इन दिनों झारखंड में भाषा के नाम पर आंदोलन चल रहा है। आंदोलनकारियों की मांग है कि राज्य सरकार तृतीय और चतुर्थ वर्ग की नौकरियों के लिए होने वाली परीक्षा में केवल राज्य की क्षेत्रीय भाषाओं को ही रखे। उल्लेखनीय है कि पिछले वर्ष झारखंड सरकार ने भाषा नीति बनाई थी। इसमें 'खोरठा', 'कूर्माली', 'हो' 'संथाली' जैसी 12 क्षेत्रीय भाषाओं के साथ 'उर्दू', 'बांग्ला', 'उड़िया', 'मगही', 'भोजपुरी' जैसी भाषाएं भी शामिल हैं। अब आंदोलनकारियों का कहना है कि झारखंड में केवल और केवल यहीं की भाषाओं को जगह मिलनी चाहिए। इसलिए ये लोग मगही, भोजपुरी, अंगिका, मैथिली आदि का विरोध कर रहे हैं। बता दें कि मगही, भोजपुरी, मैथिली झारखंड में पीढ़ियों से रहने वाले वे लोग बोलते हैं, जिनकी जड़ें बिहार में हैं। इसलिए लोग कहते हैं कि इन भाषाओं का विरोध बिहार की भाषा मानकर किया जा रहा है।
आश्चर्यजनक रूप से आंदोलनकारी उर्दू का विरोध नहीं कर रहे हैं, जबिक उर्दू क्षेत्रीय भाषा नहीं है। इसके बावजूद राज्य सरकार ने उसे क्षेत्रीय भाषा की सूची में रखा है। ऐसा क्यों हो रहा है! इसके उत्तर में भाषा आंदोलन को समर्थन देने वाले और झारखंड मुक्ति मोर्चा के नेता तथा पूर्व विधायक अमित महतो कहते हैं, ''झारखंड में मगही, भोजपुरी, मैथिली, अंगिका के साथ-साथ उर्दू, बांग्ला, उड़िया भी नहीं होनी चाहिए।'' अमित महतो ने ऐसा तब कहा जब उनसे उर्दू पर सवाल किया गया। इससे पहले ये इस तरह की बात नहीं कहते थे।
जो लोग अभी सड़कों पर भाषा के नाम पर आंदोलन कर रहे हैं, उनके बैनरों पर भी उर्दू की कोई चर्चा नहीं है और न ही वे उर्दू के विरोध मेें नारे लगा रहे हैं। इसलिए बहुत सारे लोग कहते हैं कि आंदोलनकारियों को भोजपुरी, मगही जैसी भाषाओं से तो नफरत है, लेकिन उर्दू से प्यार है। और यह देखा जाता है कि उर्दू से प्यार उन लोगों को होता है, जिन्हें वोट की राजनीति करनी होती है यानी नेता। इसलिए कहा जा रहा है कि इन भाषा आंदोलनकारियों के पीछे ऐसे ही नेता खड़े हैं। यदि ऐसा नहीं होता तो वे लोग उर्दू का भी विरोध अवश्य करते हैं। हालांकि भाषा आंदोलन के कुछ समर्थक इस बात को सिरे से खारिज करते हैं। 'जय झारखंड' संगठन से जुड़े सहदेव महतो का कहना है कि झारखंड में जिस जिले के अंदर जो भाषा चलती है उसी भाषा को लागू करने की आवश्यकता है। उन्होंने पूरे झारखंड में उर्दू भाषा को लागू करने का पुरजोर विरोध किया। इसके साथ ही उनका कहना है कि बिहार से सटे झारखंड के जिन इलाकों में भोजपुरी, मगही, अंगिका और मैथिली बोली जाती है उन जिलों में इन भाषाओं को लागू किया जा सकता है। लेकिन पूरे राज्य में अगर इन भाषाओं को लागू किया जाएगा तो झारखंड की अपनी भाषा और संस्कृति का अस्तित्व खतरे में पड़ सकता है।
इस मामले पर कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष राजेश ठाकुर कोई संतोषजनक उत्तर नहीं दे पाए। उल्लेखनीय है कि ठाकुर मूल रूप से मुजफ्फरपुर के हैं और इस कारण उनका भी झारख्रंड में विरोध हो रहा है। हाल ही में कांग्रेस से इस्तीफा देने वालीं गीताश्री उरांव ने कहा है कि राजेश ठाकुर बिहारी यानी बाहरी हैं। इसी से अनुमान लगाया जा सकता है कि झारखंड में बिहारी विरोध के नाम पर कौन—सी खिचड़ी पक रही है।
वहीं ऐसे लोगों की कोई कमी नहीं है, जो यह मानते हैं कि यह आंदोलन राज्य में भाजपा को कमजोर करने के लिए किया जा रहा है। सामाजिक कार्यकर्ता राकेश कुमार कहते हैं, ''झारखंड सरकार चाहती है कि राज्य में भाजपा का उसी तरह विरोध हो, जैसे पड़ोसी राज्य पश्चिम बंगाल में हो रहा है। यही कारण है कि प्रदर्शनकारी भाजपा के नेताओं पर हमले कर रहे हैं और भाजपा के बड़े नेताओं को खुलेआम गालियां दे रहे हैं।'' बता दें कि गत दिनों भाजपा के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष और कोडरमा से सांसद रहे रविंद्र राय पर प्रदर्शनकारियों ने हमला किया था। उन्हें अपनी जान बचाने के लिए भागना पड़ा। उनके अंगरक्षकों के साथ बदसलूकी की गई। देश में पिछले दिनों हुए कुछ आंदोलनों में यह देखा गया है कि ऐसी हरकतें वही तत्व करते हैं, जो नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री के पद पर देखना नहीं चाहते हैं। इसलिए बहुत सारे लोग शंका व्यक्त कर रहे हैं कि इस झारखंड के इस भाषा आंदोलन के पीछे कहीं नक्सली और चर्च के लोग तो नहीं हैं!
दस वर्षों से पत्रकारिता में सक्रिय। राजनीति, सामाजिक और सम-सामायिक मुद्दों पर पैनी नजर। कर्मभूमि झारखंड।
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