रामबहादुर राय
इस प्रसंग से पाञ्चजन्य की पत्रकारिता को समझना सरल हो सकता है। बहुत साल पहले की यह बात है। यादव राव देशमुख पाञ्चजन्य के संपादक थे। वे 1960 में पाञ्चजन्य से जुड़े। एक उथल-पुथल के बाद संपादक का दायित्व संभाला। उनके सहयोगी थे, अच्युतानंद मिश्र। एक बातचीत में कुछ दिनों पहले ही श्री अच्युतानंद मिश्र ने इस रोचक प्रसंग को बताया। वे यादव राव जी के साथ डॉ. राममनोहर लोहिया से मिलने गए। यह लखनऊ की बात है। डॉ. लोहिया पाञ्चजन्य में लिखते थे। उन्होंने यादव राव जी से पूछा कि तुम्हारी पत्रिका कितनी बिकती है? उन्होंने बताया कि बीस हजार के आसपास बिकती है। देशभर में जाती है। इस बातचीत में राजनारायण भी उपस्थित थे। डॉ. लोहिया का दूसरा प्रश्न था कि हमारे ‘जन’ और ‘मैनकाइंड’ को लोग क्यों नहीं पढ़ते? यादव राव जी ने सहज ही उन्हें बताया कि पाञ्चजन्य की भांति आपकी पत्रिकाएं भी वैचारिक हैं। ऐसी पत्रिकाओं के पाठक में वृद्धि का संबंध विचारधारा के प्रचार-प्रसार से है। यह सुनकर डॉ. राममनोहर लोहिया ने सवालिया दृष्टि राजनारायण पर डाली। बोले कि तुम्हारी बात सही है।
पाञ्चजन्य की पत्रकारिता के बारे में एक दृष्टि यह है कि यह वैचारिक पत्रिका है। दूसरी दृष्टि भी है जो आमतौर पर चलन में है। यह एक बनी-बनाई धारणा है। वह यह कि यह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का मुख पत्र है। तीसरी दृष्टि यह है कि यह राष्ट्रीयता के वैचारिक प्रवाह की मुखर अभिव्यक्ति का मंच है। असल में कोई भी साप्ताहिक विचार के वगैर हो ही नहीं सकता। अखबार खबरों के लिए जाने जाते हैं और साप्ताहिक पत्रिकाएं विचार के लिए पहचानी जाती हैं। पाञ्चजन्य शुरू से ही साप्ताहिक है। इसका आकार-प्रकार, रूप-रंग और साज-सज्जा परिवर्तित होती रही है। पर जो कभी नहीं बदला, वह इसका पत्रकारीय स्वधर्म है। उसे जानने और समझने के लिए पाञ्चजन्य के लंबे इतिहास को आज की खिड़की से देखना होगा। ऐसा प्रयास करते समय हमेशा यह समझ लेना चाहिए कि किसी भी खिड़की से आकाश को उतना ही देखा जा सकता है, जितना उससे संभव है। खुले आकाश को निहारना एक बात है। उसे खिड़की से देखना बिल्कुल अलग बात है। खिड़की से एक झलक पाई जा सकती है। आकाश को चूमा नहीं जा सकता। अनुभव भी नहीं किया जा सकता। पाञ्चजन्य की पत्रकारिता की कुछ खिड़कियां बंद हो चुकी हैं। मेरा अभिप्राय उन लोगों से है जिन्होंने पाञ्चजन्य को वैचारिक महाभारत में अर्जुन के शंख की भांति अपनाया। हम जानते हैं, जिनके सारथी श्रीकृष्ण थे। जो पूर्ण पुरुष थे। परमात्मा स्वरूप थे। जिन्होंने पाञ्चजन्य नाम दिया, उसकी पत्रकारिता की पगडंडी बनाई, वे अब नहीं हैं। वे दिवंगत हो गए हैं। दिव्य लोक के वासी हैं। पर पाञ्चजन्य के आकाश में वे चमकते सितारे बने रहेंगे।
महापुरुषों ने शुरू की पत्रिका
यह कितने सुखद आश्चर्य में डालने वाली घटना है! पाञ्चजन्य का पाठक जो आज है, अगर उसे यह मालूम हो कि एक सदी की दो तिहाई यात्रा के एक पड़ाव पर यह पत्रिका है और उसे शुरू करने वालों में वे नाम हैं जिन्हें हम हर दृष्टि से महापुरुष कह सकते हैं। ऐसे महापुरुष जो जन्मे तो साधारण घर में, पर वे थे असाधारण। राष्ट्रीयता के प्रवाह में वे एक तट बने। पाञ्चजन्य का इतिहास जब लिखा जाएगा तो यह बात सामने आएगी कि स्वाधीनता के बाद उस पत्रकारिता की आवश्यकता अधिक बढ़ गई थी जिससे राष्ट्रीयता की धारा को अविरल बनाया जा सके। स्वाधीनता से पहले लाल-बाल-पाल और श्री अरविंद ने उस धारा को अपने भगीरथ प्रयासों से शंकर की जटा से जमीन पर उतारा था। उसी धारा ने स्वराज्य की कल्पना को पंख लगाए। उसे आकाश में उड़ने की शक्ति दी। विचार की शक्ति ने कर्म को दिशा दी। आखिरकार स्वाधीनता का क्षण आया। जब देश और संस्थाएं दोराहे पर थीं तब ‘किस राह जाऊं’, यह प्रश्न उत्पन्न हो गया था। जरा सोचिए, यह प्रश्न क्यों उत्पन्न हुआ? इसी का उत्तर है- पाञ्चजन्य। पाञ्चजन्य का प्रसंग महाभारत में आता है। किसके पास कौन सा शंख है, इस प्रसंग से पाञ्चजन्य की पहचान होती है कि वह श्रीकृष्ण का शंख है।
जिस महापुरूष के दिमाग में पैदा हुआ वे थे, भाऊराव देवरस। उनकी एक टोली थी। जिसमें अटल बिहारी वाजपेयी, दीनदयाल उपाध्याय, नानाजी देशमुख आदि होते थे। ये गरिमामय नाम अपने प्रभाव से इतिहास के रचयिता हैं।
जब-जब भारत में मूढ़ता छाती है, तब-तब पाञ्चजन्य की जरूरत पड़ती है। स्वाधीनता के बाद ऐसी ही अवस्था कई प्रकार से और कई कारणों से थी। विचार, जो तब छाए हुए थे, जिसके प्रभाव में पढ़ा-लिखा समाज और नेतृत्व था, वे सब सचमुच नकल कर रहे थे। पश्चिम की नकल। उनके नाम अलग-अलग हो सकते हैं, साम्यवाद या मार्क्सवाद, समाजवाद या पूंजीवाद और उनके प्रवक्ता नामधारी नेता। इन वादों के घटाटोप में भारत के सामने प्रश्न था कि अपना रास्ता क्या है? उसकी खोज के लिए नहीं, उसे पहचानने के लिए एक आवाज के रूप में पाञ्चजन्य निकला। इसका अर्थ सीधा है। वह यह कि राह तो थी। उसे खोजना नहीं था। उसे जानना था। उसका उद्घोष करना था। यही कार्य पत्रकारिता का है। ऐसी पत्रकारिता का विचार जिस महापुरूष के दिमाग में पैदा हुआ वे थे, भाऊराव देवरस। उनकी एक टोली थी। जिसमें अटल बिहारी वाजपेयी, दीनदयाल उपाध्याय, नानाजी देशमुख आदि होते थे। ये गरिमामय नाम अपने प्रभाव से इतिहास के रचयिता हैं।
मूर्धन्य संपादक
पाञ्चजन्य के पुराने लोगों में अच्युतानंद मिश्र जी हैं, जिन्होंने बताया कि शुरू में तिलक सिंह परमार, बचनेश त्रिपाठी और गिरीश चंद मिश्र ने संपादकीय जिम्मेदारी संभाली। उसी तरह शुरू से ही पाञ्चजन्य के लेखकों में वे नाम हैं जिन्हें नई पीढ़ी शायद ही पूरी तरह जानती हो। अंबिका प्रसाद वाजपेयी से कितने लोग परिचित हैं? अपने जीवनकाल में वे संपादकाचार्य के स्वरूप में प्रतिष्ठित हो गए थे। उन्होंने पाञ्चजन्य के संपादक भानु प्रताप शुक्ल को पत्रकारिता सिखाई। वे उस जमाने में एक दीप स्तंभ थे। पाञ्चजन्य में लिखते भी थे। इसी तरह महान साहित्यकार अमृत लाल नागर भी पाञ्चजन्य के लेखकों में थे। क्या आज की पीढ़ी इस बात से परिचित है कि पाञ्चजन्य में के.एम. मुंशी लिखते थे। स्वाधीनता संग्राम से संविधान निर्माण तक और उसके बाद सोमनाथ के पुनर्निर्माण तक जिनकी बड़ी भूमिका थी, जो उत्तर प्रदेश के राज्यपाल भी थे और दलगत दृष्टि से कांग्रेस के बड़े नेता थे। हालांकि आजादी से पहले वे स्वराज्य पार्टी के संस्थापकों में से थे जिन्हें पुन: कांग्रेस में सरदार पटेल और महात्मा गांधी ले आए।
उसी तरह एक और नाम है जिसे आज के पत्रकार कितना जानते हैं, यह कहना कठिन है। भले ही उनके नाम से अपरिचय न हो, पर उनके विचार और रचना संसार से क्या परिचय है? यह लाख टके का सवाल है। वह नाम है, डॉ. संपूर्णानंद। वे पाञ्चजन्य में अक्सर लिखते थे। पाञ्चजन्य शुरू से ही नियमित अंकों के अलावा समय-समय पर विशेष अंकों की एक लंबी शृंखला का पर्याय है। एक बार संपूणार्नंद के एक लेख पर पाञ्चजन्य ने उन्हें पचास रुपये का भुगतान किया। फौरन उनका पत्र आया कि मैं पैसे के लिए पाञ्चजन्य में नहीं लिखता हूं। जो नहीं लिखा, वह अर्थ हम निकाल सकते हैं कि ‘मैं विचार के लिए लिखता हूं।’ डॉ. संपूर्णानंद की एक तस्वीर मशहूर है। वह 1936 की है। जिसमें वे कांग्रेस सेवा दल की पोशाक में हैं। कांग्रेस अध्यक्ष जवाहरलाल नेहरू को झंडा फहराने में मदद कर रहे हैं। यह चित्र उन दिनों का है जब वे समाजवाद के राही थे। वे मौलिक चिंतक थे। संविधान सभा में उनके एक भाषण पर बड़ी चर्चा हुई। तब वे उत्तर प्रदेश के शिक्षा मंत्री थे। उन्हें स्वतंत्र भारत में उत्तर प्रदेश का दूसरा मुख्यमंत्री होने का गौरव मिला। वे राजस्थान के राज्यपाल भी थे। इन पदों पर रहते हुए भी उन्होंने पाञ्चजन्य के लिए लिखा। उनका जब 1969 में 78 साल की उम्र में निधन हुआ तो श्री भानु प्रताप शुक्ल ने पाञ्चजन्य में छपे उनके लेखों को संकलित कर ‘अधूरी क्रांति’ पुस्तक प्रकाशित कराई। यह 1970 की बात है। यह पुस्तक अगर आज कोई पढ़े तो वह पाएगा कि उनके लेख आज भी सामयिक हैं। इस पुस्तक के लेखों में हिन्दू कानून और हिन्दुत्व पर अनेक लेख हैं। इन लेखों से बौद्धिक प्रकाश की किरणें फूटती नजर आती हैं।
श्री भानु प्रताप शुक्ल ने इस पुस्तक के मनोगत में लिखा कि ‘यह अपने देश का सौभाग्य ही है कि डॉ. संपूर्णानंद जैसा महान चिंतक जनजागरण के मोर्चे पर भी कभी असावधान नहीं रहा। बहुचर्चित, विवादास्पद एवं तात्कालिक विषयों पर जिस व्यवस्था और ओज के साथ उन्होंने अपने विचार समय-समय पर व्यक्त किए हैं, वे भी साहित्य की अनमोल निधि हैं।’ सबसे महत्वपूर्ण बात इसमें यह है कि डॉ. संपूर्णानंद ने अपने लेखन के लिए पाञ्चजन्य को चुना। यह सोचकर चुना कि जनसामान्य गहन चिंतन एवं गूढ़ ग्रंथों का अध्ययन नहीं कर सकता, तो छोटे-छोटे लेखों, चिंतन-कणों का वाचन कर समस्याओं का सहज समाधान तो प्राप्त कर ही सकता है। इस आधार पर हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि पाञ्चजन्य उस दौर में भी वैचारिक पत्रकारिता का मंच था। अगर ऐसा है तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुख पत्र की दृष्टि यहां खारिज हो जाती है। पाञ्चजन्य के संपादक रहे श्री प्रबाल मैत्र ने बातचीत में बताया कि मुख पत्र जैसा स्वरूप पाञ्चजन्य का नहीं रहा है। संपादक को यह अधिकार और सुविधा प्राप्त थी कि वह अपने विवेक से निर्णय करे। इसके अनेक उदाहरण उन्होंने दिए। उनके कार्यकाल में पाञ्चजन्य के संवाददाताओं को किसी भी विचार के राजनीतिक नेता से इंटरव्यू लेने में कठिनाई नहीं होती थी।
विभिन्न धाराओं, विचारों को जगह
पाञ्चजन्य के पुराने अंकों पर एक सरसरी निगाह दौड़ाने से दो बातें तुरंत नजर आती हैं। ‘पाञ्चजन्य पत्रिका अपनी संरचना में विभिन्न धाराओं, विचारों, लेखकों को जगह देती रही है। जैसे पंडित हजारी प्रसाद द्विवेदी, रामधारी सिंह दिनकर, सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’, निर्मल वर्मा, नागार्जुन, रामकुमार भ्रमर, दया प्रकाश सिन्हा आदि। भारतीय भाषाओं, बोलियों के साहित्य को अनुवाद करके छापने का कार्य भी पाञ्चजन्य में होता रहा है। जैस डोगरी, कश्मीरी, उड़िया, गुजराती, मराठी, तमिल, कन्नड़, मलयालम, कोंकणी आदि। आठवें दशक के आसपास के अंकों में चित्रकला समीक्षा, सिनेमा समीक्षा पुस्तक परिचय, पुस्तक समीक्षा और रचनाओं के अंशों का प्रकाशन भी पाठकों के लिए विशेष आकर्षण के विषय रहे हैं। भाषा के शुद्ध रूप को प्रोत्साहन दिया जाता रहा है। खासकर लोक में प्रचलित शब्दों को छोटे-छोटे गल्पों द्वारा व्यवहार में लाने का प्रयास देखने को मिलता है। साहित्य की विभिन्न विधाओं जैस लघुकथा, कहानी, उपन्यास, नाटक, जीवनी, संस्मरण, यात्रा वृत्तांत, रिपोर्ताज, डायरी आदि के लेखकों और इनकी रचनाओं को छाप कर उस विधा के लेखक को पाञ्चजन्य ने अपने अंकों में जगह दी। इस तरह उस विधा और उसके लेखक को प्रोत्साहित किया जाता रहा है। भारतीय, खासकर स्थानीय तीज-त्योहार के महत्व को बताने के लिए नियमित प्रयास होते रहे हैं। वैदिक स्त्री से लेकर आधुनिक स्त्री तक के विभिन्न पहलुओं, उपलब्धियों की चर्चा भी विभिन्न अंकों में मिलती है।’ यह मत प्रो. रमाशंकर कुशवाहा का है- जिन्हें श्री बालेश्वर अग्रवाल की जीवनी के लिए उनके लेखों को खोजने के सिलसिले में पाञ्चजन्य के अंकों को देखने का पिछले वर्ष अवसर मिला।
विशेषांकों की परंपरा
दूसरी बात भी है जिसे पाञ्चजन्य की पत्रकारिता का कीर्ति स्तंभ कह सकते हैं। पाञ्चजन्य के हर संपादक ने इसे निभाया। शुरू से ही पाञ्चजन्य ने विशेष अंकों का समय-समय पर प्रकाशन किया है। उनकी पूरी सूची निकालना और उसे पुन: क्रमबद्ध करना जरूरी है। यहां कुछ उदाहरण देकर बात पूरी करना चाहता हूं। संभवत: दो व्यक्ति लंबे समय तक पाञ्चजन्य के संपादक रहे हैं। प्रो. देवेंद्र स्वरूप और श्री भानु प्रताप शुक्ल। ये दोनों बौद्धिक सेनापति थे। उनके लेखन का इंतजार रहता था, पाठकों को। उनके पाठक दोनों तरह के थे, साधारण और ऊंचे पायदान पर पहुंचे व्यक्ति भी। पाञ्चजन्य के दो ठिकाने रहे हैं और समय-समय पर अदला-बदली होती रही है। यह सिलसिला 1977 में बंद हुआ जब पाञ्चजन्य पक्के तौर पर दिल्ली आ गया। नहीं तो लखनऊ और दिल्ली में आना-जाना पाञ्चजन्य का चलता रहता था। इस अवधि में ही प्रो. देवेंद्र स्वरूप, पंडित दीना नाथ मिश्र, भानु प्रताप शुक्ल और प्रबाल मैत्र के नेतृत्व में पाञ्चजन्य निकला। भानु प्रताप शुक्ल समग्र के 15 खंडों में ज्यादातर लेख पाञ्चजन्य के हैं। उन लेखों में अयोध्या आंदोलन सहित भारतीय राजनीति के वे अध्याय हैं जो हमारे अतीत के अंग बन गए हैं। प्रो. देवेंद्र स्वरूप ने अपने संस्मरणों में जो लिखा है, उससे पाञ्चजन्य की पत्रकारिता की एक झलक मिलती है। ‘मुझे स्मरण है कि 1969 में गांधीजी का जन्म शताब्दी वर्ष आया। हमने पाञ्चजन्य का विशेषांक आयोजित करने का विचार किया। गांधीजी के जीवन-दर्शन, जीवनशैली एवं संस्कृति-बोध से पूरी तरह सहमत होते हुए भी एक सामान्य धारणा मनों में बैठ गई थी कि गांधीजी यदि चाहते तो देश विभाजन रुक सकता था। हिंदू समाज को उन्होंने भरोसा दिलाया था कि ‘विभाजन मेरी लाश पर होगा।’ समाज के इस विश्वास को वे नहीं निभा पाए और यह दंश अभी तक दिलों में बैठा हुआ था। काफी बहस के बाद हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि विभाजन का अध्याय तो पीछे जा चुका है, अब हमें गांधीजी के राष्ट्र निर्माता के पक्ष को ही प्रस्तुत करना चाहिए। इस प्रकार ‘पाञ्चजन्य’ का विशेषांक संघ क्षेत्रों में गांधीजी के पुनर्मूल्यांकन का उदाहरण बन गया।’
अखबार खबरों के लिए जाने जाते हैं और साप्ताहिक पत्रिकाएं विचार के लिए पहचानी जाती हैं। पाञ्चजन्य शुरू से ही साप्ताहिक है। इसका आकार-प्रकार, रूप-रंग और साज-सज्जा परिवर्तित होती रही है। पर जो कभी नहीं बदला, वह है इसका पत्रकारीय स्वधर्म
1971 का बांग्लादेश मुक्ति संग्राम ‘पाञ्चजन्य’ की पत्रकारिता को नई ऊंचाइयां देने का माध्यम बना। घटनाचक्र तेजी से घूम रहा था। कल क्या होगा, इसका अनुमान लगाने में बड़ा मजा आता था। पूर्वी और पश्चिमी, दोनों मोर्चों पर युद्ध चल रहा था। एक अंक को हम लोगों ने शीर्षक दिया ‘लाहौर गिरा कि याहिया गए’ और वही हो गया, लाहौर गिर गया, याहिया चले गए। इस युद्ध का दुखांत था शिमला समझौता। यह विश्व इतिहास की अपूर्व घटना थी कि पाकिस्तान के 95,000 सैनिक भारत के युद्धबंदी बन गए थे। भारत पाकिस्तान से जो चाहे, शर्तें मनवा सकता था, पर शिमला में इंदिराजी जैसी कुशल और यथार्थवादी प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो के अभिनय से गच्चा खा गईं और उन्होंने केवल एक मौखिक आश्वासन के आधार पर उन युद्धबंदियों को रिहा कर दिया। इस विषय पर पाञ्चजन्य ने सरकार की कसकर खबर ली। …‘उस समय ‘पाञ्चजन्य’ की प्रसार संख्या प्रति सप्ताह हजारों में बढ़ी। उसे ‘पाञ्चजन्य’ का चरमोत्कर्ष कहें तो अत्युक्ति न होगी।’ जेपी आंदोलन, असम आंदोलन और अयोध्या आंदोलन के दौर में पाञ्चजन्य की दिशाबोधक भूमिका रही। उसके उदाहरण और उसके आधार पर विश्लेषण फिर कभी। फिलहाल विशेष अंकों की शृंखला के वर्णन में अधूरापन दिखेगा अगर अक्टूबर, 2020 के पाञ्चजन्य अंक का यहां उल्लेख न हो, वह माणिकचंद्र वाजपेयी जी की जन्म शताब्दी पर है। जिसके कवरपेज पर ‘संग्रहणीय अंक’ लिखा है। माणिकचंद्र वाजपेयी जी ‘मामाजी’ के नाम से मशहूर थे।
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