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दक्षिण भारत की राजनीति में प्रसिद्ध फिल्म अभिनेता रजनीकांत की दस्तक न केवल चौंकाने वाली है बल्कि राज्य के सियासी दलों में खलबली पैदा करने वाली भी है
हितेश शंकर
अमूमन 67 वर्ष की आयु में कोई अपना काम नहीं बदलता।
वैसे, यह नया काम शुरू करने की उम्र भी नहीं है!
फिर इसमें इतना जोखिम जो है!
लेकिन जिसका नाम और पहचान जोखिम और जिंदादिली का ही पर्याय हो!
नाम है-शिवाजी राव गायकवाड़
काम—हुक्म चलाना और वह भी पूरी ठसक के साथ।
लोगों के मन में अब तक उनकी पहचान यही है!
यह सिर्फ घोषणा नहीं थी, बल्कि कहा जा सकता है कि नए वर्ष की दस्तक के साथ एक मराठी ने खबरों की दुनिया में सबसे बड़ा धमाका कर डाला। महाराष्ट्र मूल के रजनीकांत पूरे दक्षिण भारत में अपनी इसी चौंकाऊ अदा के लिए जाने जाते हैं! रजनीकांत को वहां लोग प्यार से ‘थलाइवा’ यानी ‘बॉस’ कहते हैं। दिसंबर के अंतिम दिन सिनेमा के थलाइवा ने ताल ठोककर कह दिया कि अब वे राजनीति में उतरने या कहिए, सियासी बॉस बनने जा रहे हैं। अपने प्रशंसकों के सामने सुपरस्टार की इस घोषणा का क्या अर्थ निकाला जाए! निश्चित ही यह कोरा उत्साह नहीं है। क्योंकि तमिलनाडु की राजनीति में जिस तरह मौके को पढ़कर और झकझोरने वाले वाक्यों के साथ रजनीकांत ने राजनीति की ओर कदम बढ़ाया है, उसके परिणाम सिनेमाई भूमिकाओं की ही तरह चौंकाऊ हो सकते हैं। उन्होंने आगामी राज्य विधानसभा चुनाव लड़ने और अपनी अलग पार्टी बनाने की ही घोषणा नहीं की बल्कि तमिलनाडु के वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य को लोकतंत्र के लिए भयानक बताते हुए एक साहसिक पहल की दरकार को रेखांकित किया और ‘मैं कायर नहीं हूं इसलिए पीछे नहीं हटूंगा’ का उद्घोष करते हुए स्वयं को इस भूमिका के लिए प्रस्तुत कर दिया।
इसके मायने क्या हैं! क्या वे अपनी समझ खो चुके हैं या ऐसा समझने वाले ठीक फिल्मों की तरह रजनीकांत के असल किरदार को पहचानने में चूक रहे हैं? दूसरी बात में ज्यादा दम है। एक झटके में राजनैतिक झंझावात पैदा करना एक बात है किन्तु इस थरथराहट में ही उन्होंने राजनीति के जिस ‘आध्यात्मिक’ स्वरूप की बात की है वह निश्चित ही लोगों के मन को छूने का गंभीर और सधा प्रयास है। इसमें फिल्मी हल्केपन की बजाय सोचे-समझे तरीके से आगे बढ़ने का संकल्प दिखता है। क्या रजनीकांत की इस पहल के पीछे भाजपा है? भले लोग कुछ कयास लगाएं किन्तु जितना यह कहना मुश्किल है उतना ही दिलचस्प यह देखना भी होगा कि उन्होंने अपने प्रशंसकों से जिस ‘एंटी कम्युनल’ राजनीति का वादा किया है, उसका रंग भाजपा को कितना रास आता है।
यह हैरान करने वाली बात है कि जाति-वर्ग और संप्रदाय के नाम पर पिछड़ी-संकीर्ण राजनीति करने वाले दलों द्वारा खुद को प्रगतिशील और सेकुलर बताते हुए अब तक जो सियासी मैच हुए, उसमें केवल भाजपा को सांप्रदायिक बताते हुए ही लामबंदियां हुर्इं। यदि रजनीकांत वास्तव में सांप्रदायिक शक्तियों को बेनकाब करते हुए राजनीति करते हैं और इसके बावजूद भाजपा के विरोध में नहीं जाते तो यह भारतीय राजनीति में एक चमत्कारी समीकरण की घोषणा हो सकती है। लेकिन यदि वे विफल रहते हैं तो! कहा जाएगा कि यह उनका क्षेत्र, उनका मैदान नहीं था। बस! उन्होंने पहले ही इतना कुछ हासिल किया है कि केवल राजनीति उनसे कुछ छीन नहीं सकती। किन्तु यदि रजनीकांत सफल हो जाते हैं तो! यह सफलता केवल चुनाव परिणामों तक सिमटी नहीं रहेगी। महानायक पर अपने दावे चमत्कारी गति से पूरा करने का दबाव रहेगा। इस दबाव में परिणाम देना ही असल नायकत्व है। क्या रजनीकांत अपने आप को इस बेहद कठिन काम के लिए पूरे मन से प्रस्तुत कर रहे हैं? लगता तो ऐसा ही है क्योंकि उनके राजनीति में पदार्पण के कयास लंबे समय (पिछले बीस वर्ष) से लगाए जा रहे थे और अपनी हर भूमिका को खूब विचार कर वरण करने वाला नायक अब खुद पूरे मन से आगे बढ़ा है। बहरहाल, राजनीति और रजतपट का रिश्ता दक्षिण भारत में जिस प्रकार घी-शक्कर सा रहा है, उस पर उत्तर भारत आश्चर्य ही कर सकता है।
एक नई पार्टी का गठन करने और इसके पांच वर्ष के भीतर राज्य में सरकार बनाने वाले एमजीआर का जैसा उदाहरण तमिलनाडु में है, वैसा उदाहरण भारत की पूरी राजनीति में दूसरा नहीं है। यह नहीं भूलना चाहिए कि जयललिता सरीखी सफल अभिनेत्री के अत्यधिक सफल नेत्री बनने की पटकथा भी दक्षिण भारत के इसी समुद्रतटीय राज्य में लिखी गई थी।
मानने में हर्ज नहीं कि प्रशंसकों का प्यार यहां ऐसा ज्वार जगाता है जो स्थापित राजनीति का भट्टा बैठा सकता है।
इसलिए रजनीकांत के ताल ठोकते ही राजनीतिक गलियारों में भारी हड़बड़ी मची है। मीडिया में अचानक ऐसे लेखों की बाढ़ सी आ गई जो रजनीकांत की पहल को महज ‘स्टंट’ बताकर खारिज कर देना चाहते हैं। किन्तु ऐसा चाहने से क्या होगा?
‘स्टंट’ बताने से भी क्या होगा? क्या यही कथित मीडिया अपने भौंदू मसखरेपन को गंवई अंदाज में बेचने वाले ‘लालू’ प्रसाद यादव को लगातार ढोता नहीं रहा! जो भी हो, थलाइवा ने योग की जिस ‘अपानमुद्रा’ को अपना प्रतीक बताते हुए तमिलनाडु की राजनीति में जिस बदलाव का बिगुल बजाया है, उसका स्वागत तो करना ही चाहिए।
जयललिता की संदेहों में लिपटी त्रासद मृत्यु के बाद खांचों में बंटी एआइएडीएमके और समाज को और ज्यादा खांचों में बांटने को उत्सुक डीएमके के मुकाबले तो यह विकल्प पहली नजर में अच्छा ही लगता है। उस राजनीति में जहां बारीक संकेत भी पूरी गहराई से पढ़े जाते हैं, शिवाजी की अंगड़ाई अब किसी से छिपी नहीं है। वैसे भी अपानमुद्रा ‘विष मुक्ति’ की मुद्रा है। राजनीति विभाजन, भ्रष्टाचार और विद्वेष के विष से मुक्त हो, इससे भला किसी को क्यों बुरा लगेगा! ल्ल
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