकते हैं। कर्म करें उसे परमात्मा से जोड़ दें, ये कर्म योग है। ज्ञान प्राप्त करें और उसका आधार परमात्मा हो, ये ज्ञान योग है। भक्ति में हमारा मन उसी परमात्मा की स्तुति करे, प्राणी मात्र में उसके दर्शन हो जाएं, ये भक्ति योग है। कृष्ण का जीवन और गीता का उपदेश इन्हीं तीन उपायों पर टिका है। पूरी महाभारत में भगवान के तीन मित्र हैं- अर्जुन, उद्धव और सुदामा। अर्जुन कर्म का प्रतीक हैं, उद्धव ज्ञान के और सुदामा भक्ति के। उनके ये तीन मित्र हमें जीवन को सही रास्ते पर ले जाते हैं। इसी तरह कृष्ण के जीवन की तीन महिलाएं – द्रौपदी, राधा और कुंती। द्रौपदी कर्म की प्रतीक हैं, राधा भक्ति की और कुंती ज्ञान की। कृष्ण का संपूर्ण जीवन और गीता का सार तत्व इन तीनों योगों पर ही टिका है।
महर्षि पतंजलि का अष्टांग योग
महर्षि पतंजलि ने सबसे पहले योग विद्या को व्यवस्थित रूप दिया। उपलब्ध साक्ष्य बताते हैं कि महर्षि पतंजलि ने उस समय विद्यमान योग की विधियां, परम्पराओं व संबंधित ज्ञान को व्यवस्थित रूप में लिपिबद्ध किया। एक समय ऐसा आया कि योग की तकरीबन 1700 विधाएं तैयार हो गयीं। योग में आई जटिलता को देख कर पतंजलि ने मात्र 200 सूत्रों में पूरे योग शास्त्र को समेट दिया। इंसान की अंदरूनी प्रणालियों के बारे में जो कुछ भी बताया जा सकता था वो सब इन सूत्रों में शामिल है। पतंजलि के अष्टांग योग में धर्म और दर्शन की सभी विद्याओं के समावेश के साथ-साथ मानव शरीर और मन के विज्ञान का भी सम्मिश्रण है। 200 ईसा पूर्व के दौरान ही पतंजलि ने योग क्रियाओं को योग-सूत्र नामक ग्रन्थ में लिपिबद्ध कर दिया था। पतंजलि द्वारा लिखित “योगसूत्र” योग दर्शन का पहला सबसे व्यवस्थित और वैज्ञानिक अध्ययन माना जाता है। योगदर्शन चार विस्तृत भागों में विभाजित है- समाधिपद, साधनपद, विभूतिपद और कैवल्यपद। समाधिपद का मुख्य विषय मन की विभिन्न वृत्तियों का नियमित कर साधक को समाधि के द्वारा आत्मसाक्षात्कार करना है। साधनपद में पांच बहिरंग साधन- यम, नियम, आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार का पूर्ण वर्णन है। विभूतिपद में अंतरंग की धारणा ध्यान और समाधि का पूर्ण वर्णन है। इसमें योग को करने से प्राप्त होने वाली सभी सिद्धियों का भी वर्णन है। कैवल्यपद मुक्ति की वह सबसे उच्च अवस्था है जहां योग साधक जीवन के मूल स्रोत से एकीकरण हो जाता है। योग-सूत्र ग्रन्थ के रचनाकार होने की वजह से महर्षि पतंजलि को योग का पिता कहा जाता है।
जैन धर्म की पांच प्रतिज्ञाओं और भगवान बुद्ध का आष्टांगिक मार्ग भी पतंजलि योगसूत्र में समाहित है। पतंजलि के अष्टांग योग के ये आठ अंग हैं- 1. यम 2. नियम 3. आसन 4. प्राणायाम 5. प्रत्याहार 6. धारणा 7. ध्यान 8. समाधि। हालांकि वर्तमान समय में योग में आसन, प्राणायाम और ध्यान; इन तीन मुद्राओं को ही प्रमुखता दी जाती है। योग शास्त्र में 84 प्राणायाम प्रमुख माने गये हैं, लेकिन इनमें भी अनुलोम-विलोम, भस्त्रिका, कपालभाति, उद्गीत, नाड़ीशोधन, भ्रामरी, बाह्य और प्रणव प्राणायाम का महत्व अधिक है। मुद्रा चिकित्सा योग साधना का पांचवां सोपान है। ‘घेरंड संहिता’, ‘शिव संहिता’, ‘गोरक्ष पद्धति’ आदि ग्रंथों में मुद्रा और बंध का विस्तार से उल्लेख है। बंधों में ‘मूल बंध’, ‘जालंधर बंध’ और ‘उड्डियान बंध’ का महत्व अधिक है।
योग विज्ञान का उत्कर्ष
सिंधु घाटी सभ्यता से लेकर वैदिक एवं उपनिषद की विरासत, बौद्ध एवं जैन परंपराओं, दर्शनों, महाभारत एवं रामायण नामक महाकाव्यों, शैवों, वैष्णवों की आस्तिक परंपराओं एवं तांत्रिक परंपराओं में योग की प्रचुर मौजूदगी मिलती है। वैदिक संस्कृति में सूर्य नमस्कार प्राणायाम दैनिक संस्कार का अभिन्न हिस्सा था। 800 से 1700 ईसवी के बीच की अवधि में योग विज्ञान का उत्कृष्ट विकास हुआ। इस अवधि में आदि शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, सुदर्शन, पुरंदर दास, हठयोग परंपरा के गोरखनाथ, मत्स्येंद्रनाथ, गौरांगी नाथ, श्रीनिवास भट्ट आदि ने हठयोग की परंपरा को लोकप्रिय बनाया। इसके बाद 1700-1900 ईसवी के बीच रमन महर्षि, रामकृष्ण परमहंस, परमहंस योगानंद, लाहिड़ी महाशय व विवेकानंद जैसे महान योगाचार्यों आदि ने राजयोग के विकास में योगदान दिया है। इस अवधि में वेदांत, भक्तियोग, नाथयोग व हठयोग समूचे देश में फला फूला। बीसवीं सदी में श्री टी. कृष्णम आचार्य, स्वामी कुवालयनंदा, श्री योगेंद्र, स्वामीराम, श्री अरविंदो, महर्षि महेश योगी, आचार्य रजनीश, पट्टाभिजोइस, बी. के. एस. आयंगर, स्वामी सत्येंद्र सरस्वती आदि जैसी महान हस्तियों ने योग को पूरी दुनिया में फैलाया था। वर्तमान में योग को जन जन तक पहुंचाने का श्रेय मुख्य रूप से बीकेएस अयंगर और बाबा रामदेव सरीखे योग गुरुओं को जाता है, जिन्होंने योग का सरलीकरण कर इसे देश-विदेश में पहुंचा दिया।
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