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अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारत का दबदबा जिस रफ्तार से बढ़ रहा है, उसे रोकना अब चीन के बूते के बाहर है। उसके अनुसार भारत दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में शामिल होने की ओर है। पिछले तीन वर्ष में भारतीय कूटनीति मुखर हुई है, जो उसके विश्व शक्ति के रूप में उभरने में सहायक है। ऐसा ‘मोदी सिद्धांत’ के कारण ही संभव हो सका है
सुधेन्दु ओझा
चीन में विदेशी मामलों के जानकार अब मानने लगे हैं कि उनका देश दुनिया में भारत के बढ़ते दबदबे को रोक पाने में सक्षम नहीं रह गया है। चीन सरकार के विदेशी सामरिक शोध संस्थान के विशेषज्ञों को लगता है कि मोदी सरकार के अंतर्गत भारतीय विदेश नीति जीवंत व मुखर हुई है तथा उसकी नीतियां इस क्षेत्र में जोखिम उठाने में भी सक्षम हैं। चीन के विदेश मंत्रालय से संबद्ध चाइना इंस्टीट्यूट आॅफ इंटरनेशनल स्टडीज के उपाध्यक्ष रॉन्ग यिड्ग के अनुसार, बीते तीन वर्ष में भारतीय कूटनीति विशिष्ट व अद्वितीय गुणों के साथ जीवंत तथा मुखर हुई है। नई परिस्थितियों में यह सामरिक रणनीति नई विश्व शक्ति के रूप में उभरते भारत के लिए सहायक सिद्ध हुई है। यह सब ‘मोदी सिद्धांत’ की वजह से ही संभव हो सका है। चीन सरकार के इस संस्थान की पत्रिका (सीआईआईएस जर्नल) में पहली बार भारत और मोदी सरकार के इस पक्ष की विवेचना की गई है। भारत में चीन के राजनयिक रह चुके रॉन्ग यिड्ग ने चीन, दक्षिण व दक्षिण-पूर्व एशिया के साथ भारत के संबंधों तथा अमेरिका व जापान के साथ उसके प्रगाढ़ होते सामरिक संबंधों की पृष्ठभूमि में यह टिप्पणी की है। साथ ही, कहा है कि आने वाले समय में इन देशों के साथ परस्पर हितों के जुड़ने से भारतीय कूटनीति और असरदार हो जाएगी। भारत-चीन संबंधों पर रॉन्ग का कहना है कि दोनों देशों के संबंध स्थिर गति से प्रगति पर हैं। सिक्किम में जिस तरह डोकलाम मुद्दा सुलझाया गया, वह दोनों देशों के परिपक्व रिश्तों का उदाहरण है, किन्तु भविष्य में इस तरह की अन्य चुनौतियों से इनकार नहीं किया जा सकता।
संशय में चीन
आसियान मैत्री रजत जयंती शिखर सम्मेलन में दस आसियान देशों के नेताओं की भागीदारी के साथ गणतंत्र दिवस समारोह में उन्हें बतौर मुख्य अतिथि शामिल कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारत की पूर्वोन्मुखी विदेश नीति में नया अध्याय जोड़ दिया। वियतनाम के प्रधानमंत्री नगुएन शुआन फुक अपनी पत्नी त्रान नगुएन थू के साथ दिल्ली पहुंचे। कंबोडिया के प्रधानमंत्री सामदेच टेको हुन सेन, फिलीपीन्स के राष्ट्रपति रॉड्रिगो हुतेर्ते, म्यांमार की स्टेट काउंसलर आंग सान सू ची, सिंगापुर के प्रधानमंत्री ली सीन लूंग की, थाईलैंड के प्रधानमंत्री प्रयुत चान ओचा, ब्रुनेई के सुल्तान हसनल बोलाकिया, मलेशिया के प्रधानमंत्री नजीब रजाक, लाओस के प्रधानमंत्री थॉन्ग लून सिसौलिथ तथा इंडोनेशिया के राष्ट्रपति जोको विडोडो की उपस्थिति ने चीन को चौंका दिया। आसियान के अधिकांश देश दक्षिणी चीन सागर में चीन की अति-सक्रियता से त्रस्त हैं।
दक्षिण चीन सागर विवाद
दक्षिण चीन सागर समस्या की शुरुआत चीन के पूर्वी सागर से होते हुए दक्षिण की तरफ आती है। अत: पहले हमें इस समस्या को समझने का प्रयास करना होगा। पूर्वी चीन सागर एशिया के पूर्व में स्थित एक समुद्र है जो प्रशांत महासागर का हिस्सा है। इसका क्षेत्रफल करीब 12,49,000 वर्ग किमी है। इसके पश्चिम में चीन, पूर्व में जापान के क्यूशू व नानसेई द्वीप हैं, जबकि दक्षिण में ताईवान है। इस सागर में कुछ द्वीप और रीफ (पानी में डूबी हुई चट्टान) स्थित हैं, जिसे लेकर विवाद है। जैसे- सेंकाकू द्वीप पर जापान का कब्जा है, लेकिन चीन इसे अपना बताता है व इसका नाम ‘दियाओयु’ रखा है। तोंग द्वीप पर चीन का नियंत्रण है, जिसे हाइजियाओ द्वीप भी कहा जाता है। हालांकि सोकोत्रा या लेओदो या सुयान कोई द्वीप नहीं है, बल्कि यह एक रीफ है। लेकिन चीन और दक्षिण कोरिया के बीच इस पर अधिकार के लिए विवाद है। वहीं, दक्षिण चीन सागर चीन के दक्षिण में स्थित एक सीमांत सागर है। यह भी प्रशांत महासागर का भाग है, जो सिंगापुर से ताईवान की खाड़ी तक करीब पैंतीस लाख वर्ग किमी में फैला हुआ है। पांच महासागरों के बाद यह विश्व के सबसे बड़े जल क्षेत्रों में से एक है। इस सागर में कई छोटे-छोटे द्वीप हैं, जिन्हें द्वीप समूह कहा जाता है। सागर और इसके द्वीपों पर इसके तटवर्ती देश अपना दावा जताते हैं।
स्प्रैटली द्वीप समूह
दक्षिण चीन सागर में 750 से अधिक रीफ, समुद्र सतह से ऊपर उठती चट्टाने और अनेक द्वीप है। इतू अबा इनमें सबसे बड़ा द्वीप है। यह फिलिपीन्स और पूर्वी मलेशिया के तटों से आगे दक्षिणी वियतनाम की ओर एक-तिहाई रास्ते पर 4,25,000 वर्ग किमी में फैला हुआ है, जिसमें भूमि क्षेत्र चार वर्ग किमी से भी कम है। इन रीफ-द्वीपों पर कोई नहीं रहता और इनका ज्यादा आर्थिक महत्व भी नहीं है, लेकिन ये द्वीप जिस भी देश के अधीन होंगे उसकी समुद्री सीमा बहुत विस्तृत हो जाएगी। संयुक्त राष्ट्र समुद्री कानून संधि के अंतर्गत इन द्वीपों पर मौजूद संसाधनों पर उनका विशेषाधिकार होगा। सामरिक दृष्टि से भी उस देश की नौसेना अधिक क्षेत्रफल पर सक्रिय हो सकेगी।
स्प्रैटली द्वीप समूह के इर्द-गिर्द के बहुत से देश इन द्वीपों पर दावा जताते हैं। वियतनाम, चीन, ताइवान, मलेशिया और फिलिपीन्स ने लगभग 45 टापुओं पर अपने फौजी दस्ते भेजे हैं और इनमें आपसी तनाव बना रहता है। बु्रनेई जैसे छोटे देश ने हालांकि सेना तो नहीं भेजी है, पर समुद्री कानून संधि के अंतर्गत वह स्प्रैटली समूह के दक्षिण-पूर्वी भाग को अपना आरक्षित आर्थिक क्षेत्र (एक्सक्लूसिव इकॉनॉमिक जोन) बताता है। चीन के साथ आसियान देशों के इस विवाद और अमेरिका, जापान, आॅस्ट्रेलिया और भारत की हिन्द-प्रशांत क्षेत्र में बढ़ती सक्रियता के चलते आसियान देश समूह के राष्ट्राध्यक्षों का दिल्ली में गोलबंद होना चीनी वर्चस्व के लिए खतरे की घंटी जैसा है। रॉन्ग यिड्ग के अनुसार, चीन और भारत परस्पर सहयोगी हैं व दोनों में परस्पर प्रतियोगिता भी है। उनकी प्रतियोगिता में सहयोग है और सहयोग में प्रतियोगिता भी। उनका मानना है कि भारत के रास्ते में चीन रुकावट नहीं है, बल्कि एक अवसर है। हालांकि वे भारत-चीन संबंधों को लेकर बहुत आश्वस्त हैं, किन्तु भारत संभवत: चीन के सहयोग को लेकर उतना आश्वस्त नहीं है। भारत के सामने ऐसे कई उदाहरण मौजूद हैं जो सहयोग की इस कहानी के विपरीत हैं। पाक अधिक्रांत कश्मीर से चीन पाकिस्तान आर्थिक गलियारा निकालना, आतंकी मसूद अजहर के मामले में चीन का पाकिस्तान के साथ खड़ा होना, परमाणु सुरक्षा समूह में चीन द्वारा भारत के प्रवेश का विरोध, कुछ ऐसे मुद्दे हैं जिन्हें दरकिनार करना भारत के लिए उतना सरल नहीं होगा। साथ ही, भारत के पड़ोसी देशों नेपाल, बांग्लादेश, म्यांमार, मालदीव और श्रीलंका को आर्थिक लोभ देकर अपने वश में करने की चीनी चाल को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
अंतरराष्ट्रीय कूटनीतिक मंच पर भारत की बढ़ती सक्रियता पर दोनों पड़ोसी देशों, चीन और पाकिस्तान की बेचैनी छिपाए नहीं छिपती। अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारत की हर पहल से ये दोनों देश असहज हो उठते हैं। आतंकवाद को परोक्ष रूप से बढ़ावा देने के मुद्दे पर दक्षेस देशों और विश्व कूटनीतिक मंच पर अमेरिकी राष्ट्रपति द्वारा सार्वजनिक रूप से पाकिस्तान को अपमानित करने के बाद जावेद हबीब ने ‘डॉन’ अखबार में लेख लिखकर मुस्लिम राष्ट्र इंडोनेशिया की तीन बार भारतीय गणतंत्र दिवस समारोह में मौजूदगी पर नाराजगी जाहिर की है।
प्रधानमंत्री मोदी की फिलिस्तीन, ओमान व संयुक्त अरब अमीरात की यात्रा पश्चिम एशिया में बनते हुए नए परिदृश्य को लेकर है, जहां अमेरिका, इस्रायल, मिस्र, ईरान और सऊदी अरब एक नए और रोचक समीकरण की तरफ बढ़ रहे हैं। कुछ दिनों में इस अशांत क्षेत्र में तुर्की और रूस की भूमिका में आमूल-चूल बदलाव भी दिख सकते हैं। फिलिस्तीन यात्रा के दौरान मोदी राष्ट्रपति महमूद अब्बास के साथ बैठक करेंगे, जो पिछले साल मई में भारत आए थे। उस समय मोदी ने उन्हें फिलिस्तीन के उद्देश्यों के प्रति भारत के समर्थन का भरोसा दिलाया था। इस्राइली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू की भारत यात्रा के बाद एक महीने के अंदर ही मोदी फिलिस्तीन दौरे पर जा रहे हैं। दोनों नेताओं ने फिलिस्तीन मुद्दे पर चर्चा की थी। भारत, फिलिस्तीन के गाजा शहर में इन्फोटेक पार्क बनाना चाहता है। फिलिस्तीन के विकास में भारत का यह अब तक का सबसे बड़ा योगदान होगा। विदेश मंत्रालय इस दिशा में तेजी से काम कर रहा है। संयुक्त अरब अमीरात की यात्रा के दौरान प्रधानमंत्री रक्षा, सुरक्षा और व्यापार जैसे अहम मुद्दों के अलावा छठे वर्ल्ड गवर्नमेंट समिट को भी संबोधित करेंगे। चीन और अमेरिका के बाद संयुक्त अरब अमीरात भारत का तीसरा सबसे बड़ा कारोबारी साझीदार है और उसे भारत के निर्यात का दूसरा बड़ा हिस्सा जाता है। दोनों देशों के बीच करीब 50 अरब डॉलर का कारोबार होता है। भारत के लिए फायदे की बात यह है कि दोनों देशों के बीच रक्षा सहयोग बढ़ रहा है। साथ ही, बुनियादी ढांचे के विकास के लिए 75 अरब डॉलर के निवेश के समझौते पर भी बात चल रही है। गल्फ को-आॅपरेशन काउंसिल, जिसके छह सदस्य देश हैं, भारत की तेल और गैस जरूरतों के आधे हिस्से की आपूर्ति करती है। वहीं, ओमान में प्रधानमंत्री मोदी का जोर व्यापार और रक्षा जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों में सहयोग बढ़ाने पर होगा। विदेश मंत्रालय के सूत्रों के अनुसार, भारत और ओमान के बीच द्विपक्षीय व्यापार एवं निवेश मजबूत तो है, पर वहां भारत की दक्षतापूर्ण सेवाओं में विकास की संभावना कहीं अधिक है। विदेशी मामलों के विशेषज्ञों को लगता है कि अरब देशों के साथ निकटता बढ़ा कर प्रधानमंत्री मोदी घरेलू मोर्चे पर भी यह संदेश देने में सफल होंगे कि वे मुस्लिम राष्ट्र विरोधी नहीं हैं। सूत्रों के अनुसार, प्रधानमंत्री मोदी का इरादा विदेश नीति में पश्चिमी एशियाई देशों को अहमियत देने का है। उन्होंने संयुक्त अरब अमीरात, सऊदी अरब, ईरान, इराक और कतर के अलावा फिलिस्तीन से भी रिश्ते बेहतर बनाने पर विशेष जोर दिया है। अरब देशों के साथ संबंध बेहतर बना कर वे मुस्लिम देशों में पाकिस्तान के असर को कम करना चाहते हैं, ताकि भारत के साथ विवाद में इन देशों का पाकिस्तान को मिल रहा समर्थन कमजोर हो। इंटरनेशनल मॉनिटरी फंड (आईएमएफ) के एक अध्ययन के अनुसार भारत आने वाले वर्षों में चीन और दूसरी बड़ी अर्थव्यवस्थाओं से अधिक तेजी से विकास करेगा। भारत में विकास की बहुत संभावना है और अपनी युवा जनसंख्या, आर्थिक सुधारों के जरिए यह तेजी से आगे बढ़ रहा है। चीन के सरकारी अखबार ‘ग्लोबल टाइम्स’ की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि चीन की आर्थिक सफलता को भारत दोहराएगा।
आर्थिक सर्वेक्षण का हवाला देते हुए कहा गया है कि भारत 2018-19 में 7 से 7.5 फीसदी की रफ्तार से तरक्की करेगा, जो कि उसे दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में सबसे तेजी से बढ़ने वाला बनाएगा। उसका कहना है कि भारतीय अर्थव्यवस्था की सबसे बड़ी खासियत डेमोग्राफिक डिविडेंड है। हाल के दशकों में चीन की सफलता के पीछे भी यही एक महत्वपूर्ण कारक रहा है। वर्ल्ड बैंक के आंकड़े बताते हैं कि भारत के पास दुनिया की सबसे बड़ी युवा आबादी है जो देश के विकास के लिए एक शक्तिशाली इंजन के समान है। भारत में बढ़ते निवेश की समीक्षा करते हुए कहा गया है, ‘‘विश्वसनीय डेमोग्राफिक डिविडेंड की वजह से ही दुनियाभर की कंपनियां भारत में निवेश कर रही हैं।’’ रॉन्ग यिड्ग के शब्दों में अंतरराष्ट्रीय कूटनीतिक मंच पर मोदी सिद्धांत के चलते भारत ने जोखिम भी कम नहीं उठाए हैं। म्यांमार में अंतरराष्ट्रीय सीमा पार करके विद्रोहियों को तहस-नहस करना हो या फिर पाकिस्तान से युद्ध का खतरा मोल लेते हुए उसकी सीमा में घुस कर ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ को अंजाम देना हो, भारत ने साहसपूर्ण निर्णय लिया है। उनके अनुसार आज विश्व शक्ति भारत अंतरराष्ट्रीय मंच पर जिस स्थिति में पहुंच गया है, वहां से उसे हटा पाना अब चीन के बूते के बाहर की बात है। ल्ल
व्यापारिक संबंधों पर चीन को आपत्ति
वियतनाम द्वारा विवादित दक्षिण चीन सागर में तेल एवं प्राकृतिक गैस क्षेत्र में निवेश के लिए भारत को आमंत्रित करने पर चीन को आपत्ति है। उसका कहना है कि द्विपक्षीय संबंध बढ़ाने के बहाने वह अपने अधिकार क्षेत्र में भारत के दखल का विरोध करता है। बता दें कि भारत में वियतनाम के राजदूत तोन सिन्ह थान्ह ने एक समाचार चैनल से कहा था कि उनका देश दक्षिण चीन सागर में भारतीय निवेश का स्वागत करता है। चीन के विदेश मंत्रालय के तत्कालीन प्रवक्ता लु कांग ने इस पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा था कि चीन पड़ोस के संबंधित देशों के बीच सामान्य मजबूत संबंधों पर आपत्ति नहीं जताता। लेकिन यदि इसका इस्तेमाल चीन के वैधानिक अधिकारों में दखल, दक्षिण चीन सागर में दिलचस्पी या क्षेत्रीय शांति और स्थिरता को खत्म करने में किया जाता है तो वह इसका कड़ा विरोध करता है। उल्लेखनीय है कि चीन ओएनजीसी द्वारा दक्षिण चीन सागर में वियतनाम के दावे वाले कुओं में तेल की तलाश करने का पहले से ही विरोध करता आया है। भारत का कहना है कि ओएनजीसी व्यावसायिक परिचालन कर रही है और उसका कार्य क्षेत्र विवाद से जुड़ा नहीं है।
चीन की तरफ झुकता कर्ज के बोझ से बेहाल श्रीलंका
श्रीलंका की सिरीसेना सरकार भारत के साथ बेहतर संबंध बनाए रखना चाहती है, पर चीन के भारी-भरकम कर्ज की वजह से उसके पास सीमित विकल्प हैं। रक्षा विशेषज्ञों के मुताबिक, श्रीलंका-चीन की निकटता से हिंद महासागर में शक्ति संतुलन पर असर पड़ेगा। भारत की यह चिंता स्वाभाविक है। श्रीलंका के साथ भारत आर्थिक एवं तकनीकी सहयोग पर करार करना चाहता है, पर पूर्व राष्ट्रपति राजपक्षे की पार्टी इसका विरोध कर रही है। इसका फायदा उठाकर चीन 1.4 अरब वाले कोलंबो पोर्ट सिटी प्रोजेक्ट को आगे बढ़ाने में जुटा हुआ है। हालांकि श्रीलंका सरकार ने स्पष्ट किया है कि कोलंबो पोर्ट में चीन को मालिकाना हक नहीं दिया जाएगा। सरकार उसे अपनी जमीन का इस्तेमाल भी नहीं करने देगी। चीन असंभव मानी जाने वाली कुछ परियोजनाओं को भी आगे बढ़ा रहा है, जिनमें हंबनटोटा पोर्ट व मट्टाला हवाई अड्डे शामिल हैं। दरअसल, 1971 से 2012 के बीच चीन ने श्रीलंका को पांच अरब डॉलर कर्ज दिया था, जिसमें 94 प्रतिशत हिस्सा राजपक्षे के जमाने में मिला। राजपक्षे के शासन के दौरान यह कर्ज महंगी ब्याज दरों पर लिया गया था, जिसे चुकाना उसके लिए चुनौती है। इसी वजह से उसका झुकाव चीन की ओर ज्यादा है। ताजा जानकरियों के अनुसार, सामरिक तौर पर अहम माने जा रहे हंबनटोटा बंदरगाह को लेकर श्रीलंका और चीन ने एक समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर किए हैं। 1.12 अरब डॉलर यानी करीब 72 अरब रुपये के इस समझौते के तहत श्रीलंका ने हंबनटोटा पोर्ट की 70 प्रतिशत हिस्सेदारी एक चीनी फर्म को सौंप दी है। यह समझौता भारत की चिंताओं को बढ़ा सकता है।
श्रीलंका के बंदरगाह मंत्री महिंदा समरसिंघे ने बताया कि चाइना मर्चेंट पोर्ट होल्डिंग्स के साथ 1.12 अरब डॉलर में सौदा हुआ है। चीनी कंपनी इस बंदरगाह का संचालन करेगी, जबकि उसकी सुरक्षा की जिम्मेदारी श्रीलंका की होगी। समरसिंघे ने कहा कि किसी भी विदेशी नौसेना को यहां बेस बनाने की अनुमति नहीं दी जाएगी। इससे चीन द्वारा बंदरगाह के दुरुपयोग करने की आशंकाओं को दूर किया जा सकेगा। इस करार में भारत के लिए राहत की बात यह है कि बंदरगाह की सुरक्षा का दारोमदार श्रीलंका की नौसेना पर ही होगा। श्रीलंका ने चीन की नौसेना को इस बंदरगाह की सुरक्षा में तैनात होने के लिए यहां बेस बनाने की अनुमति देने से इनकार कर दिया था। माना जा रहा है कि समरसिंघे ने इस सौदे के मद्देनजर पैदा हुई भारत की सामरिक चिंताओं को ध्यान में रखते हुए यह बयान दिया है।
बांग्लादेश में चीनी कंपनी प्रतिबंधित
बांग्लादेश सरकार ने चीन की एक सरकारी कंपनी को प्रतिबंधित कर दिया है। इस कंपनी पर बांग्लादेश के एक अधिकारी को घूस देने का आरोप था। बांग्लादेशी मीडिया की खबरों के मुताबिक, चीनी कंपनी ढाका-सिलहट राजमार्ग निर्माण से जुड़ी हुई थी। इससे चीन-बांग्लादेश के बीच तनातनी की संभावना व्यक्त की जा रही है।
बांग्लादेश के वित्त मंत्री के मुताबिक, चीन हॉर्बर इंजीनियरिंग कॉर्पोरेशन लिमिटेड को बांग्लादेशी सरकार ने सरकारी अधिकारियों को घूस देने के कारण काली सूची में डाल दिया है। यह कंपनी पाकिस्तान के ग्वादर और श्रीलंका के हंबनटोटा पोर्ट जैसी कई बड़ी परियोजनाओं से जुड़ी हुई है। बकौल वित्तमंत्री, चीनी कंपनी ने बांग्लादेश हाइवे ट्रांसपोर्ट एंड ब्रिज डिपार्टमेंट के नवनियुक्त निदेशक को घूस देकर परियोजना में निवेश की गई राशि को कहीं और निवेश करने का लालच दिया था।
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