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लोकतंत्र के लिए आत्मघाती मीडिया का एक वर्ग

घटनाएं यह भी बताती हैं कि कश्मीर में नरसंहार के समय का मीडिया का पक्षपाती दृष्टिकोण आज भी जस का तस

by WEB DESK
Apr 5, 2022, 03:22 pm IST
in भारत, मत अभिमत
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लोकतंत्र के एक स्तंभ के रूप में भारतीय मीडिया का एक बड़ा वर्ग दिनों-दिन हास्यास्पद होता जा रहा है। बंगाल में तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं के बीच चल रहे गैंगवॉर की घटना ने इसे और भी स्पष्ट कर दिया। कथित राष्ट्रीय मीडिया ने बंगाल के बीरभूम जिले में सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस कार्यकर्ताओं द्वारा कई लोगों को जीवित जलाने के समाचार को सामान्य घटना की तरह दिखाया। अधिकांश समाचार पत्रों या चैनलों ने इस हत्याकांड के लिए ममता बनर्जी सरकार पर कोई प्रश्नचिन्ह नहीं उठाया। पत्रकारिता के नाम पर भाजपा के विरुद्ध गाली-गलौज की भाषा का प्रयोग करने वाले अखबार टेलीग्राफ के सारे तीखे-तेवर कहीं गायब हो गए। इसी समूह का चैनल एबीपी न्यूज यह सिद्ध करने का प्रयास करता रहा कि बंगाल में राजनीतिक हिंसा की परंपरा बहुत पुरानी है, इसलिए बीरभूम की घटना को बहुत तूल देने की आवश्यकता नहीं है। ये घटनाएं यह भी बताती हैं कि कश्मीर में नरसंहार के समय मीडिया का जो पक्षपाती दृष्टिकोण था, वह आज भी जस का तस है। किसी समाचार को अपनी व्यापारिक अथवा वैचारिक कसौटी पर कसने वाला यह मीडिया लोकतंत्र के लिए आत्मघाती है।

जिन मीडिया संस्थानों ने तीन दशक तक कश्मीरी हिंदुओं के नरसंहार को दबाए रखा, वे अब फिल्म द कश्मीर फाइल्स को मिल रही व्यावसायिक सफलता का लाभ उठाने के प्रयास में हैं। इनमें आजतक चैनल सबसे आगे है। वर्ष 1990 में इसी की पत्रिका इंडिया टुडे ने रिपोर्ट छापी थी कि कश्मीरी हिंदुओं के पलायन के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी दोषी हैं। पत्रिका के अनुसार संघ और भाजपा ने कश्मीरी हिंदुओं के बीच उन्माद की स्थिति पैदा कर दी है। कश्मीरी हिंदू घाटी में सांप्रदायिक माहौल को बिगाड़ने के उद्देश्य से पलायन का नाटक कर रहे हैं। उसकी यह संपादकीय नीति हाल के वर्षों तक जारी रही। 2008 में इसी पत्रिका ने आतंकवादी यासीन मलिक को सेकुलर और लिबरल बताते हुए उसे यूथ आइकन आॅफ इंडिया घोषित किया था।

मुख्यधारा मीडिया का एक बड़ा वर्ग पूरे प्रयास में है कि कैसे द कश्मीर फाइल्स से उपजे जनाक्रोश का लाभ उठाकर हिंदू असहिष्णुता का अभियान आरंभ किया जाए। इसके लिए देश भर में सिनेमाघरों में लोगों की प्रतिक्रियाओं को हिंदुओं की उग्रता बताते हुए दिखाया जा रहा है। छोटी-मोटी घटनाओं को तूल दिया जा रहा है, ताकि भविष्य में बनने वाली ऐसी किसी भी फिल्म में रुकावट डालने का आधार बनाया जा सके। इसी मानसिकता का परिणाम है कि महाराष्ट्र में द कश्मीर फाइल्स देखने गई महिलाओं के भगवा दुपट्टे हॉल के बाहर उतरवाने का समाचार भी सकारात्मक ढंग से दिखाया गया। जबकि ऐसे चैनलों के लिए हिजाब उनकी स्वतंत्रता का प्रतीक है। किसी को इसमें महाराष्ट्र सरकार की तानाशाही नहीं दिखी।

बीबीसी हिंदी को अपनी ही बोई घृणा का स्वाद चखने को मिला। होली पर इसने एक चित्र पोस्ट किया, जिसमें दो मुस्लिम व्यक्ति होली खेल रहे थे। इस पर इस्लामी कट्टरपंथियों ने बीबीसी हिंदी पर गालियों की बौछार कर दी। उनकी शिकायत थी कि किसी मुस्लिम महिला को कोई गैर-मर्द कैसे छू सकता है? हिंदुओं को असहिष्णु बताने वाले बीबीसी हिंदी ने चुपचाप सारी गालियां सह लीं। बीबीसी और उसकी जमात के मीडिया संस्थान बीते कुछ समय से हिजाब और बुर्के के समर्थन में एकजुट हैं। यहां तक कि बार एंड बेंच और लाइव लॉ जैसे पोर्टल ने हिजाब पर कर्नाटक उच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध खुलेआम लेख छापे।

खेती से जुड़े तीन बिलों पर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गठित एसआईटी की रिपोर्ट में 86 प्रतिशत किसान संगठनों द्वारा समर्थन का समाचार सामने आया। चैनलों ने इस समाचार को बहुत महत्व नहीं दिया। क्या उनसे यह पूछा नहीं जाना चाहिए कि मात्र 14 प्रतिशत किसानों के प्रदर्शन को क्यों किसानों का राष्ट्रव्यापी विरोध बताने का प्रयास हो रहा था?

समाचार पत्रों और चैनलों ने प्रमुखता से बताया कि विश्व हैप्पीनेस इंडेक्स में भारत पिछड़ गया है। मीडिया के एक वर्ग विशेष ने दावा किया कि केंद्र में भाजपा सरकार बनने के कारण भारतीयों में अप्रसन्नता है। प्रश्न उठता है कि ये इंडेक्स कैसे बनते हैं? क्यों इनमें हमेशा भारत की स्थिति बुरी बताई जाती है? हैप्पीनेस इंडेक्स की तरह ही हंगर इंडेक्स, फ्रÞीडम इंडेक्स और न जाने कितने इंडेक्स चलाए जा रहे हैं। ये सभी वास्तव में पश्चिम द्वारा प्रायोजित अब्राहमिक तंत्र के खेल हैं। इसके माध्यम से वे भारत में सनातन जीवनशैली को हतोत्साहित करके मानव विकास की पश्चिमी अवधारणा को थोपने के प्रयास में रहते हैं। ल्ल

Topics: बंगाल में तृणमूल कांग्रेसमुख्यधारा मीडियाबीबीसी हिंदीलोकतंत्र के एक स्तंभ
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