केरल में कोट्टायम की एक अदालत ने बिशप फ्रैंको मुलक्कल को नन से बलात्कार के आरोपों से शुक्रवार को बरी कर दिया। महिलाओं के आत्मसम्मान की वकालत करने वाले अनगिनत लोग इस फैसले से स्तब्ध हैं। उन्होंने अदालत के फैसले पर निराशा प्रकट की है। मुलक्कल पहले कैथोलिक बिशप थे, जिन्हें नन का यौन शोषण करने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। केरल की कोट्टायम पुलिस ने नन के दुष्कर्म मामले में आरोपित बिशप के खिलाफ 2018 में मुकदमा दर्ज किया था।
बिशप को बरी करते हुए कोट्टायम के अतिरिक्त जिला अदालत के न्यायाधीश ने अपने आदेश में कहा कि पीड़िता का यह दावा कि उसके साथ 13 बार बलात्कार किया गया, उसके एकमात्र गवाही पर भरोसा के लायक नहीं है। अदालत का मानना है कि उसे ठोस गवाह नहीं माना जा सकता है और न ही उसे पूरी तरह विश्वास योग्य माना जा सकता है। अदालत ने कहा कि पीड़िता के बयान के अलावा ‘‘अभियोजन के मुकदमे को साबित करने के लिए अन्य कोई ठोस सबूत नहीं है।’’
कान्वेंट की ऊंची दीवारों के अंदर हुए अपराध के लिए अदालत काे इससे बड़ा ठोस सबूत और क्या मिल सकता था कि पीड़ित नन जिसने अपना जीवन चर्च काे समर्पित कर दिया हाे, जाे पवित्रता का जीवन जी रही है, चर्च की धमकियाें और अपने समाज के बहिष्कार काे सहते हुए भी चीख-चीख कर अपनी पीड़ा बयां कर रही है। चर्च व्यवस्था में इससे बड़े प्रमाण की और क्या आशा की जा सकती है ? पूरी चर्च व्यवस्था शुरू से ही बिशप फ्रैंको मुलक्कल के बचाव में खड़ी थी, वह पीड़िता काे डराने-धमकाने से लेकर उसे चुप करवाने का हर हथकंडा अजमा रही थी।
सबसे पीड़ादायक और शर्मिंदा होने वाली बात ताे यह है कि पीड़ित नन ने चर्च की सबसे बड़ी संस्था वेटिकन के राजदूत और पोप को पत्र लिखकर न्याय सुनिश्चित करने के लिए हस्तक्षेप की मांग की। नन ने आरोप लगाया कि चर्च ने उनकी शिकायतों पर ध्यान नहीं दिया, बिशप के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की, इस वजह से उन्हें पुलिस के पास जाना पड़ा। वेटिकन से न्याय मिलना ताे दूर, उलटा पीड़ित नन के संघ जस्टिस ऑफ मिशनरीज़ ने फ्रैंको पर आरोप लगाने वाली नन समेत छह ननों के खिलाफ जांच बैठा दी थी। इनमें से चार वो नन थीं, जिन्होंने केरल हाईकोर्ट के बाहर भूख हड़ताल की थी। विक्टिम का साथ देने वाली चार नन-सिस्टर एल्फी पल्लास्सेरिल, अनुपमा केलामंगलाथुवेलियिल, जोसेफिन विल्लून्निक्कल और अंचिता ऊरुम्बिल- को चर्च की तरफ से जनवरी, 2019 में चिट्ठी लिखी गई और कहा गया कि उन्हें कोट्टायम छोड़कर जाना होगा।
बिशप फ्रेंको के मामले में कुछ बुद्धिजीवी ईसाइयों ने भारत स्थित वेटिकन के राजदूत के माध्यम से पाेप फ्रांसिस से मांग की,कि वह जांच पूरी होने तक बिशप काे चर्च के कामों से निलंबित करें ताकि निष्पक्ष जांच हाे और पीड़ित काे न्याय मिल सके। ईसाई समाज विशेषकर कैथोलिक चर्च में सबसे निराशाजनक और हतोत्साहित करने वाला पहलू यह है कि चर्च के कुछ पादरियाें के अनैतिक कुकर्मों पर पर्दा डालने का काम चर्च विश्वासी ही करते रहते हैं। वह चर्च व्यवस्था में उत्पीड़न के विरुद्ध आवाज उठाने वालाें काे ही कटघरे में खड़ा करते हैं। यह सब इसलिए है कि मुख्य समस्या चर्च के दर्शन में निहित है, चर्च प्रार्थना करने और चर्च आने के लिए जिस तरह अपने अनुयायियों विशेषकर युवाओं को मोटिवेट करता है, उसकी कल्पना किसी और मत—पंथ में नहीं की जा सकती। छोटे बच्चों के लिए संडे स्कूल के नियमों काे इतनी सख्ती से लागू किया जाता है कि वयस्क हाेते वह पूरी तरह चर्च की आज्ञाकारिता में ऐसे ढल जाते हैं कि चर्च व्यवस्था या कैनन लॉ पर उंगली उठाने काे भी पाप माना जाता है।
एक आम ईसाई का जीवन तीन पांथिक प्रथाओं (बपतिस्मा, शादी और मृत्यु बाद दफनाने की क्रिया ) पर टिका होता है। इन तीनों पर चर्च का नियंत्रण रहता है। जरा सा भी इधर-उधर हुए तो आप पर सामाजिक बहिष्कार की तलवार लटकने की अंशका खड़ी हो जाती है। जहां तक चर्च के अंदर याैन शाेषण, भ्रष्टाचार, अनैतिकता जैसी बुराइयों की बात है, इस पर आम ईसाई कोई बात ही नहीं करना चाहता। क्योंकि हर रविवार की प्रार्थना में उसे यही सिखाया जाता है कि चर्च किस तरह दुनिया में ईश्वर के राज्य को बनाने के काम में लगा हुआ है। कुल मिलाकर मंद स्वर में यह संदेश भी दिया जाता कि हमें ऐसी कोई बात नहीं करनी चाहिए जिससे चर्च की बदनामी हो और उसके काम में बाधा आए।
2017 में केरल के कोट्टियूर स्थित पादरी फादर रॉबिन पर नाबालिग से बलात्कार करने का आरोप लगा था। इस मामले का सबसे वीभत्स पक्ष यह था कि पीड़िता के पिता ने आरोपी पादरी और चर्च को बदनामी से बचाने हेतु प्रारंभिक जांच में झूठ बोलकर अपनी बेटी से स्वयं बलात्कार करने की बात स्वीकार की थी। किंतु जब उसे इस अपराध के लिए मिलने वाली सजा का भान हुआ, तब जाकर उसने सच बोला और पुलिस के समक्ष फादर रॉबिन द्वारा अपनी बेटी के दुष्कर्म का खुलासा किया।
आम ईसाइयों के साथ ऐसा क्यों है कि वह चर्च में फैल रही अनैतिकता जैसी बुराइयों को न सिर्फ स्वीकार कर रहे हैं बल्कि अपना मौन समर्थन भी दे रहे हैं। इसे हम दो घटनाओं से समझ सकते हैं। पहला- जब बिशप फ्रैंको मुलक्कल काे नन बलत्कार वाले मामले में जमानत मिली और वह जेल से छूटकर वापस अपने मुख्यालय पंजाब के जालंधर में आया तो हजारों ईसाइयों ने ढाेल-नगाड़ाें से उसका ऐसे स्वागत किया गया, जैसे वह कोई युद्ध जीत कर आया हाे। दूसरा मामला झारखंड का है, जहां टेरेसा के संगठन की दाे नन अनाथ बच्चों को बेचते हुए पकड़ी गईं। सरकारी कार्रवाई के विरोध में ईसाइयों ने उनके समर्थन में 15 किलोमीटर लंबी मानव श्रृंखला बनाई।
दरअसल, जिस तरह हिंदू समाज में समय—समय पर सांस्कृतिक पुनर्जागरण हुआ। हिंदू समाज के बीच महर्षि दयानंद, राजा राम माेहन राय, वीर सावरकर, डॉ भीमराव आंबेडकर, ज्योतिबा फुले जैसे अनेक महापुरुषों ने अपना योगदान दिया है। ऐसा भारत में ईसाइयों के साथ पिछली कई शताब्दियों से नहीं हुआ, उनके बीच कोई सुधारवादी धारा बह ही नहीं पाई। चर्च ने आम ईसाइयों पर अपना इतना प्रभुत्व स्थापित कर लिया है कि वह किसी सुधारवादी आंदोलन काे पनपने ही नहीं देता। गर्भ से लेकर कब्र तक वह आम ईसाइयों के जीवन काे संचालित कर रहा है।
2009 और 2015 में याैन शाेषण के दो मामले कार्डिनल ओस्वाल्ड ग्रेशस के सामने आए थे। वे उस समय मुंबई के आर्चबिशप और कैथोलिक बिशप कॉन्फ्रेंस ऑफ इंडिया और फेडरेशन ऑफ एशियन बिशप कॉन्फ्रेंस के अध्यक्ष थे। लेकिन उन्होंने पीड़ितों का कोई साथ नहीं दिया और न ही कार्डिनल ग्रेशस ने पुलिस को इसकी जानकारी दी। जो भारत के पॉक्सो एक्ट (प्रोटेक्शन आफ चिल्ड्रेन फ्रॉम सेक्सुअल अफेंसेस एक्ट 2012) का भी सीधा उल्लंघन था।
चर्च और वेटिकन कभी भी पीड़ितों के लिए खड़े नहीं हुए, उन्होंने हमेशा मामलों पर पर्दा डालने और पीड़ितों को डराने, बदनाम करने का काम किया है। ऐसे मामलों का खुलासा करने वालों के लिए यह अकेले युद्ध लड़ने जैसा होता है। "चर्च उन्हें बहिष्कृत कर देता है या फिर उन्हें अपने ही समुदाय के भीतर अलग-थलग कर दिया जाता है।" ऐसी वयवसथा में पीड़ित नन से अपने बयान के अलावा कोई अन्य ठोस सबूत की आशा करना बेमानी है। आशा की जानी चाहिए कि एक दिन भारतीय चर्च में सुधारवाद की हवा बहेगी।
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