संघ को किसी भी रूप में चातुर्वर्ण्य व्यवस्था स्वीकार नहीं—बालासाहब देवरस
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संघ को किसी भी रूप में चातुर्वर्ण्य व्यवस्था स्वीकार नहीं—बालासाहब देवरस

by
Jan 23, 2018, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 23 Jan 2018 11:11:10


वरिष्ठ पत्रकार दिनकर विनायक गोखले ने डॉ. हेडगेवार भवन में बालासाहब का साक्षात्कार  लिया था। उस समय बालासाहब के निजी सचिव डॉ. आबाजी थत्ते और महाराष्ट्र टाइम्स के नागपुर प्रतिनिधि केशवराव पोतदार उपस्थित थे। यह साक्षात्कार अगस्त 1973 के किर्लोस्कर मासिक में प्रकाशित हुआ था।

बालासाहब, सरसंघचालक बनने के बाद आपने जो पहला भाषण दिया उसमें आपने कहा कि यह पद मुझे मिलेगा, इसकी मुझे कल्पना नहीं थी। आपकी संघ में वरिष्ठता, तपस्या और स्वयंसेवकों में लोकप्रियता को देखते हुए आपकी नियुक्ति स्वाभाविक थी, ऐसा ज्यादातर स्वयंसेवकों को लगता है। फिर आपको आश्चर्य क्यों हुआ?
सोचा नहीं था या आश्चर्य हुआ, वह केवल स्वास्थ्य के कारण। मुझे कभी नहीं लगा कि मुझमें मेरे सहयोगियों की तुलना में  गुणवत्ता में कोई कमी है, लेकिन मेरा स्वास्थ्य पहले जितना अच्छा नहीं है। मैं ब्लड प्रेशर का मरीज हूं। गुरुजी यह जानते थे। इसलिए मुझे नहीं लगता था कि सरसंघचालक की जिम्मेदारी मुझे दी जाएगी।
मैंने आपके सरसंघचालक बनने के बाद के दो भाषण पढ़े, उसमें संस्कृत और अंग्रेजी के कई सुभाषित हैं। आपने संस्कृत का अध्ययन कब किया?
कॉलेज में मैं संस्कृत का छात्र था। मुझे वह विषय पसंद था। मैंने संस्कृत के काव्य और नाटक बहुत पढ़े हैं।   मॉरिस कॉलेज में संस्कृत में अंत्याक्षरियां होती थीं मैं उनमें भाग लेता था। मैंने अंग्रेजी साहित्य भी काफी पढ़ा है।
कैसा साहित्य? कहानी, उपन्यास या इतिहास और चरित्र आदि।
वाल्टर स्कॉट के उपन्यास पढ़े हैं, मगर इतिहास और चरित्रों में ज्यादा ज्यादा दिलचस्पी है।

यह तो कॉलेज की बात हुई। पिछले कुछ वर्षों में क्या पढ़ा?
अभी पहले जितना पुस्तकें पढना हो नहीं पाता। मगर प्रथम और द्वितीय महायुद्ध पर मैंने कई किताबें पढ़ी हैं।
आप शुरुआत से ही स्वयंसेवक हैं इसलिए सवाल पूछ रहा हूं, मुसोलिनी के फासिस्ट आंदोलन का 1925 से पहले भारत में बहुत बोलबाला था। डॉ. हेडगेवार फासिस्ट आंदोलन से प्रभावित हुए और उसकी परिणति संघ की स्थापना में हुई। यह सही है क्या? डॉक्टरजी के बौद्धिक वर्ग या निजी बातचीत में इस आंदोलन का जिक्र कितना आता था?
संघ की स्थापना 1925 में हुई। मैं संघ में 1926 में आया। डॉक्टरजी का भरपूर साथ मुझे मिला। उनके साथ बातचीत में गलती से भी मुसोलिनी और फासिस्ट आंदोलन का शब्द सुना नहीं। संघ की सोच पूरी तरह से अपनी मिट्टी से जुड़ी हुई है। नौजवानों में फासिज्म और कम्युनिज्म को लेकर उत्सुकता नहीं थी, ऐसा नहीं है। लेकिन उनके बारे में मैंने सबसे पहले सुना बुलढाणा के कानड़े शास्त्री से। उन्होंने इस विषय पर नागपुर में व्याख्यान दिया था। उसमें बहुत भीड़ थी। हम भी उन भाषणों में जाते थे। लेकिन डॉक्टरजी के मन पर फॉसिज्म का कोई प्रभाव था, ऐसा मुझे नहीं लगता।

आपने छोटी उम्र में ही अपने को संघकार्य के लिए समर्पित कर दिया था। तब आपके मन में कौन सी भावनाएं थीं? यानी तब संघ बहुत सीमित था। इसलिए डॉक्टरजी के शब्दों के कारण संघकार्य को अपने जीवन का कार्य बना लिया या देश के कल्याण का यही एकमात्र रास्ता है, यह विश्वास होने पर आपने संघकार्य करना स्वीकार किया?
इसमें दोनों ही बातें थीं। डॉक्टरजी का वात्सल्य एक भाग तो था ही। डॉक्टरजी ने हम पर इतना प्रेम किया, हमारे विकास की इतनी चिंता की कि हमें उनका हर वाक्य वेदवाक्य जैसा लगता था। लेकिन इसके साथ ही क्रांतिकरी संगठनों का महत्व भी हमारे दिलों पर गहरे पैठा हुआ था। भगतसिंह की गिरफ्तारी का दिन आज भी हमें याद है। संघ के हम नौजवान स्वयंसेवकों में क्रांतिकारी विचार उफन रहे होते थे। भगतसिंह और राजगुरू की तरह हमें भी कुछ ज्वलंत काम करना चाहिए, ऐसा हमें लगता था। इस बारे में हममें चर्चा होने लगी। कहीं से यह बात डॉक्टरजी को पता लगी। उन्होंने खुद क्रांतिकारी आंदोलन में हिस्सा लिया था। उसके बाद लंबे समय तक विचार करने के बाद संघ की स्थापना की थी। आठ- दस दिन तक वे रोजाना रात को हमें घर बुलाते थे, वहां दो-तीन घंटे रोजाना क्रांतिकारी आंदोलन यानी क्या, उनसे साध्य हुआ, उसकी क्या सीमाएं हैं और उसके साथ ही सारे समाज को संगठित करने की क्या जरूरत है, ये बातें वे हमें समझाते थे। हमारी शंकाओं का बार-बार समाधान कर उत्तर देकर हमें संतुष्ट करते थे। मैं तो कहूंगा कि उन बैठकों में हमें डॉक्टरजी की महानता  का पता चल पाया। इसके बाद मैंने और मेरे बहुत से सहयोगियों ने संघकार्य के लिए अपने को समर्पित करने का निश्चय किया। यह स्पष्ट है कि तब हमें यह बात समझ में आई कि हिन्दू संगठन ही देश के कल्याण का एकमात्र मंत्र है।

भारत का विभाजन हमारे आधुनिक इतिहास पर एक कलंक है। उस समय संघ ने सीमा प्रांत, पंजाब, सिंध के शरणार्थियों की बहुमूल्य मदद की, यह सही है। लेकिन युवाओं की इतनी शक्ति हाथ में होने के बावजूद संघ ने विभाजन को रोकने का प्रयत्न नहीं किया। इसका आश्चर्य होता है। विभाजन को कैसे रोका जा सकता है, इसका विचार संघ के वरिष्ठ नेताओं में हुआ था क्या? मुझे अब तक इस रहस्य का पता नहीं चल पाया, इसलिए पूछा।
इस बारे में  मुझे यह स्पष्ट रूप से स्वीकार करना होगा कि विभाजन का देश के भविष्य पर कितना अनिष्टकारी परिणाम होगा, इस बारे में आप जैसा कहते हैं उस तरह का विचार संघ के वरिष्ठ कार्यकर्त्ताओं में नहीं हुआ था। सच बताऊं तो हमारे लिए यह अचानक,अनपेक्षित रूप से आई आपदा थी। हमें आश्चर्य का धक्का लगा था। हम उस समय ऐसा व्यापक विचार करने में कम पड़े, आप ऐसा कह सकते हैं। मुझे याद आता है कि मार्च 1947 में विभाजन से पहले मैं सीमा प्रांत और पंजाब का दौरा कर रहा था। तब मुस्लिम लीग ने डायरेक्ट एक्शन या दंगे शुरू किए थे। हिन्दू परिवारों को डर लगने लगा था। तब उन्हें संभालना, मदद करना हमारा प्रमुख काम बन गया और वह काम हमने प्राणों की बाजी लगाकर किया।

 कांग्रेस ने विभाजन को मंजूर किया, संघ ने विभाजन का प्रतिरोध करने के लिए आंदोलन खड़ा किया होता तो हिन्दुओं में फूट पड़ जाती। इसे टालने के लिए प्रतिरोध नहीं किया। ऐसा कुछ लोग बताते हैं। यह कितना सही है?
यह सही नहीं है। हमारे पास प्रतिरोध की कोई योजना ही नहीं थी, यही सही है।

बालासाहब, संघ के कार्यकर्ताओं का दावा होता है कि संघकार्य परिस्थिति निरपेक्ष होता है। मगर हमें यह स्वीकार करना पड़ेगा कि 1947 तक संघ का काम मुस्लिम लीग की पाकिस्तान की मांग तेज होने के बाद दु्रत गति से फैला। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में संघ की शाखाएं बहुत कमजोर हुई हैं। आप किस तरह इसकी मीमांसा करेंगे?
संघ का कार्य परिस्थिति निरपेक्ष है, इसका अर्थ यह है कि हिन्दू संगठन की आवश्यकता परिस्थिति निरपेक्ष है। 1947 में हिन्दू संगठन आवश्यक था और आज नहीं है, ऐसा थोड़े ही है। लेकिन किसी भी कार्य को परिस्थिति और वातावरण का फायदा मिलता ही है। 1947 से पहले वातावरण संघ के विस्तार के लिए पोषक था। यह स्पष्ट है। इससे पहले मैंने पंजाब के दौरे के बारे में कहा था-इस दौरे में एक सिख नेता मेरे साथ थे, जो बाद में उपरक्षामंत्री बने। वे दो दिन मेरे साथ घूमे थे। वे अपनी गाड़ी से ही मुझे घुमा रहे थे। उस समय उन्हें मेरा दौरा महत्वपूर्ण लग रहा था। दिल्ली में संघ की बैठक हुई। उसमें एक केबिनेट सेक्रेटरी उपस्थित थे। तब लोगों में यह धारणा थी कि पुलिस और सेना आपकी मदद करेगी, मगर मदद के लिए कोई दौड़कर आएगा तो संघ ही। 46-47 की तुलना में अब संघ का काम कम हुआ है, यह सही है। लेकिन उस समय के काम से आज की तुलना करना ही गलत है, क्योंकि वह परिस्थिति ही असामान्य थी। किसी भी काम में उतार-चढ़ाव तो आते ही हैं। संघ का काम कम हुआ है, मगर उतना नहीं जितना आप कह रहे हैं।

लेकिन एक बात तो सही है कि आज के युवाओं को संघ का हिन्दू संगठन का मंत्र आकर्षक लगता है मगर उसकी कार्यपद्धति यानी शाखा के प्रति आकर्षण बचा नहीं है। ऐसी स्थिति में युवाओं को आकर्षित करने के लिए कार्यक्रम में कोई सुधार, कुछ परिवर्तन आवश्यक हैं, क्या आपको ऐसा लगता है?
यह तो मुझे स्वीकार करना ही चाहिए कि युवा पीढ़ी को पहले की तरह संघ के कार्यक्रम आकर्षक नहीं लगते। और ज्यादा संख्या में युवा संघ में आएं इसके लिए कार्यक्रम में बदल करने पर विचार चल रहा है। आज ही नहीं, जब गुरुजी जीवित थे तब भी विचार हुआ था। लेकिन यह बदलाव जितना आसान लगता है उतना आसान नहीं है। कोई व्यक्ति जितनी जल्दी निर्णय कर सकता है, संस्था में उतनी जल्दी निर्णय नहीं हो सकते। मगर इससे भी आगे की महत्वपूर्ण बात यह है कि बदलाव करने पर युवा आकर्षित होंगे, इसका कुछ मात्रा में विश्वास होना चाहिए। संघ में दंड, लेजिम, संचलन, कबड्डी-खोखो आदि कार्यक्रम चलते हैं। आज तक इन कार्यक्रमों ने हमें सफलता दी, लेकिन हमारी उनके प्रति कोई भावनात्मक प्रतिबद्धता नहीं है। विदेशी खेलों से हमें कोई एलर्जी है, ऐसा नहीं है। सैनिक पद्धति का संचलन, गणवेश, बैंड तो संघ में शुरुआत से है। जब संघ प्रार्थना बदलने का धैर्य दिखा सकता है, तो कार्यक्रम बदलने में क्या मुश्किल हो सकती है। शुरुआत में संघ की प्रार्थना का पूर्वार्द्ध मराठी और उत्तरार्द्ध हिन्दी में होता था। आखिर में बजरंग बली, बलभीम की जय, राष्ट्रगुरू रामदास स्वामी की जय आदि जयजयकार की घोषणाएं की जाती थीं। डॉ. हेडगेवार के जीवनकाल में ही प्रार्थना को पूरी तरह संस्कृत में बनाया गया। अभी वही प्रार्थना जारी है। प्रार्थना के अंत में ‘भारतमाता की जय’ का जयकारा किया जाता है। लेकिन आज युवाओं में व्यायाम और खेल का आकर्षण है क्या, यह समझ में नहीं आता। कालेज के मैदानों में क्रिकेट हाकी और फुटबाल खेलने कितने युवा आते हैं। दौड़, ऊंची छलांग और गोलाफेंक में कितने युवा हिस्सा लेते हैं। व्यायामशालाओं में कहां भीड़ होती है। इसके अलावा केवल भीड़ जमा करना हमारा उद्धेश्य नहीं है। हम ज्यादा संख्या तो चाहते ही हैं मगर युवाओं को संस्कार देना हमारा मुख्य उद्देश्य है। यह हम नहीं भूल सकते।

संघ से प्रतिबंध हटने के बाद संघ का काम ज्यादा कल्पनाशील और समाजोन्मुख हो, यह संघ के युवाओं को लगने लगा था। उनकी इस बेचैनी पर संघ के वरिष्ठ नेताओं ने ध्यान नहीं दिया। इसलिए इस मुद्दे पर सार्वजनिक तौर पर विचार-मंथन हुआ। इसमें संघ की थोड़ी-बहुत आलोचना होने के कारण संघ के अनेक वरिष्ठ नेताओं को सार्वजनिक विचार-मंथन पसंद नहीं आया। संघ में हजारों युवा होने के कारण ऐसा खुला विचार-मंथन अपरिहार्य है, शायद स्वगतार्ह है। आपको ऐसा नहीं लगता?
अपरिहार्य सही है लेकिन आलोचना के बारे में स्वगतार्ह नहीं कहा जा सकता। आलोचना कौन करता है, कौन से उद्धेश्य  से करता है, यह तो देखना पड़ेगा। पर संघ के कुछ शक्तिस्थान भी हैं। संघ के लोग सार्वजनिक तौर पर बहसबाजी न करते हुए एक दिल से काम करते हैं। यह भी एक शक्तिस्थान है। आम जनता में संघ के प्रति आदर की एक वजह यह भी है। विचार-मंथन में कुछ मर्यादाओं का पालन किया जाना चाहिए। जिससे कटुता निर्माण हो, काम में बाधा पैदा हो, ऐसे तरीकों से बचना चाहिए। इसका मतलब यह नहीं है कि हमें आत्मपरीक्षण नहीं करना चाहिए। और ऐसा न समझें कि संघ में आत्मपरीक्षण नही होता।  गुरुजी के साथ बैठक में हर मुद्दे पर बेबाक चर्चा होती थी।

मर्यादा का पालन हो, यह बात समझ में आती है, लेकिन सामान्य स्वयंसेवक को कोई बात खटकती है या उन्हें कोई नई बात सूझती है जिसे वह वरिष्ठों को बताना चाहे तो क्या संघ में ऐसा वातावरण पैदा नहीं होना चाहिए?
जरूर होना चाहिए। हमें संघ के स्वंसेवकों में यह विश्वास बढ़ाना है कि वे संघ के अधिकारी से कोई भी बात खुलकर कह सकते हैं। मैं स्वयं इस दिशा में कोशिश करता हूं। मैं बौद्धिक वर्ग न लेकर स्वयंसेवकों से चर्चा करता हूं। मेरा कार्यक्रम ऐसा होता है कि वे सवाल पूछें और मैं उनका उत्तर दूं। इसके बाद भी किसी स्वयंसेवक का समाधान न हो तो वह बाद में मेरे से चर्चा कर सकता है।

 आपने हाल ही में कहा कि संघ का काम लोगों में राष्ट्रीयता की भावना निर्माण कर हरेक को उसके पसंदीदा क्षेत्र में काम करने देना है। लेकिन जिन स्वयंसेवकों ने रचनात्मक काम शुरू किये हैं, उन्हें संघ के नेताओं की तरफ से प्रतिसाद नहीं मिलता। ऐसा क्यों होता है?
जो अच्छे रचनात्मक काम हैं उन्हें अवश्य प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।। मैं खुद ऐसे कामों की मदद करता हूं। बापू लाखाडीकर ने लाखाडी गांव में स्कूल-कॉलेज आदि संस्थाएं खड़ी की हैं। मुझसे जितनी होती है उनकी मदद करता रहता हूं और बाकी लोगों को करने के लिए कहता हूं। कुछ लोगों ने बिहार और मध्यप्रदेश में स्कूल और अस्पताल शुरू किए हैं। उन्हें हम मदद करते हैं। लेकिन  हमारा कहना होता है कि वे संघ की मदद पर निर्भर न रहें, बाहरी संसाधन जुटाएं। आखिर संघ का संगठन मजबूत बनाना और इन कामों के लिए आदमी मिलना महत्वपूर्ण है। एक बात सही है कि लोगों की जितनी अपेक्षा थी उतने रचनात्मक काम खड़े नहीं हो पाए हैं। संघ की प्रसिद्धिविमुखता के कारण जो काम अच्छे चल रहे हैं, उनके ज्यादा ढोल नहीं पीटे जाते।
 अब एक नाजुक विषय। 3-4 साल पहले गोलवलकर गुरुजी ने चातुर्वर्ण्य के बारे में इंटरव्यू दिया था। पर महाराष्ट्र में बहुत विवाद हुआ। क्या सचमुच चातुर्वर्ण्य पर संघ का अलग नजरिया है?
गुरुजी ने चातुवर्ण्य पर भाष्य किया, लेकिन हरेक की विषय प्रस्तुति की अलग पद्धति होती है। गुरुजी का हमारे प्राचीन साहित्य और धर्म का गहरा अध्ययन था। इसलिए वे प्राचीनकाल के उदाहरण देते थे। मैं जर्मनी, इस्रायल और इंडोनेशिया के उदाहरण दूंगा। गुरुजी इस तरह से अपनी बातें कहते थे ताकि पुरानी परंपरा की शुभ और कल्याणकारी बातें टिकी रहें। लेकिन आज की व्यवस्था को वे समाज व्यवस्था न कहकर अव्यवस्था कहते थे।

 लेकिन चातुर्वर्ण्य के बारे में संघ का नजरिया क्या है?
बिल्कुल स्पष्ट लिखिये कि संघ को किसी भी रूप में चातुर्वर्ण्य व्यवस्था मंजूर नहीं है।
चातुर्वर्ण्य व्यवस्था ने सबसे  बड़ी समस्या निर्माण की है अस्पृश्यता और सामाजिक विषमता की। इस बात को सभी ने स्वीकार किया है कि संघ में अस्पृश्यता और जात-पात नाम की चीज नहीं है। हमारे बढ़िये नाम के कार्यकर्ता हैं। बढ़िये बेलदार समाज के हैं, यह बात हमें काफी साल बाद संयोग से पता चली। हमने कभी उनकी जाति की पूछताछ नहीं की। हमारे घर में बचपन में सनातनी वातावरण था लेकिन संघ में आने के बाद मैंने माताजी से कहकर रखा था कि मेरे साथ जो कोई खाना खाने आएगा उसकी थाली मेरे बगल में ही परोसें और खाना खाने के बाद वे थाली उठाएंगे नहीं। कई ‘अस्पृश्य’ कहे जाने वाले लोगों ने मेरे घर खाना खाया है। इसकी वजह यह है कि संघ के कार्यक्रमों में स्पृश्य और अस्पृश्य का भेद नहीं रहता। लेकिन यह ध्यान में रखिए, यह दो-चार हजार साल पुरानी समस्या है। केवल आक्रोश प्रगट करने और कोई स्टंट करने से वह हल नहीं होगी। आज तक कई आंदोलन हुए होंगे मगर अस्पृश्यता तो कायम है ना। हम लगातार हरिजनों के पीछे पड़ते हैं तो उन्हें संदेह होता है। वह स्वाभाविक भी है। इसलिए संघ की पद्धति ज्यादा परिणामकारक है, ऐसा मुझे लगता है। फिर भी मैं मानता हूं कि परिवर्तन की गति तेज होनी चाहिए। लेकिन बहुत जल्दबाजी करने से भी काम नहीं होगा। मेरी मान्यता है कि अस्पृश्य बस्तियों में संघ की शाखाएं बढ़ें तो स्वाभाविक रूप से अस्पृश्यता निवारण होगा। 

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