भारत के संविधान की प्रस्तावना इस वाक्यांश से प्रारंभ होती है कि- हम भारत के लोग। यहां दो इकाइयां हैं, एक भारत, दूसरा भारत के लोग यानी नागरिक। संविधान में इन्हीं सभी लोगों (नागरिकों) को समानता का अधिकार मिला है। संविधान इन लोगों के बीच किसी तरह का भेदभाव नहीं करता। फिर भारत के नागरिकों में ये अल्पसंख्यक कौन है?
सर्वोच्च न्यायालय में वरिष्ठ अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय की याचिका पर केंद्रीय अल्पसंख्यक मंत्रालय ने शपथपत्र दाखिल किया कि राज्य अपने क्षेत्रों में जनसंख्या कम होने पर हिंदुओं को भी अल्पसंख्यक घोषित कर सकते हैं। अल्पसंख्यक मंत्रालय ने स्पष्ट किया है कि 2011 की जनगणना के अनुसार जम्मू-कश्मीर, लक्षद्वीप, पंजाब, मिजोरम, नागालैंड, मेघालय, मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश और लद्दाख जैसे राज्यों/केन्द्रशासित प्रदेशों में हिन्दुओं की संख्या काफी कम है। अत: वे अल्पसंख्यक होने की पात्रता को पूरा करते हैं।
लगभग इसी समय असम के मुख्यमंत्री हिमंत विस्व सरमा ने विधानसभा में कहा कि राज्य में मुसलमान 35 प्रतिशत हैं जिससे अब वे राज्य का सबसे बड़ा समुदाय हैं। उन्हें बहुसंख्यक की तरह बर्ताव करते हुए असम के विभिन्न समुदायों के संरक्षण के लिए आगे आना चाहिए।
अल्पसंख्यक पर विमर्श
उपरोक्त दोनों बातों से अल्पसंख्यक शब्द को लेकर फिर से एक विमर्श खड़ा हो गया है। इस विमर्श के कई बिंदु हैं – कौन हैं अल्पसंख्यक? संविधान इसके बारे में क्या कहता है? क्या इसकी कोई परिभाषा है, अल्पसंख्यक तय करने के लिए कोई मानक हैं क्या? किसी समुदाय को अल्पसंख्यक घोषित करने की आवश्यकता क्या है? अल्पसंख्यक का प्रावधान होना चाहिए या नहीं? अल्पसंख्यक घोषित करने का प्रावधान शेष समुदायों, नागरिकों को संविधान में दिए गए समानता के अधिकार का हनन तो नहीं करता? धार्मिक आधार पर अल्पसंख्यक घोषित करना क्या संविधान की प्रस्तावना में शामिल पंथनिरपेक्षता के सिद्धांत के विरुद्ध है?
संयुक्त राष्ट्र के अनुसार – ‘ऐसा समुदाय जिसका सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक रूप से कोई प्रभाव न हो और जिसकी आबादी नगण्य हो, उसे अल्पसंख्यक कहा जाएगा।’
संविधान विशेषज्ञ सुभाष कश्यप के अनुसार संविधान में अल्पसंख्यक की न तो कोई परिभाषा है और न ही कोई मानक। यह पूरी तरह सरकार पर निर्भर करता है। दरअसल किसी को अल्पसंख्यक मानने का सिद्धांत ही गलत है। संविधान और कानून के तहत सभी नागरिकों को बराबर अधिकार मिलने चाहिए। अल्पसंख्यक होने के नाते आरक्षण या कोई विशेष सुविधा दिया जाना संविधान की आत्मा के विरुद्ध है।
राष्ट्रीय भाषाई एवं धार्मिक अल्पसंख्यक आयोग ने 2007 में अपनी रिपोर्ट में लिखा था कि भारत के संविधान में अल्पसंख्यक शब्द या उसके बहुवचन का कुछ अनुच्छेदों 29 से 30, तथा 350क से 350ख में प्रयोग किया गया है लेकिन कहीं भी इसे परिभाषित नहीं किया गया है। अनुच्छेद 29 में अल्पसंख्यक शब्द उसके पार्श्व शीर्षक में तो दिया गया है लेकिन इसके बारे में कहा गया है कि ‘नागरिकों का कोई वर्ग… जिसकी विशेष भाषा, लिपि या संस्कृति हो’। यह संपूर्ण समुदाय हो सकता है जिसे सामान्यत: बहुसंख्यक समुदाय में अल्पसंख्यक समुदाय या समूह के रूप में देखा जाए। अनुच्छेद 30 में अल्पसंख्यकों की विशिष्ट रूप से दो श्रेणियां बताई गई हैं धार्मिक और भाषाई। शेष दो अनुच्छेद 30 क और 30 ख केवल भाषाई अल्पसंख्यकों से संबंधित हैं। संविधान में अल्पसंख्यक शब्द का उल्लेख करते समय विलुप्तप्राय: या संकटग्रस्त समुदायों को अपने धर्म और रीति-रिवाजों के पालन हेतु सुरक्षा और संरक्षण देने की बात की गई है।
इस विमर्श पर संविधान विशेषज्ञ सुभाष कश्यप कहते हैं कि संविधान में अल्पसंख्यक की न तो कोई परिभाषा है और न ही कोई मानक। यह पूरी तरह सरकार पर निर्भर करता है। दरअसल किसी को अल्पसंख्यक मानने का सिद्धांत ही गलत है। संविधान और कानून के तहत सभी नागरिकों को बराबर अधिकार मिलने चाहिए। अल्पसंख्यक होने के नाते आरक्षण या कोई विशेष सुविधा दिया जाना संविधान की आत्मा के विरुद्ध है। मूल रूप से जो संविधान की आत्मा है और संविधान सभा में भी जो चर्चा हुई, उसमें कहा गया कि बहुसंख्यक -अल्पसंख्यक का प्रावधान नहीं होना चाहिए। सभी भारतीय हैं। यदि बहुसंख्यक -अल्पसंख्यक विभाजन होता है तो यह संविधान की आत्मा के विरुद्ध है। साथ ही अल्पसंख्यक घोषित करने का सिद्धांत समानता के अधिकार और पंथनिरपेक्षता के सिद्धांत के भी विरुद्ध है। अनुच्छेद 25 के अंतर्गत धार्मिक स्वतंत्रता और धार्मिक संस्थान स्थापित करने का अधिकार है। सभी नागरिकों की निजी स्वतंत्रता की गारंटी है। अलग से अल्पसंख्यक वर्ग घोषित कर उन्हें किसी विशेष सुविधा देने का कोई अर्थ नहीं है।
अल्पसंख्यक अवधारणा खतरनाक
काशी हिंदू विश्वविद्यालय के सामाजिक विज्ञान संकाय के डीन और राजनीति शास्त्री प्रो. कौशल किशोर मिश्र मानते हैं कि अल्पसंख्यक शब्द संवैधानिक होने की बजाय सीधे-सीधे राजनीतिक शब्द है। अल्पसंख्यक दर्जा देकर कुछ खास समुदायों को अपने पाले में ले आना और उनको सुख देने, विभिन्न तरह के प्रलोभन देना राजनीतिक प्रवृत्ति है। अल्पसंख्यक अवधारणा का पालन-पोषण करने वाले दरअसल विभाजनकारी रेखाओं पर राजनीति करने वाले लोग होते हैं।
प्रो. मिश्र कहते हैं कि लोकतंत्र वह है जिसमें लोक ही सर्वत्र है। एकात्म मानव दर्शन के प्रणेता पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने कहा था कि जो राष्ट्र की चिति को माने, वही लोकतंत्र का सच्चा नागरिक है। चिति का अर्थ है कि राष्ट्र एक शरीर है और उस शरीर के सारे के सारे अंग एक हैं। अंगों को एकजुट करके ही शरीर का निर्माण होता है। किसी के अलग होने पर संपूर्ण शरीर की संज्ञा नहीं दी जा सकती। दीनदयाल जी के अनुसार लोकतंत्र और राष्ट्र, दोनों पर्याय हैं और दोनों सजीव हैं। दोनों की आत्मा चिति है और चिति ही लोक को परिभाषित करती है। यदि जनगणना के आधार पर अल्पसंख्यक का वर्गीकरण करेंगे तो राज्य के लोक और चिति का क्या होगा? लोकतंत्र अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक में बंट जाएगा। इस तरह का बंटवारा लोकतंत्र और राष्ट्र के लिए खतरनाक है।
लोकतंत्र और राष्ट्र, दोनों पर्याय हैं और दोनों सजीव हैं। दोनों की आत्मा चिति है और चिति ही लोक को परिभाषित करती है। यदि जनगणना के आधार पर अल्पसंख्यक का वर्गीकरण करेंगे तो राज्य के लोक और चिति का क्या होगा? लोकतंत्र अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक में बंट जाएगा। इस तरह का बंटवारा लोकतंत्र और राष्ट्र के लिए खतरनाक है
सर्वोच्च न्यायालय में अधिवक्ता संदीप महापात्रा कहते हैं कि भारत में अल्पसंख्यक का अर्थ हो गया है – मुसलमान। हालांकि मुस्लिमों के अलावा ईसाई, सिख, बौद्ध, पारसी, जैन भी अल्पसंख्यक श्रेणी में रखे गए हैं। परंतु अब तक अल्पसंख्यक पर बात करने, अल्पसंख्यक आयोग का अध्यक्ष बनाने की दृष्टि से मुस्लिमों को ही अल्पसंख्यक मानने की परंपरा रही है। हालांकि अब स्थितियां बदली हैं। श्री महापात्रा कहते हैं कि अल्पसंख्यक घोषित करने के लिए अब तक कोई पैमाना नहीं बनाया गया है परंतु सर्वोच्च न्यायालय में दायर याचिका पर निर्णय आने के बाद इसकी गुंजाइश बनती है।
तुष्टीकरण नहीं, अस्तित्व बचाना हो उद्देश्य
विमर्श का एक बिंदु यह भी है कि जनसंख्या में कितने प्रतिशत से कम हिस्सेदारी होने पर अल्पसंख्यक माना जाना चाहिए। सर्वाधिक संख्या वाले समुदाय के अलावा क्या सभी अल्पसंख्यक हैं या द्वितीय बहुसंख्यक, तृतीय बहुसंख्यक की भी अवधारणा हो सकती है। संयुक्त राष्ट्र की अवधारणा को देखें तो अधिकांश धर्म-मजहबों के साथ विलुप्त प्राय या संकटग्रस्त स्थिति नहीं है। यह स्थिति कुछ जनजातियों में हो सकती है।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने सन् 2005 में दिए गए अपने एक महत्वपूर्ण निर्णय में कहा था कि मुस्लिम अल्पसंख्यक नहीं हैं क्योंकि उनकी संख्या बहुत अधिक है और वे ताकतवर भी हैं। उन्हें अस्तित्व का संकट भी नहीं है। मई 2014 में अल्पसंख्यक मंत्रालय का कार्यभार संभालते समय नजमा हेपतुल्ला ने कहा था कि भारत में मुस्लिम इतनी बड़ी संख्या में हैं कि उन्हें अल्पसंख्यक नहीं कहा जा सकता।
जम्मू केंद्रीय विश्वविद्यालय के प्रो. रसाल सिंह कहते हैं कि संवैधानिक प्रावधानों का प्रयोग सम्बंधित समुदायों की समुचित भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए हो, न कि समुदाय विशेष के तुष्टीकरण और वोटबैंक की राजनीति के लिए। निश्चय ही, जम्मू-कश्मीर इन प्रावधानों के दुरुपयोग का सर्वप्रमुख उदाहरण है। अल्पसंख्यक समुदायों को परिभाषित करने और उन्हें यह दर्जा देने और इसके प्रावधानों के तहत मिलने वाले विशेषाधिकारों और संरक्षण सुनिश्चित करने के लिए न्यायालय द्वारा एक औचित्यपूर्ण, तार्किक और स्पष्ट नियमावली और दिशा-निर्देशिका बनाया जाना जरूरी है।
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