चालीस साल पहले जो पंजाब अलगाववाद एवं आतंकवाद की चपेट में था, अनेकों के बलिदान एवं प्रयासों के बाद पंजाब में शांति स्थापित हुई। उसी पंजाब में एक बार फिर अलगाववाद की चिंगारी सुलग उठी है। ‘आपरेशन ब्लू स्टार’ की 38वीं बरसी पर स्वर्ण मंदिर में खालिस्तान समर्थक नारे लगे। पंजाब के हालात बिगड़ते जा रहे हैं। पृथक खालिस्तान बनाए जाने की मांग उठ रही है। आम आदमी पार्टी के शासन में समूचे पंजाब में रह-रह कर आक्रामक, विघटनकारी, अलगाववादी आग सुलग रही है। ईमानदारी से सोचना होगा कि पंजाब में अलगाव को भड़काने का यह मौका कैसे मिला? किसने यह आग लगाई? पाकिस्तान का भी ध्यान कश्मीर के साथ-साथ अब पंजाब पर केन्द्रित है। वह पंजाब में अशांति, आतंकवाद एवं हिंसा भड़काने के नए-नए षड़यंत्र कर रहा है। पाकिस्तान अपने यहां प्रशिक्षित आतंकियों को पंजाब की सीमाओं से घुसपैठ कराकर या फिर यहां युवाओं को गुमराह कर अस्थिरता पैदा करने की लगातार कोशिश कर रहा है। इन हालातों में भड़कने और भड़काने से बचना होगा। राजनीतिक स्वार्थों एवं संकीर्णताओं से ऊपर उठकर सोचना होगा।
करीब महीना भर पहले ही पटियाला में ‘सिख फार जस्टिस’ के स्थापना दिवस पर रैली निकाली गई थी, जिसके विरोध में उतरे शिवसेना (बाला साहब) के कार्यकर्ताओं के साथ भिड़ंत हुई और खूब पत्थर चले, तलवारें लहराई गईं। रोपड़ स्थित मिनी सचिवालय परिसर के बाहर खालिस्तान के बैनर मिले। यहां उपायुक्त और वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक के कार्यालयों के अलावा जिला अदालतें भी हैं। परिसर की चारदीवारी के बाहर लगे पेड़ों पर बैनर लगाए गए। समूचा पंजाब ऐसी ही अराजकता एवं अलगाववाद से रू-ब-रू हो रहा है।
स्वर्ण मंदिर में कट्टरपंथी सिख संगठनों के अलावा शिरोमणि अकाली दल (अमृतसर) ने भी हिस्सा लिया। अकाल तख्त के जत्थेदार ने ‘सिख राज’ की मांग उठाते हुए कहा कि इस बार सिख युवकों को बकायदा हथियार चलाने का प्रशिक्षण दिया जाएगा। इस मौके पर खालिस्तान के समर्थन में तख्तियां लहराई गईं, कई युवा भिंडरावाले की तस्वीर वाली टी-शर्ट पहन कर आए थे। तलवारें भी लहराई गईं। प्रश्न है कि AAP की सरकार बनने के बाद ही ये अलगाववादी ताकतें क्यों सक्रिय हुई हैं? कहीं पंजाब सरकार के मन में अलगाववादी ताकतों को लेकर कोई सहानुभूति या पूर्वाग्रह की भावना तो नहीं। पंजाब विधानसभा चुनाव के वक्त आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल पर खालिस्तान समर्थकों से नजदीकी की बात क्या सच थी? अगर ऐसा है, तो यह न केवल पंजाब, बल्कि पूरे देश के लिए खतरनाक साबित हो सकता है। भारत जैसे गणतंत्र में कोई भी राज्य इस तरह अलग होने या स्वतंत्र राज की मांग कैसे उठा सकता है?
सर्वविदित है कि खालिस्तान समर्थक कट्टरपंथी संगठनों को विदेशों से बड़ी मात्रा में सहायता मिल रही है। किसान आन्दोलन के समय भी पंजाब के किसानों के दिल्ली की बॉर्डरों पर चले महीनों के प्रदर्शनों में इन्हीं भारत विरोधी विदेशी शक्तियों ने करोड़ों रुपयों की सहायता भेजी थी। तथ्य तो यह भी सामने आया कि सिख फार जस्टिस के नेता पन्नू के पाकिस्तानी आतंकवादी संगठनों से संबंध हैं। इन त्रासद स्थितियों का सामना देश की जनता कर रही है, साम्प्रदायिकता, अलगाववाद एवं आतंकवाद से देश को कमजोर करने वाले राजनीतिक दल किस तरह जनता को गुमराह करते हुए सत्ता पर काबिज हो जाते हैं, इसका उदाहरण पंजाब है। करीब चालीस साल पहले पंजाब अलगाववाद की आग में झुलस चुका है। बहुत सारे परिवार उजड़ गए, बहुत सारे युवक गुमराह होकर अपना भविष्य बर्बाद कर चुके। पंजाब की हरीमिता खून की लालिमा ओढ़ चुकी थी। बड़ी मुश्किल से पंजाब पटरी पर लौटा। अगर फिर से वहां वह आग भड़कती है, तो भयावह नतीजे भुगतने होंगे। हैरानी की बात है कि पंजाब में नई सरकार आने के बाद ही वहां अलगाववादी ताकतें क्यों सक्रिय हो उठी हैं।
तथाकथित राजनीतिक दलों द्वारा साम्प्रदायिक दंगे भारत की कुण्डली में स्थायी रूप से लिख दिए जाते हैं। दंगे सड़कों पर कम इन विकृत एवं सत्तालोलुप दिमागों में ज्यादा होते हैं, जिनसे जनमानस विकृत हो गया है। कमोबेश सभी लोग साम्प्रदायिक बन गए हैं। ‘सम्प्रदायविहीनता एवं धर्म-निरपेक्षता’ लगता है शब्दकोश में ही रह जाएंगे। एक हत्या को दूसरी हत्या से रद्द नहीं किया जा सकता और दो गलतियां मिलकर कभी एक सही काम नहीं कर सकतीं। देश में अलग प्रान्त की मांग का एक ऐसा सिलसिला शुरू हो गया है जिसका कोई सिरा नजर नहीं आता। मांगों के साथ ही पूर्व नियोजित हिंसा शुरू हो जाती है। प्रान्त नहीं मानो मकान हो गए, जो अलगाववादी अपना अलग बनाना चाहता है। चारदीवारी पर छत डालकर दरवाजे पर शीघ्र अपनी ‘नेम-प्लेट’ लगाने के लिए उत्सुक है। यह उन्माद देश की एकता, अखंडता, सार्वभौमिकता के लिए चुनौती है।
पंजाब में आतंकवाद जितना लम्बा चला, वह क्रोनिक होकर भारतीय जीवनशैली का अंग बन गया था। इसमें ज्यादातर वे युवक थे जो जीवन में अच्छा-बुरा देखने लायक बन पाते, उससे पहले उनके हाथों में एके-47 थमा दी जाती थी। फिर जो भी यह करते थे, वह कोई गुरबानी नहीं कहती। आखिर कोई भी पूज्य ग्रन्थ उनके साथ नहीं हो सकता जो उसके पवित्र पृष्ठों को खून के छीटों से भर दे। आज तक किसी आतंकवादी के मारे जाने पर या भाग जाने पर जो चीजें मिलीं, उनमें हथियार थे, शराब थी, अश्लील साहित्य था- लेकिन गुरबाणी का गुटका किसी के पास से नहीं मिला। एक बार फिर पंजाब के युवकों को गुरबाणी से दूर करने की कुचेष्टा हो रही है, जिसे नाकाम करना पंजाब ही नहीं, समूचे देश का दायित्व है। सोचने की बात है कि कहीं ये सत्ता के भूखे राजनेता महावीर, बुद्ध, गांधी और नानक के देश एवं प्रांत रूपी खूबसूरत बगीचे को कहीं अलगाव का प्रान्त, घृणा का मजहब, हिंसा की सड़क तो नहीं बना रहे हैं? अंधेरा कभी जीता नहीं जाता। किसी को भयभीत नहीं करके ही स्वयं भयरहित रहा जा सकता है।
पंजाब में सुलगती अलगाव की आग एवं हिंसक-अराजक घटनाएं केंद्र और राज्य दोनों सरकारों के लिए गंभीर चिन्ता का विषय एवं चेतावनी हैं। पटियाला हिंसा के बाद राज्य सरकार ने जरूर उपद्रवियों के खिलाफ सख्त कदम उठाने का दम भरा था, कुछ कार्रवाई भी हुईं, पर उसका कोई सख्त संदेश नहीं जा पाया। उसी का नतीजा है कि स्वर्ण मंदिर परिसर में फिर से अलगाववाद की आग भड़काने का प्रयास किया गया। अब भी वहां की सरकार सख्त नजर नहीं आ रही है। अगर सिख फार जस्टिस और दूसरे कट्टरपंथी, अलगाववादी संगठनों के प्रति नरम रवैया अपनाया गया और वे इसी तरह अपना दायरा बढ़ाते गए, तो उनके जरिए पाकिस्तान जैसे देश अपने मंसूबे पूरे करने की कोशिश करेंगे। आतंकवाद पर नकेल कसना पहले ही सरकार के सामने बड़ी चुनौती है, जिस पर एक शांत हो चुके मामले की राख कुरेद कर कोई फिर से आग जलाने का प्रयास करे, तो यह नई परेशानी खड़ी कर सकता है। यह वहां की सरकार की बड़ी नाकामी मानी जाएगी।
हालांकि इन घटनाओं को लेकर केंद्र सरकार को भी सावधान हो जाने की जरूरत है। पंजाब के शांति, अमन, राष्ट्रीय एकता एवं सौहार्द को कायम रखना पंजाब सरकार की प्राथमिकता तो बने ही और केंद्र सरकार भी इसके लिए सतर्क एवं सावधान हो जाए। केन्द्र एवं प्रांत के बीच की दलगत प्रतिद्वंद्विता कहीं देश की सुरक्षा को आहत करने का माध्यम न बन जाए। अब पंजाब को शांति का आश्वासन, उजाले का भरोसा देने की नहीं, बल्कि उसे सामने घटित करने की जरूरत है। इस नये उभरते अभूतपूर्व संकट के लिए अभूतपूर्व समाधान खोजना होगा। जो अतीत के उत्तराधिकारी और भविष्य के उत्तरदायी हैं, उनको दृढ़ मनोबल और नेतृत्व का परिचय देना होगा, पद, पार्टी, पक्ष, प्रतिष्ठा एवं पूर्वाग्रह से ऊपर उठकर। अन्यथा वक्त इसकी कीमत सभी दावों व सभी लोगों से वसूल कर लेगा।
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