चीन के अपने टीके पर अड़ियल रुख के कारण एक बहुत बड़ी आबादी कोविड टीके से वंचित है जिससे कोरोना फैलता जा रहा है। कोविड-19 पर नियंत्रण के लिए सनक की हद तक जीरो कोविड नीति लागू होने से चीन की जनता त्राहिमाम कर रही है। आज 40 करोड़ से अधिक चीनी आबादी लॉकडाउन के साये में है। लोगों को खाने-पीने तक के लाले पड़ गए हैं। कंपनियां चीन छोड़ कर जाने पर विचार करने लगी हैं
चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने 2020 में एक समारोह में कहा था कि कोविड-19 महामारी से चीनी वैशिष्ट्यता वाले समाजवादी तंत्र की श्रेष्ठता एक बार फिर साबित हो गई है। तभी वुहान, जहां से इसकी शुरुआत हुई, के एक ब्लागर ने लिखा, ‘याद रखें, यहां कोई जीत नहीं, सिर्फ अंत है।’ जीत और श्रेष्ठता का यह उद्घोष और जीरो कोविड नीति के आवश्यकता से अधिक महिमामंडन ने चीन को इस स्थिति में ला खड़ा किया है कि आज वह न तो इस चूक को स्वीकार कर सकता है और न अपनी नीतियों में बदलाव कर सकता है।
पूरी दुनिया में आज जब हालात सामान्य हो रहे हैं और अर्थव्यवस्थाएं पटरी पर आ रही हैं तो चीन की 40 करोड़ आबादी आज पूर्णबंदी या किसी न किसी पाबंदी के साये में रह रही है। हालांकि सही आंकड़ों का मिलना मुश्किल है लेकिन माना जा रहा है कि चीन में आज 45 से लेकर 87 शहरों में पूर्णबंदी या अन्य पाबंदियां लागू हैं।
ढाई करोड़ की आबादी वाला शंघाई मार्च के अंत से ही पूर्णबंदी की मार से त्राहि-त्राहि कर रहा है। आवासीय सोसाइटियों को लोहे की दीवारों से घेर दिया गया है। अरबपतियों को रोटी और अंडे के लिए हाथ पसारने पड़ रहे हैं। गांव भी अछूते नहीं हैं। उत्तर-पश्चिमी चीन में किसानों को अपने खेतों की जुताई-बुआई के लिए भी अनुमति लेना अनिवार्य कर दिया गया है। यहां तक कि खेत में अकेले काम कर रहे एक किसान को भी गिरफ्तार कर लिया गया। सितंबर में होने वाले एशियाई खेलों को भी टाल दिया गया है।
आज जब हालात
सामान्य हो रहे हैं और अर्थव्यवस्थाएं पटरी पर आ रही हैं तो चीन की 40 करोड़ आबादी आज पूर्णबंदी या किसी न किसी पाबंदी के साये में रह रही है। हालांकि सही आंकड़ों का मिलना मुश्किल है लेकिन माना जा रहा है कि चीन में आज 45 से लेकर 87 शहरों में पूर्णबंदी या
अन्य पाबंदियां लागू हैं
राजनीतिक मिशन
चीन को आर्थिक और सामाजिक मोर्चे पर इन पाबंदियों की भारी कीमत चुकानी पड़ रही है। लेकिन शी जिनपिंग इसके लिए तैयार हैं क्योंकि अब इसमें किसी भी तरह के फेरबदल को उनकी व्यक्तिगत चूक और पराजय माना जाएगा। अक्तूबर-नवंबर में उनके तीसरे कार्यकाल पर मुहर लगनी है और इसके मद्देनजर फिलहाल जीरो कोविड नीति पर सख्ती से अमल जारी रहेगा।
शी ने छह मई को राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में स्पष्ट कर दिया कि जीरो कोविड नीति पर सवाल उठाने वालों से सख्ती से निपटा जाएगा। उन्होंने कहा कि इसी प्रभावी और वैज्ञानिक तरीके से चीन ने पिछली बार महामारी पर काबू पाया और इस बार भी पाएगा। इस बयान के तुरंत बाद युवान में भारी गिरावट आई। साफ है कि जीरो कोविड नीति अब एक राजनीतिक मिशन है।
वफादारी दिखाने की होड़
शी के प्रति वफादारी दिखाने के लिए अब इसे सख्त से सख्त तरीके से लागू करने की होड़ है। बाउडिंग में सिर्फ चार, बाउताउ में सिर्फ दो और हुनान प्रांत के शाओयांग और अनहुई के वुहु में सिर्फ एक-एक मामला सामने आते ही पूर्णबंदी लगा दी गई। आलम यह है कि म्यांमार सीमा पर स्थित एक प्रमुख शहर रुइली में अब तक नौ बार पूर्णबंदी लागू की जा चुकी है। यह शहर अब तक 160 दिन की पूर्णबंदी झेलने के बाद बदहाल हो चुका है और दो लाख से ज्यादा लोग पलायन कर दूसरे शहरों में जा चुके हैं।
फिलहाल यहां कई कई हफ्तों से पूर्णबंदी लागू है और लोगों के शहर छोड़ने पर पाबंदी लगा दी गई है। उधर, हेबेई प्रांत के क्वियान शहर के स्थानीय प्रशासन ने नागरिकों के शहर छोड़कर भागने की आशंका के मद्देनजर उनसे मांग की है कि वे अपने घरों के ताले-चाबी उसे सौंप दें। बिना किसी पूर्व सूचना के सड़कों, राजमार्गों और परिवहन सेवाओं को बंद करने के कारण ट्रक चालक अपने ट्रकों में फंसे हुए हैं।
चीनी टीके के बहुत ज्यादा प्रभावी नहीं होने के बावजूद टीका राष्ट्रवाद जारी रहा। चीन ने पश्चिमी देशों में इस्तेमाल हो रहे एमएनआरए टीके को नहीं अपनाया है लेकिन अपना टीका अभी तक नहीं बना पाया है। साठ साल से ज्यादा के 13 करोड़ लोगों को टीके की तीसरी खुराक नहीं लगी है। शंघाई में सिर्फ 38 प्रतिशत बुजुर्गों को ही टीके की तीसरी खुराक लगी है। यानी साठ साल से ऊपर की एक बड़ी आबादी अभी भी अरक्षित है।
चीन के राष्ट्रीय स्वास्थ्य आयोग के उपनिदेशक ली बिन का दावा है कि चीनी स्वास्थ्य सेवाएं वायरस से भी तेज दौड़ने के प्रयास में हैं। उन्होंने कहा, ‘इससे फर्क नहीं पड़ता कि वायरस कितने नए रंगरूप में सामने आता है, हम हमेशा लोगों की जान बचाने को प्रमुखता देंगे।’ और जान बचाने के तरीके के रूप में है सामूहिक जांच और पूर्णबंदी। यानी कोरोना का एक भी मामला सामने आया तो सख्त पाबंदियां लगेंगी और दो से लेकर 90 वर्ष तक के सभी लोगों की जांच की जाएगी।
बेजिंग में दो साल के बच्चों से लेकर 90 साल तक के सभी लोगों की जांच शुरू हो गई है। स्कूल, रेस्तरां, जिम बंद किए जा चुके हैं। शादियों और शवयात्राओं पर भी पाबंदी है। पूर्णबंदी की घोषणा नहीं हुई है लेकिन 60 से ज्यादा सबवे बंद हैं। चाओयान और हैदियान जिलों के 66 लाख लोगों के घर से बाहर निकलने पर पाबंदी है।
खाने के लाले
विडंबना तो यह कि जान बचाने के ये उपाय ही लोगों की जान पर बन आए हैं। शंघाई में एकांतवास केंद्रों में लोगों को अमानवीय स्थितियों में रहना पड़ रहा है। नहाने-धोने का इंतजाम तो दूर, शौचालयों में दरवाजे तक नहीं हैं। और कोरोना से जितनी मौतें हुई हैं, उससे कई गुना दूसरी बीमारियों से हुई हैं जिसमें प्रतिबंधों के कारण मरीजों को समय से उपचार नहीं मिल पाया। एक संक्रमण विशेषज्ञ ने अनुमान लगाया है कि एक महीने के दौरान 2,141 मधुमेह पीड़ितों की मौत हुई है।
अवसाद से पीड़ित एक महिला पत्रकार ने दवाइयां खत्म हो जाने के बाद खिड़की से कूदकर आत्महत्या कर ली। घरेलू हिंसा में भारी बढ़ोतरी हुई है। सबसे बड़ा संकट खाने-पीने की चीजों का है। शंघाई में आजकल लोग फोन पर हाल-चाल पूछने के बजाय यह सवाल करते हैं कि आज खाने के लिए कुछ है या नहीं? भूख से पीड़त लोग थालियां बजा कर विरोध जता रहे हैं कि जबकि सड़क से लाउडस्पीकर से कहा जाता है कि हम जानते हैं कि यह सब विदेशी ताकतों के उकसाने पर हो रहा है।
साम्यवादी तंत्र की विफलता का आलम यह है कि किसी के पास सैकड़ों अंडे भेज दिए जा रहे हैं तो किसी के पास कई किलो पत्तागोभी तो किसी के पास सिर्फ चावल। तो किसी के पास अचानक सब कुछ आ जाता है तो कोई इंतजार में बैठा है। ढाई अरब डॉलर की संपत्ति की मालकिन झू जिन को वीचैट पर दूध और ब्रेड के लिए गुहार लगानी पड़ी।
शंघाई में आजकल लोग फोन पर हाल-चाल पूछने के बजाय यह सवाल करते हैं कि आज खाने के लिए कुछ है या नहीं? भूख से पीड़त लोग थालियां बजा कर विरोध जता रहे हैं कि जबकि सड़क से लाउडस्पीकर से कहा जाता है कि हम जानते हैं कि यह सब विदेशी ताकतों के उकसाने पर हो रहा है
अर्थव्यवस्था पर चोट
अगर शंघाई की बात करें तो चीन का 10 प्रतिशत व्यापार यहीं से होता है। यहां 800 से ज्यादा बहुराष्ट्रीय कंपनियों के क्षेत्रीय कार्यालय हैं। यहां के स्टाक एक्सचेंज में न्यूयॉर्क और लंदन के बाद सबसे ज्यादा कंपनियां सूचीबद्ध हैं। यहां वोक्सवैगन, जनरल मोटर्स, क्वालकॉम, टीएससीएम सेमीकंडक्टर जैसी कंपनियों के विनिर्माण केंद्र हैं।
शंघाई सिर्फ चीन के लिए ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया के लिए एक महत्वपूर्ण विनिर्माण केंद्र है। लेकिन एक आनलाइन सर्वे के अनुसार यहां रह रहे विदेशी पेशेवरों में से आधे लोग साल भर के अंदर चीन छोड़कर जाने के प्रयास में हैं। तेईस प्रतिशत विदेशी कंपनियां चीन से बाहर जाना चाहती हैं। इसकी भरपाई मुश्किल होगी और यह दिखाता है कि एक निवेश और विनिर्माण केंद्र के रूप में शंघाई कितना अनाकर्षक हो चुका है। निवेशकों ने मार्च में ही 17.5 अरब डॉलर के बांड और स्टाक चीनी बाजार से बाहर खींच लिये।
यह स्थिति आई कैसे
दरअसल कोरोना के खिलाफ शुरूआती दौर में सफलता से मुदित चीन ने टीकाकरण के प्रयासों को ढीला छोड़ दिया था। चीनी टीके के बहुत ज्यादा प्रभावी नहीं होने के बावजूद टीका राष्ट्रवाद जारी रहा। चीन ने पश्चिमी देशों में इस्तेमाल हो रहे एमएनआरए टीके को नहीं अपनाया है लेकिन अपना टीका अभी तक बना नहीं पाया है। साठ साल से ज्यादा के 13 करोड़ लोगों को टीके की तीसरी खुराक नहीं लगी है। शंघाई में सिर्फ 38 प्रतिशत बुजुर्गों को ही टीके की तीसरी खुराक लगी है। यानी साठ से ऊपर की एक बड़ी आबादी अभी भी अरक्षित है।
गौरेया के विलुप्त होते ही चीन की फसलें बर्बाद हो गईं और नतीजे में जो दुर्भिक्ष फैला उसमें कम से कम डेढ़ करोड़ लोग मारे गए। गैर सरकारी आंकड़े कहते हैं कि पांच से आठ करोड़ लोग मारे गए। तब 1959 में शी जिनपिंग के पिता और तत्कालीन उप प्रधानमंत्री शी झोंगजुन ने कहा था कि जीरो गौरैया नीति पागलपन के सिवाय कुछ नहीं है। यह बंद की जाए। शी जिनपिंग से यह कौन कहेगा?
टीकाकरण की इस स्थिति के मद्देनजर शी जिनपिंग जानते हैं कि जीरो कोविड में किसी भी ढील से देश में लाशों का अंबार लग सकता है। इससे बचने के लिए वह कोई भी आर्थिक नुकसान जेलने को तैयार हैं। लेकिन लोग चीनी राष्ट्रगान की उस पंक्ति, ‘खड़े हो जाओ, वो जिन्होंने दासता को अस्वीकार कर दिया’, को सोशल मीडिया साइटों पर पोस्ट कर तंज कस रहे हैं। चीनी कम्युनिस्ट पार्टी को राष्ट्रगान की अपनी यह पसंदीदा पंक्ति इतनी चुभी कि उसने इसे भी सेंसर कर दिया।
जिनपिंग निर्मित आपदा
सेंसरशिप के बावजूद लोग दबी-छिपी आवाज में कहने लगे हैं कि यह महामारी नहीं बल्कि मानव निर्मित आपदा है। एक दिग्गज निवेशक ने कहा, ‘अर्थव्यवस्था पर इस मानव निर्मित आपदा के भयानक परिणाम होंगे। चीनी नेता सोचते हैं कि वे बाजार को बाजार से भी ज्यादा अच्छे से समझते हैं।’ लेकिन सवाल है कि शी से यह बात कौन कहेगा? चीन में सत्ता से सच बोलने के नतीजे कभी ठीक नहीं रहे। कभी ग्रेट लीप फारवर्ड के बाद तत्कालीन चीनी रक्षा मंत्री पेंग दुहआई ने इसे मानव निर्मित आपदा बताया था। नतीजे में माओ ने उनके जीवन को यातनागृह बना दिया।
यह सिलसिला पुराना है। जीरो कोविड की तरह 1958 में माओ ने चीन को गौरैया मुक्त कराने का बीड़ा उठाया था। उन्होंने कहा कि गौरैया गरीब किसानों के अनाज खाती हैं और अगर दस लाख गौरैया मार दी जाएं तो 60,000 लोगों को भूख से बचाया जा सकता है। लोगों ने 60 करोड़ गौरैया मार दीं और यह चीन से विलुप्त हो गई। लेकिन पता चला कि गौरैया अनाज ही नहीं खाती बल्कि फसलों के लिए हानिकारक कीड़े भी खाती है।
गौरेया के विलुप्त होते ही चीन की फसलें बर्बाद हो गईं और नतीजे में जो दुर्भिक्ष फैला उसमें कम से कम डेढ़ करोड़ लोग मारे गए। गैर सरकारी आंकड़े कहते हैं कि पांच से आठ करोड़ लोग मारे गए। तब 1959 में शी जिनपिंग के पिता और तत्कालीन उप प्रधानमंत्री शी झोंगजुन ने कहा था कि जीरो गौरैया नीति पागलपन के सिवाय कुछ नहीं है। यह बंद की जाए। शी जिनपिंग से यह कौन कहेगा?
(लेखक रक्षा एवं विदेशी मामलों के अध्येता हैं)
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