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चुनावी चौसर में हारने वाले बदहवास हैं। इतिहास के तथ्यों को गलत ढंग से प्रस्तुत करने और हिंसा करने से भी उन्हें कोई गुरेज नहीं। भारत तोड़ने पर आमदा इन लोगों की जंग बड़ी जहरीली है
गोविंद कल्याणकर
कोरेगांव भीमा विवाद महाराष्ट्र में सामाजिक संघर्ष का कारण बन गया। इस मुद्दे पर महाराष्ट्र बंद का आयोजन कर हर शहर में पत्थरबाजी, हिंसा और आगजनी की गई। अनेक लोग घायल हुए और कुछ लोग मारे भी गए। क्या है यह विवाद? क्या राहुल गांधी की उस जातिवादी राजनीति को आगे बढ़ाने के लिए यह हिंसा की गई, जिसे गुजरात में हार का मुंह देखना पड़ा? इतिहास का संदर्भ लेकर आज यह संघर्ष क्यों छेड़ा जा रहा है? 200, 300 वर्ष पूर्व घटी घटनाओं को लेकर आज ही संघर्ष क्यों छेड़ा जा रहा है? इन सवालों के जवाब ढूंढने के लिए हमें इस संघर्ष के पूरे स्वरूप को जानना होगा।
कोरेगांव भीमा पुणे के नजदीक भीमा नदी के किनारे एक गांव है, जिसके इर्द-गिर्द इतिहास में घटित अनेक घटनाओं का जिक्र हमेशा होता रहता है। छत्रपति संभाजी महाराज के तेजस्वी बलिदान का साक्षी है कोरेगांव भीमा का क्षेत्र। उल्लेखनीय है कि मुगल शासक औरंगजेब ने छत्रपति संभाजी को छल से पकड़ने के पश्चात् उन्हें मुसलमान बनाने हेतु अनेक अत्याचार किए। संभाजी की जुबान कटवा दी गई, आंखें निकाल दी गर्इं, नाखून खींच लिए गए, घोड़े के पीछे बांध कर घसीटा गया, इसके बावजूद उन्होंने इस्लाम मत स्वीकारने से साफ मना कर दिया। इसके बाद औरंगजेब के आदेश पर संभाजी के शरीर के टुकड़े कर उन्हें कोरेगांव भीमा के नजदीक वढू बुद्रुक देहात में फेंक दिया गया। यही संभाजी महाराज इतिहास के पन्नों में धर्मवीर नाम से अमर हो गए।
इस घटना के करीब 130 साल के पश्चात् इसी क्षेत्र में एक युद्ध हुआ। हिंदवी स्वराज्य के अंतिम पेशवा बाजीराव द्वितीय और अंग्रेजों के बीच हुए इस युद्ध का कोई निर्णायक परिणाम तो नहीं निकला, लेकिन फिर भी अंग्रेजों ने समाज में फूट डालने के लिए कोरेगांव भीमा में एक विजय स्तंभ का निर्माण किया। स्वाधीनता के पश्चात् आज भी अंग्रेजों की वह फूट डालने की नीति कामयाब होती नजर आ रही है। अंग्रेजों द्वारा खड़ा किया यह विजय स्तंभ आज सामाजिक संघर्ष का कारण बन चुका है। कोरेगांव भीमा क्षेत्र में इतिहास के पन्नों में संभाजी राजे के समर्पण और 100 साल बाद अंग्रेजी सेना और पेशवा की सेना में हुए युद्ध को लेकर आज विवाद खड़ा किया गया है। राजनीतिक रोटियां सेंकने हेतु इतिहास के पन्नों को अपनी सुविधा के अनुसार तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत किया जा रहा है, उसका गलत विश्लेषण किया जा रहा है। अपने-अपने राजनीतिक उद्देश्यों को साधने के लिए समाज को आधा सच बता कर भड़काया जा रहा है। बंद, हड़ताल, दंगों को हवा देकर कुछ नेता तमाशा देख रहे हैं। सरकार को कठघरे में खड़ा कर घेरने की कोशिश चल रही है। लेकिन इसका दुष्परिणाम तो आम जनता को भुगतना पड़ रहा है। इन घटनाओं का सच क्या है, इसे समझ कर जनता को सूझबूझ दिखाने की जरूरत है। इसमें दो राय नहीं है कि कोरेगांव की घटना के तार गुजरात से भी जुड़े हैं। हाल ही में गुजरात विधानसभा के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी लगातार छठी बार जीती है। लेकिन गुजरात के चुनाव परिणामों को भाजपा की जीत से ज्यादा ‘राहुल गांधी की जीत’ बताया जा रहा है। कांग्रेस ने वहां जातीय समीकरण बनाकर जीत की उम्मीद लगा रखी थी, किन्तु उसका यह समीकरण धरा का धरा रह गया और जातिवादी राजनीति हार गई। अब इस हार को छिपाने के लिए जनादेश का गलत अर्थ निकाला जा रहा है। इस गलत अर्थ का घातक असर अब देश महसूस करने लगा है।
कोरेगांव भीमा का विवाद उसी गलत अर्थ का एक नतीजा है। अपनी राजनीति चमकाने के लिए समाज को भड़काने का प्रयास हो रहा है। इसी योजना के तहत गुजरात में कांग्रेस के समर्थन से विधायक बने जिग्नेश मेवाणी को पुणे के एक कार्यक्रम में बुलाया गया था। वहां उन्होंने भड़काऊ भाषण दिया। कोरेगांव भीमा क्षेत्र से इतिहास की दो घटनाएं जुड़ी हुई हैं। छत्रपति संभाजी महाराज के शरीर के टुकडेÞ करने के बाद औरंगजेब ने ऐलान किया था कि जो भी उनके क्षत-विक्षत शव को उठाने की कोशिश करेगा, उसे मौत की सजा दी जाएगी। लेकिन वढू गांव के गोविंद गोपाल गायकवाड़, जो वंचित समाज से थे, से अपने राजा की यह स्थिति देखी नहीं गई। वे आगे आए और उन्होंने संभाजी महाराज के शरीर को सहेजकर उनका अंतिम संस्कार कर दिया। संभाजी महाराज के समाधि स्थल के पास ही उन पर सर्वस्व न्योछावर करने वाले गोविंद गायकवाड़, शिवले देशमुख की समाधियां हैं।
लेकिन आज इस घटनाक्रम को गलत तरीके से प्रस्तुत करने की कोशिशें की जा रही हैं। बिना किसी ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर कहा जा रहा है, ‘संभाजी को औरंगजेब ने नहीं, ब्राह्मणों ने मारा है।’ इस कुतर्क को तर्कसंगत बनाने के लिए गोविंद गायकवाड़ और शिवले देशमुख के इतिहास को नकारने की भी कोशिश हो रही है। इस मामले को लेकर कुछ दिन पहले संभाजी महाराज के समाधिस्थल पर एक विवाद हुआ था। औरंगजेब ने संभाजी महाराज की हत्या 1689 में करवाई थी। उसके बाद 1818 में इसी कोरेगांव भीमा क्षेत्र में मराठा राज्य के अंतिम पेशवा बाजीराव द्वितीय की सेना और अंगे्रजों की सेना के बीच लड़ाई हुई। पूरे भारत पर कब्जा करने के लिए पेशवा की अगुआई में कायम हिंदवी स्वराज्य को जीतना अंग्रेजों के लिए जरूरी था। इसलिए उन्होंने यह लड़ाई की। उस लड़ाई में शामिल पेशवा की सेना में 20,000 घुड़सवार और 8,000 पैदल सैनिक थे। युद्ध में किसी भी पक्ष ने निर्णायक जीत हासिल नहीं की थी। यहां तक कि पेशवा इस युद्ध से सकुशल बच निकलने में सफल रहे थे। शायद इसीलिए युद्ध के कुछ समय बाद माउंट स्टुआर्ट एलफिन्स्टन ने इसे पेशवा की छोटी-सी जीत बताया था। इसके बावजूद ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपने सैनिकों की ‘बहादुरी’ की प्रशंसा की और संख्या में कम होने के बाद भी कड़ा मुकाबला करने के लिए उनका मान-सम्मान किया। बाद में अंग्रेजी सेना के हाथों पेशवा सेना के योद्धा बापू गोखले, त्र्यंबकजी डेंगले जैसे वीर शहीद हुए और कुछ पकड़े भी गए। इसके बाद ही अंग्रेजों की अंतिम विजय हुई और यूनियन जैक फहराया गया। यानी अंग्रेजों का पूरे हिंदुस्थान पर कब्जा हो गया। इसके पश्चात् कोरेगांव में हुए युद्ध को भी ईस्ट इंडिया कंपनी की ‘जीत’ माना गया और अपने मृत सैनिकों की स्मृति में कोरेगांव में एक विजय स्तंभ का निर्माण किया गया। इस स्तंभ पर इस युद्ध में मारे गए 49 कंपनी सैनिकों के नाम लिखे हुए हैं। इनमें महार जाति के वे 22 सैनिक भी शामिल हैं, जिन्होंने अंगे्रजों की ओर से लड़ाई लड़ी थी।
अब इतिहास के इस तथ्य को गलत रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है और कहा जा रहा है कि ‘दलित जाति के सैनिकों ने ऊंची जाति के पेशवा पर विजय प्राप्त की थी।’ इसी दृष्टिकोण को लेकर 1 जनवरी, 2018 को एक कार्यक्रम का आयोजन किया गया था। उसके बाद ही यह विवाद बढ़ा। सोशल मीडिया में यह बात फैलाई जा रही है कि ‘संभाजी महाराज की हत्या ब्राह्मणों ने की थी और उसका बदला लेने के लिए महार जाति के लोगों ने पेशवा को कोरेगांव में हराया था।’ यह सिलसिला थम नहीं रहा। इसके पीछे राजनीति है। उल्लेखनीय है कि महाराष्टÑ में रिपब्लिकन पार्टी के दो प्रमुख गुट हैं, एक गुट रामदास आठवले का है, तो दूसरा डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर के पोते प्रकाश आंबेडकर का। इस समय रामदास आठवले केंद्र सरकार में मंत्री भी हैं। दूसरी ओर प्रकाश आंबेडकर का गुट जी-जान से केंद्र एवं राज्य में सत्तारूढ़ भाजपा के विरोध में काम करता आ रहा है। राजनीति में बढ़त बनाने के लिए ही इस मुद्दे को हवा दी जा रही है। इसमें संदेह नहीं है कि महाराष्टÑ के राष्टÑनिष्ठ लोगों का मानना है कि 1818 का युद्ध पेशवा और महार रेजिमेंट के बीच नहीं हुआ था। वह युद्ध अंग्रेजों और शिवाजी महाराज द्वारा स्थापित हिंदवी स्वराज्य के बीच हुआ था।
अनेक बुद्धिजीवियों का कहना है कि इतिहास की बातों पर वैचारिक मतभेद होना कोई अस्वाभाविक नहीं है, लेकिन इन मतभेदों को लेकर हिंसा करना किसी भी सूरत में ठीक नहीं है। राष्टÑीय स्वयंसेवक संघ और कुछ अन्य संगठनों ने इस हिंसा की निंदा की है। राज्य सरकार ने न्यायिक जांच का भी आदेश दे दिया है। हिंसा में जुडेÞ दोनों पक्षों के कुछ लोगों को गिरफ्तार भी किया गया। लेकिन संदेह नहीं कि राजनीतिक कारणों से इस विवाद को बढ़ाया गया। प्रकाश आंबेडकर ने 3 जनवरी को महाराष्टÑ बंद का आवाहन किया। किसी अनहोनी की आशंका के कारण पूरा महाराष्टÑ बंद रहा। यही नहीं, इसकी आग गुजरात, कर्नाटक, मध्य प्रदेश आदि राज्यों तक फैलाई गई। इतिहास के पन्नों को आज के राजनीतिक फायदे के लिए गलत तरीके से इस्तेमाल करने का यह एक भद्दा उदाहरण बन गया है। लोगों को जाति के नाम पर बांटने की कोशिश की जा रही है, जबकि छत्रपति शिवाजी महाराज के गौरवशाली इतिहास में जातिगत मतभेदों का कोई स्थान नहीं था। जो शिवाजी के साथ थे, उन सभी को मावले कहा जाता था, मराठा कहा जाता था। शिवाजी महाराज, संभाजी महाराज, बाजीराव पेशवा, माधवराव पेशवा इन सभी के साथ सभी जाति के लोग थे। हां, सभी जातियों के कुछ स्वार्थी लोग इनके खिलाफ मुगल, निजाम और अंग्रेजों के साथ थे। संघर्ष जाति या समाज के समूह के बीच नहीं, राष्टÑीयता और आक्रमणकारी के बीच था। गुलामी और स्वाधीनता के बीच था। लेकिन इतिहास के पन्नों से कुछ सुविधाजनक नामों को निकालकर उन्हें कठघरे में खड़ा करना, संघर्ष खड़ा कर, समाज में हिंसा फैलाना जघन्य अपराध है। कोरेगांव भीमा के मुद्दे पर कुछ राष्टÑवादी संगठनों, भाजपा, उसकी सरकारों और रामदास आठवले जैसे नेताओं के खिलाफ हवा बनाने की कोशिश हो रही है। इसी से उनकी मानसिकता का पता चलता है कि वे हिंसा को क्यों बढ़ावा दे रहे हैं? संसद से लेकर सड़क तक हिन्दुत्वनिष्ठ संगठनों पर झूठे आरोप लगाए जा रहे हैं। कहा जा रहा है कि ‘भाजपा की सरकार बनने के बाद देश में दलितों और मुसलमानों पर अत्याचार बढ़ गए हैं।’ इसी से अंदाजा लगा सकते हैं कि भाजपा विरोधी नेता और संगठन किस हद तक की राजनीति कर रहे हैं।
हिंदुस्थान में अशांति फैलाकर राष्ट्रीयता को गंभीर खतरा पैदा करने की कोशिश नक्सली, आतंकी मानसिकता रखने वाले संगठन बार-बार करते हैं। कोरेगांव भीमा में भी अशांति फैलाने में क्या यही ताकतें सक्रिय हैं? पुणे में जिग्नेश मेवाणी के कार्यक्रम में जेएनयू में हिंदुस्थान विरोधी नारे लगाने वाले उमर खालिद की मौजूदगी यही दर्शाती है। जब से केंद्र और विभिन्न राज्यों में भाजपा की सरकारें बनी हैं, तब से हिंदुत्व और राष्ट्रीयता के विरोधी बेचैन हैं। कोरेगांव भीमा जैसा कोई भी मुद्दा सामने आता है तो भाजपा की सरकारों के लिए दिक्कतें पैदा करने हेतु सामाजिक संघर्ष तीव्र करने का सुनियोजित प्रयास किया जाता है। शहरी नक्सलवाद जैसी सामाजिक प्रक्रिया नियोजित ढंग से चलाई जा रही है। इसके लिए जातिगत संघर्ष के विषयों को उछाला जा रहा है, सामाजिक गुटों को भड़काया जा रहा है। कोरेगांव भीमा के विषय में भाजपा की सरकारें, रामदास आठवले जैसे एनडीए में शामिल गुट के विरोध में संकुचित जातिगत संघर्ष, अस्मिता को जगाने का प्रयास किया जा रहा है। राष्ट्रवाद, हिंदुत्व का नाम लेकर संगठन चलाने वाले शिव प्रतिष्ठान जैसे संगठनों द्वारा भी अपने विचार रखने के लिए हिंसा का मार्ग चुनना स्वीकार्य नहीं है। ऐसा प्रयास करने वाला हर व्यक्ति हिंदुत्व, राष्ट्रीयत्व, सामाजिक एकता के लिए संकट पैदा करता है। कहीं भी ऐसा होने पर हमेशा हिंसा में संलग्न लोगों को छोड़ कर संघ, भाजपा को लक्ष्य कर आलोचना की जाती है। इतिहास को तोड़-मरोड़ कर उसका उपयोग सामाजिक एवं राजनीतिक संकुचित स्वार्थ के लिए करना अनुचित है। कोरेगांव भीमा का संघर्ष ऐसे गलत प्रयासों का ही परिणाम है। अपने इतिहास को अच्छी तरह से जान कर सामाजिक एकता के साथ राष्ट्र निर्माण में शक्ति लगाना लगाना ही एकमात्र मार्ग है।
याद रखिए; निशाने पर न ब्राह्मण है, न मराठा है, न राजपूत है, न गुर्जर है, न दलित है, न पिछड़े हैं। जगह के हिसाब से जातियां बदलेंगी, क्योंकि निशाने पर भारत है।
—किरण रिजिजू केंद्रीय गृह राज्य मंत्री
संघ ने की निंदा
राष्टÑीय स्वयंसेवक संघ के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख डॉ. मनमोहन वैद्य ने 2 जनवरी को एक प्रेस विज्ञप्ति जारी कर महाराष्टÑ की घटना की घोर निंदा की है। उन्होंने कहा है कि हाल ही में कोरेगांव, पुणे और महाराष्टÑ के अन्य स्थानों पर हुई घटना दु:खद और खिन्न करने वाली है। राष्टÑीय स्वयंसेवक संघ इस घिनौनी हिंसा की कठोर निंदा करता है। इन घटनाओं के लिए जो भी दोषी हैं, उन्हें कानून के हिसाब से सजा मिलनी चाहिए। कुछ ताकतें विभिन्न समुदायों के बीच घृणा और नफरत फैलाना चाहती हैं। लोग ऐसी गलत हरकतों का शिकार न बनें। लोगों से अपील है कि वे समाज में एकता और समरसता को बनाए रखें।
समाज तोड़ने में सब एक
31 दिसंबर को पुणे के कार्यक्रम में अनेक संगठनों की भागीदारी रही। इन संगठनों में कोई नक्सलियों की मदद करता है, कोई आतंकवादियों के समर्थन में रैली निकालता है, तो कोई जाति का जहर फैलाता है। लेकिन हिंदू समाज को तोड़ने के लिए ये सब एक साथ हुए। कार्यक्रम में छत्रपति शिवाजी मुस्लिम ब्रिगेड, दलित ईलम, पॉपुलर फ्रंट आॅफ इंडिया, मूल निवासी मुस्लिम मंच आदि संगठनों की भूमिका रही। ईलम तमिल का शब्द है। इसका अर्थ है-देश। दलित ईलम यानी दलित देश।
विभाजनकारी हुए एक
पुणे में 31 दिसंबर, 2017 को यलगार परिषद ने एक कार्यक्रम आयोजित किया। यलगार उर्दू का शब्द है और इसका अर्थ होता है-तत्काल हमला करके मार देना। और कार्यक्रम में मारने की ही बात हुई। इसके बाद जो हुआ दुनिया के सामने है। कार्यक्रम में डॉ. आंबेडकर के पोते प्रकाश आंबेडकर, गुजरात के निर्दलीय विधायक जिग्नेश मेवाणी, नक्सली नेता सोनी सोरी, दलित नेता विनय रतन सिंह, प्रशांत दौढ़, अब्दुल हामिद अजहरी, रोहित वेमुला की मां राधिका वेमुला, जे.एन.यू. में भारत विरोधी नारे लगाने वालों में से एक उमर खालिद सहित अनेक लोग मौजूद थे। इन लोगों ने लोगों को भड़काने वाले भाषण दिए। इसके बाद दूसरे दिन हिंसा भड़की। इस मामले में जिग्नेश और उमर के खिलाफ मुकदमा भी दर्ज हुआ है।
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